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Showing posts from March, 2019

ओ मेरे आभासी मित्र

ओ मेरे आभासी  मित्र / कविता ओ मेरे आभासी मित्र ! नहीं रहे अब इतने भी आभासी तुम नहीं रहा यह प्रेम भी उतना आभासी जो दे जाता है हमें बात - बात पर बेचैनी बीच - बीच में जरा उदासी ! तुम्हारी टिप्पणी या शाबाशी कभी तल्ख या दिलखोल कभी सधे या बिगड़े बोल कभी कूटनीतिक कभी रणनीतिक कविता से लेकर कभी राजनीतिक बातें हों कुछ भी, कितने ही हों  बडे लोग कह देते अपने हिसाब से इस आभासी दुनिया का लोकतंत्र है बेहतर, कितना वास्तविक ! खुशबू से मतलब है या कागजी गुलाब से ? तुम्हें पता है ? इमोजी हो या टिप्पणी कितना हंसाती है कितना रुलाती है  कितना गुस्सा दिलाती है मुस्कान या आंखें नम और कनपट्टी भी होती है गरम बताओ, यह खुशी, नमी या गरमी भी  क्या, है भरम ? कैसे कहोगे इसे आभासी ? ओ मेरे आभासी मित्र  ! तुम बैठे हो दूर सात समुन्दर पार या यहीं कहीं मुहल्ले -टोले में यह दूरी कितनी आभासी है ग्रह के इस छोटे – से गोले में ओ मेरे पृथ्वीवासी मित्र ! ओ मेरे सहवासी मित्र ! कैसे कह दूं,  कहो तुम्हीं कि तुम हो मेरे आभासी मित्र  ।                                           

क्या तुम्हें नहीं लगता

"क्या तुम्हें नहीं लगता  ? " ( कविता) ------------------------------- १. यह जो हमारी सदी है क्या तुम्हें नहीं लगता बह रही है लेकिन भटकी हुई नदी है और हम सब थके - हारे तैराक ? जो धीरे धीरे भूलते जा रहे हैं तैरना तैरते हुए लगातार  फिर रोज एक नया भटकाव खत्म कर देता है किनारे की संभावना एक के बाद एक पानी का तेज बहाव  बढ़ता दबाव जाने कब तोड़ दे कंधे कब टूट जाए तनी हुई डोर सांसों की किन थपेडों में दिशाएं गुम हो जाएं खो जाए नीला आकाश भविष्य का कब बुझ जाएं हमारे सूरज, चांद और तारे न मालूम कब हम सब बन जाएँ ऊपराती लाशें क्योंकि भूल रहे हैं हम तैरना क्या तुम्हें नहीं लगता  ? २. कंधे सुबह-सुबह शर्ट के हैंगर - से खूब सीधे,  तने - खड़े संजे- संवरे बाल कंडीशनर की सोंधी गंध डोलती है आसपास हवा में बिखर जाती शाम तक  उजड़ जाते बाल -  विन्यास याद नहीं रहती है पिछले पाकिट में कब खोंसी थी कंघी लेकर झुके कंधे लटका हुआ लेदर बैग - सा मुखड़ा कहती थी बीबी कभी चांद का टुकड़ा याद है झुलसाती दोपहर खेत जोतकर भूखे -प्यासे बैल पीछे - पीछे मेरे पिता लौटते थे घर कंध

नामवर के जाने पर/

आज पता चला नामवर ! तुम शरीर नहीं थे आत्मा भी नहीं थे तुम शरीर और आत्मा के बीच पसरे हुए शून्य में एक जीवित संवाद थे तुम तुम नहीं थे कोई बरतन समेटे हुए बस हवा, मिट्टी, पानी, आग या आकाश तुम तो थे बस बर्तन के आकार में विस्तृत हुई संवेदना का अनमोल आयतन हवा का सिसकी – भर बहाव मिट्टी की चुटकी - भर उर्वरता पानी की चुल्लू - भर नमी आग की चिंदी - भर गर्मी आकाश का मुट्ठी – भर शून्य – विस्तार और क्या – क्या नहीं था उस आयतन में ! ...लेकिन तुम नहीं थे पत्तों के बीच से झांकता , स्वादिष्ट कोई फल जो मिटा सकता है सिर्फ भूख या लालच तुम थे असंख्य पत्तों से बनी वह घनी छांह जो मिटाती है थकान सदियों थकी आत्मा की ! सचमुच बरगद थे तुम नामवर जड़ें थी तुम्हारी जमीन और आकाश में ! तुम नहीं थे फूल न ही कांटा तुम तो थे बस रंग, गंध या चुभन नामवर ! तुम यात्री नहीं थे तुम थे एक यात्रा जिसे करते हुए आज रुक गया समय कुछ क्षणों के लिए बस शायद बताने के लिए – “मनुष्यता और कुछ नहीं,  मेरी यात्रा ही है ।” नामवर का होना संकेत है कि समय अपनी यात्रा पर है नामवर का न होना मतलब फिर कोई चौराहा है आगे

दाल / कविता

दाल  / कविता उदास हो जाती है रंग और स्वाद के बिना जिंदगी हल्दी और नमक के बिना दाल कितनी उदास हो जाती है ! शाश्वत चूल्हे की आग जैसे समय प्रेशर कुकर है या संसृति सीटी या सीत्कार उबलता पानी है शायद दुख पक रही है दाल  लेकिन अब दाल उदास नहीं रहेगी उसमें आएगा रंग, स्वाद और गंध अब आ गई हो तुम लगेगा छौंका या तड़का प्रेम का कलछी जो है तुम्हारा हाथ श्रम के गरमाते तेल में पकेगा तुम्हारी मुस्कान का चुटकी भर जीरा हींग जैसे तुम्हारी सांसों की गर्मी हर लेगी उदास दाल की ठंडी थकान क्योंकि अब आ गई हो तुम बदल गई है घर की हवा !□□□

दीवार /1

दीवार /1 दीवार के साथ जीने की सदियों लंबी आदत, परंपरा बन जाती है बिल्कुल दीवार - सी ही ठोस और खड़ी हमें जीना पड़ता है इन्हीं दो दीवारों के बीच हमेशा दीवार हमारे बीच रहती है और हम दीवारों के बीच हम तोड़े जाते हैं समय - समय पर टूटते जाते हैं हम दीवारें नहीं हम कुछ बरस जीते हैं दीवारें जीती हैं सदियां, सहस्राब्दियां...

दीवार/3/ कविता

पहले दीवार नहीं बनती पहले बनता है अंधेरा अंधेरा जबतक फैलता है दीवार नहीं बनती है बहुत सर्द मौसम में जब समय होने लगता है ठंडा और प्रेम बिल्कुल बर्फ तो सिकुड़ने लगता है अंधेरा जमने लगता है वह उसके बीच से उगने लगती है पतली दीवार कहीं कहीं अंधेरा चला जाता है खड़ी रह जाती है दीवार दीवार अंधेरे की ही वंशज है हम उसमें अंधेरे की जीन ढूंढ सकते हैं।

दीवार/2

जब कभी कुछ बोलना होता है हम उन्हें दीवार पर लिख भाग जाते हैं दीवार के पीछे लिखकर भागना बड़ी सुविधा है दीवार ही दे सकती है मनुष्य की भीड़ नहीं दीवार की अपनी कोई बात नहीं होती वह बोलती है वही जो उस पर लिखते हैं समय-समय पर हम सब लिखते - लिखते कभी नहीं भरती दीवार इसलिए कभी नहीं थकती वह बोलते - बोलते दीवार नहीं,  हम बोलते हैं दरअसल