राकेशरेणु की कविता : जीवन के उत्स पर कविता का उत्सव / दिलीप दर्श

'इसी से बचा जीवन' कवि राकेशरेणु का दूसरा कविता - संग्रह है। पच्चीस साल के लंबे अंतराल के बाद तो लोग अपनी उपलब्धि, स्मृति या घटना की सिल्वर जुबली मनाने की ‘योग्यता’ हासिल कर लेते हैं और उसे बड़े गर्व एवं संतोष से ‘सेलीब्रेट’ भी करते हैं लेकिन राकेशरेणु अपने इस नये काव्य - संग्रह को लोकार्पित कर मानों अपनी अनुभूतियों का रजत महोत्सव मना रहे हैं, जिसमें जीवन की अनुभूत सच्चाई है, सीधी- सरल सादगी है, न कि आनुष्ठानिक प्रदर्शन या उपलब्धियों का शोर।

प्रसिद्ध कवि – आलोचक भारत यायावर ने इसकी भूमिका “अग्रेषण” के तहत लिखी है। इस भूमिका में उन्होंने राकेशरेणु की काव्य - चेतना की स्थिति, गति और दिशा पर अपनी संक्षिप्त आलोचनात्मक दृष्टि डाली है जिसे पढ़कर इस संग्रह की रचनाओं को बेहतर समझा जा सकता है। इस लिहाज़ से यह भूमिका भी इस संग्रह का एक अपरिहार्य हिस्सा या कहें कि ‘ प्रस्तावना’ बन गई है। लोकमित्र प्रकाशन, दिल्ली ने आकर्षक आवरण और पृष्ठों में इसे प्रकाशित कर इसके पुस्तक -रूप को और भी आकर्षक और प्रस्तुत्य बना दिया है।

राकेशरेणु मूलतः उस सार्वभौम चेतना के कवि हैं जिसमें जीवन सिर्फ ‘स्व’ के लिए नहीं जिया जाता अथवा इसे सिर्फ ‘स्व’ के विकास या उन्नयन के अवसर के रूप में नहीं देखा जाता, न ही इसमें कोई ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ स्थापित की जाती है बल्कि जिसमें सहनशीलता,  सहजीविता और सहअस्तित्व के सहारे जीवन नित नवीन सीढ़ी चढ़ता जाता है।

यही नहीं, समकालीन कविता में जो नकारात्मकता पसरी हुई दिखाई देती है, उसे चीरकर कवि – दृष्टि आशावाद का एक नया कोना निर्मित करती है। कवि जीवन के क्षुद्र से क्षुद्रतर अवयवों में जीने का बड़ा मकसद ढूंढ लेता है। इसमें समकालीन जीवन के तमाम संघर्ष या चिंताएं कहीं भी निराशा, क्षोभ या प्रतिरोध के रूप में प्रकट नहीं हुई है बल्कि कवि एक सकारात्मक भाव – संसार में ले जाकर पाठक को उन चिंताओं अथवा संघर्षों का एहसास करा जाते हैं । यह एक अनूठी काव्य – तकनीक है जो राकेशरेणु को समकालीन कवियों की भीड़ से अलग करती है।

‘शुभकामनाएं’ कविता आत्म- विस्तार की कविता है। इसमें निहित सदाशयता में जो उद्दात्त भाव का प्रसार हुआ है वह काबिले गौर है -

“ग्रहों में सबसे उर्वर, जीवनदायी 
वसुंधरा बनो
.........................
नदियों में बनो मिसिसिपी 
अनेक देशों को सींचती, पोसती
अनेक संस्कृतियों को
वृक्षों में सबसे सघन फलदार वृक्ष बनो....”

‘ शुभकामनाएँ/ चार’ कविता में कवि ने अपनी जिन इच्छाओं को आकार दिया है, वे सांसारिक सुख के व्यक्तिगत उपभोग की नहीं हैं बल्कि पूरे जगत् को बेहतर और जीने- रहने के योग्यतर बनाए जाने की हैं। इसी पृथ्वी को सुंदरतर बनाने के प्रबल आग्रह में दरअसल समरस और समावेशी मूल्यों के प्रति कवि की गहरी आस्था ही प्रकट हुई है ।

इस चेतना के मूल में जो प्रेरक तत्व है, वह है मातृ -  शक्ति जिसे कवि अपनी रचनाशीलता की आत्मा में हमेशा बसाए रखता है और उसी की रोशनी में जीवन और जगत् के झूठ- सच को रूपायित करता है । ‘स्त्री’- श्रृंखला की कविताओं में व्यक्त धरती की उर्वरा मातृ – चेतना  “एक दाना दो, वह अनेक दाने देगी...” , सुमित्रा नंदन पन्त की “आ ! धरती कितना देती है !” की याद दिला जाती है। हलांकि राकेशरेणु ने अपनी मातृचेतना को सिर्फ धरती तक सीमित या केंद्रित नहीं रखा है बल्कि उसमें व्यापकता और विविधता में मातृशक्ति के उद्दात्त और जीवंत उन सारे रुपों- बिंबों को समेटा है जो आम तौर पर कवि के परिवेश में हैं और जिनसे कवि – संवेदना अक्सर टकराती रहती है। जैसे – महुआ के फूल बीननेवाली , गोबर पाथनेवाली, रसोई पकानेवाली, साग तोड़नेवाली, गाभिन बकरी, कंगारू मां आदि। इन रूपों में कवि ने इस बात की पहचान की है कि सृष्टि या जीवन में जो भी रचा जा रहा है और इस रचना की निरंतरता का जो सूत्रधार है वह है मातृचेतना या शक्ति जो प्रेम में निमग्न है –

“ स्त्रियाँ जहाँ कहीं हैं
प्रेम में निमग्न हैं
एक हाथ में थामे दलन का पहिया
दूसरे से सिरज रही है दुनिया”

यह सही है कि सृष्टि और सभ्यता दोनों का आधार और उत्स मातृशक्ति है। बीज- वपन तो सिर्फ सृजन की चाह का संक्षिप्त विस्तार है, बीज से भारमुक्त होने का एक पुरुष- सुलभ प्रवृति या उपाय है लेकिन बीज की असली यात्रा शुरू होती है मातृ शक्ति के नर्म – उष्ण शरीर में जहां सृष्टि का भविष्य हाथ – पैर मारता है और मां हाथ – पैरों के उन नन्हें प्रहारों को सहकर भी उसे ममता और प्यार का पोषण देती है।

‘ अब जबकि तुम चली गई हो मां’ कविता में कवि का जो मातृचेतना के प्रति अगाध प्रेम और श्रद्धा है उसके विस्तार का चरमोत्कर्ष घटित हुआ है जब उनकी संवेदनात्मक जमीन पर विछोह – भाव का संसार पसर जाता है।  मां से बिछड़ जाना कुछ कहने के लिए कोई बहाना या  कल्पना नहीं बल्कि कवि के जीवन का सत्य है जो सिर्फ कवि का नहीं, बल्कि हरेक मनुष्य या प्राणी का है जिसके पास कभी मां थी और अब नहीं है। मां का धातृ – चरित्र जीवन के कितने सूत्रों को विभिन्न छोरों पर एक साथ समेट कर रखती है उसे इसमें देखा जा सकता है –

“लाई बांधने से पहले 
और लाई की तरह ही 
कौन बांधे रखने पाएगा पूरे परिवार को”

यही नहीं इस कविता में ठेठ गंवई जीवन के कई प्रतीक और बिंब एक एक कर सजीव हो उठते हैं। भाषा ने भाव के मौलिक रूप को बड़े मार्मिक ढंग से खोला है।

स्त्री को ही कवि ने न सिर्फ सृजन के मूल  बल्कि सभ्यता और गार्हस्थ्य जीवन के आधार या धुरी के रूप में भी देखा है क्योंकि सिर्फ सृजन काफी नहीं है, सभ्यता सृजन को एक व्यवस्था या तंत्र प्रदान करती है अन्यथा सृजन एक जंगल होकर रह जाता है और सभ्यता, मनुष्यता का जंगली जीवन के पार जाने का सुव्यवस्थित प्रयास है। इसमें स्त्री- चेतना की क्या भूमिका है, ‘तुम्हें प्यार करता हूँ/ एक’ में देखिए-

“ भाषा की जड़ों में तुम हो 
हर विचार, हर दर्शन तुमसे
हर खोज, हर शोध की वज़ह हो तुम 
सभ्यता की कोमलतम भावनाएं,  तुमसे
क्योंकि तुम सभ्यताएं सिरजती हो ”

परन्तु मातृ – सत्ता या स्त्री- चेतना की भाव – धारा में बहकर कवि पितृ –चेतना की अपराजेयता को कभी नहीं भूलते। ‘पिता के लिए’ कविता में कवि ने पिता के बहाने अपने पुरखे की विरासत को जीने का आश्वासन देते हुए उनके प्रति अपने कृतज्ञता – बोध को सार्वजनिक भी किया है –

“... दबा नहीं रहने दूंगा मैं 
माटी के ढूह के नीचे
उसकी आग धीरे – धीरे बुझ जाने के लिए...”

‘लहरें -2, आत्म सम्मोहन से आविष्ट कविता लगती है। “फेनिल माथे पर उंगलियों से अपना नाम लिखने” की जिद इस हद तक है कि कवि बाद में रेत पर भी नाम लिख डालता है। प्रेयसी के ‘ चुंबन का गीलापन’ अजीब सिहरन पैदा करता है।

‘अनुनय’ इस संग्रह की श्रेष्ठ कविताओं में शुमार की जा सकती है। दरअसल ‘लौट आना’ जैसी चाह कुछ अन्य कविताओं में भी बड़ी तीव्रता से प्रकट हुई है। लौटना जीवन की मूल प्रक्रिया है और लौटाना प्रकृति की मूल प्रवृत्ति। पूरा भारतीय दर्शन इसी प्रक्रिया या प्रवृत्ति पर खड़ा है। कवि ने इसी ज्ञान को भावावेग में रचा है। भाव और भाषा के प्रवाह में लौटने के अनुनय का स्वर खोया नहीं है बल्कि मौन के पसरे आकाश में वह भी लौटता हुआ प्रतीत होता है। ‘उदास किसान के गान की तरह’ लौटना कोई आसान मानवीय स्थिति नहीं है लेकिन इस कठिन प्रक्रिया या स्थिति को कितना ‘ एफर्टलेस’ बनाकर व्यक्त किया गया है-

“ लौट आओ
जैसे लौटती है सुबह 
अंधेरी रात के बाद 
जैसे लौट आता है सूरज 
सर्द और कठुआए मौसम में 
जैसे जनवरी के बाद फरवरी लौटता है 
पूस – माघ के बाद फागुन, वैसे ही
वसंत बनकर लौटो तुम ”

इसी तरह ‘लौट आओ’ कविता में भी किसी को पास बुलाने की ज़िद है और किसी के लौटने का आह्वान है। इसकी पहली ही पंक्ति  “ वह डूबा पत्थर सांसें ले रहा है” एक अभिनव प्रयोग है ।

‘बचा रहेगा जीवन’ कोमलतम मानवीय भावनाओं की एक कोमल कविता है और  शायद संग्रह की प्रतिनिधि कविता भी  है। जबतक जीवन में अपनत्व की गर्मी और प्रेम की ऊष्मा है, और जब तक वह स्पर्श, आलिंगन, दृष्टि और रोजमर्रा के जीवन – व्यापार में प्रकट होकर हृदय को गरमाए रखेगी तबतक जीवन बचा रहेगा और यह जगत् भी।

पूरे संग्रह में ‘फैसला’ और ‘ अंधेरे समय की कविता’ बिल्कुल अलग स्वाद और गंध की कविताएँ हैं। कवि अपने परिवेश से बिल्कुल अलग-थलग नहीं है बल्कि उसके बदलते घटना – क्रम और गतिविधियों पर चौकन्ना भी है। ‘अंधेरे समय की कविता’ में राजनीतिक अवमूल्यन और वैचारिक स्खलन को बड़ी गहराई से खंगाला है –

“ ये उन दिनों की बात है 
जब कुतर्क ही राष्ट्रीय विमर्श था
जो उग्र था सौम्य की स्वीकृति चाहता था
हत्यारा राम नामी चादर ओढ़े था
और अहिंसा का सिरमौर बनना चाहता था ”

‘फैसला’ एक अद्भुत कविता है। कुत्तों, उनकी सभा, सभा के फैसले के बिम्ब- संसार में कवि ने कमजोर वर्ग के प्रति शक्तिशाली वर्ग या सत्ता की उपेक्षा और इस वर्ग की ‘दूध पर की मक्खी’ वाली स्थिति को अत्यंत व्यंग्यात्मक लहजे में जीवंत कर दिया है। कमज़ोर वर्ग का पीड़ा- गायन तो बहुत हुआ है, अब जरुरत है ‘ कुत्तों के कुत्तेपन’ को सड़क तक खींच लाना ताकि पूर्वाग्रह से ग्रसित नीति और अन्याय- पूर्ण फैसले के पीछे जो असली चेहरे हैं उनकी शिनाख्त की जा सके। इस जंगल राज के फैसले का एक नमूना देखिए –

“ ...कि सभी मरियल, नामालूम से कमजोर कुत्तों को
घुसपैठिया घोषित किया जाए 
बंद कर दी जाए उन्हें मिलनेवाली तमाम सुविधाएं तत्काल प्रभाव से 
और जल्दी से जल्दी उन्हें देश से बाहर किया जाए ”

सारांशतः यह संग्रह, काव्य की दृष्टि से एक सफल और सार्थक कृति है जो राकेशरेणु को कवि के रूप में एक अलग पहचान भी देती है, और वह पहचान है ‘ तीव्र मानवीय संवेदनाओं के एक कोमल कवि’ की, जीवन के उत्स की ओर लौट आने वाले एक अथक कवि की जिसके पास शब्द तो छोटे – छोटे हैं लेकिन कथ्य बहुत बड़ा है और व्यापक भी।

इस संग्रह के ‘ अग्रेषण’ में भारत यायावर की टिप्पणी कि – “ समकालीन कविता में जब एकरसता और जड़ता का शिल्प और वस्तु दोनों रूपों में प्रसार हो चुका है, ऐसे समय में ये कविताएँ स्वच्छ हवा के झोकों की तरह तरोताज़ा करती हैं।” इस कृति  पर बिल्कुल सटीक बैठती है । कवि और प्रकाशक दोनों को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएँ । □□□


पुस्तक  : इसी से बचा जीवन 
कवि :    राकेशरेणु 
मूल्य  : 250/- रुपये ( हार्डकवर)
प्रकाशक : लोकमित्र 
             1/ 6588, पूर्वी रोहतास नगर
             शाहदरा, दिल्ली- 110032
दूरभाष  : 011 – 22328142







































1 comment:

  1. शुक्रिया दिलीप जी! आपने इस समीक्षा को दोबारा पढ़ने का मौका देकर एक बार फिर अपनी कविताओं पर विचार करने का अवसर दिया है ।

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