ओ मेरे आभासी मित्र / कविता ओ मेरे आभासी मित्र ! नहीं रहे अब इतने भी आभासी तुम नहीं रहा यह प्रेम भी उतना आभासी जो दे जाता है हमें बात - बात पर बेचैनी बीच - बीच में जरा उदासी ! तुम्हारी टिप्पणी या शाबाशी कभी तल्ख या दिलखोल कभी सधे या बिगड़े बोल कभी कूटनीतिक कभी रणनीतिक कविता से लेकर कभी राजनीतिक बातें हों कुछ भी, कितने ही हों बडे लोग कह देते अपने हिसाब से इस आभासी दुनिया का लोकतंत्र है बेहतर, कितना वास्तविक ! खुशबू से मतलब है या कागजी गुलाब से ? तुम्हें पता है ? इमोजी हो या टिप्पणी कितना हंसाती है कितना रुलाती है कितना गुस्सा दिलाती है मुस्कान या आंखें नम और कनपट्टी भी होती है गरम बताओ, यह खुशी, नमी या गरमी भी क्या, है भरम ? कैसे कहोगे इसे आभासी ? ओ मेरे आभासी मित्र ! तुम बैठे हो दूर सात समुन्दर पार या यहीं कहीं मुहल्ले -टोले में यह दूरी कितनी आभासी है ग्रह के इस छोटे – से गोले में ओ मेरे पृथ्वीवासी मित्र ! ओ मेरे सहवासी मित्र ! कैसे कह दूं, कहो तुम्हीं कि तुम हो मेरे आभासी मित्र ।
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