रेणु – साहित्य : भाषा और शिल्प के नये सामर्थ्य / दिलीप दर्श

फणीश्वरनाथ रेणु 
“अपनी कहानियों में मैं अपने को ही ढूंढता फिरता हूँ । अपने को अर्थात् आदमी को ।”
फणीश्वरनाथ रेणु ने यह बात अपनी कहानियों के बारे में जरूर कही है लेकिन यह आत्मकथन दरअसल रचनात्मकता का रहस्य - सूत्र है। मनुष्य जहाँ कहीं और जब कभी कुछ गढ़ता या रचता है वहां दरअसल ‘स्व’ की ही खोज होती है। रचना या सृष्टि में रचनाकार या स्रष्टा की छवि या गंध रहती ही है । यही कारण है कि अपनी हरेक रचना में रेणु स्वयं मौजूद हैं खुद को तलाशते हुए, आम आदमी को ढूंढते हुए, उनके बीच उनके जीवन के सामूहिक यथार्थ का हिस्सा बनकर, उनकी पीड़ा और घुटन सहते हुए उनकी आशाओं- आकांक्षाओं का सहभागी बनकर ! अपनी कथा- भूमि पर वे अपने पात्रों के जीवन- व्यवहार का साक्षी भी हैं और उनके दुख – सुख या संघर्ष का भोगी भी। इसलिए उनके कथा – साहित्य में व्यक्त अनुभव की अपनी प्रामाणिकता है और उसके भाव – जगत् में संवेदनात्मक वास्तविकता और जीवंतता की अनवरत जुगलबंदी है। 
रेणु स्वयं या आदमी को ढूंढते हुए जो भी देखते हैं और प्राप्त करते हैं उसे व्यक्त करने की उनकी अपनी विशिष्ट शैली, भाषा और शिल्प है। इस विशिष्टता के साथ जब वे अपने कथा - पात्रों के जीवन, उनके अनुभव, सोच और भावनाओं  – संवेदनाओं, उनके मानवीय गुणों और मूल्यों को पूरी रागात्मकता के साथ रखते हैं तो उसी में कथा निर्मित हो जाती है जिसे पढ़ते हुए पाठक कथा के पात्रों – चरित्रों के प्रति आत्मीय भाव से भर जाता है। रिपोर्ताज जैसी नीरस और सूचनात्मक विधा में भी वे कथात्मक अंतरंगता और रस घोलने में सफल हुए हैं।  वे रचना गढ़ते हैं, सिर्फ लिखते नहीं हैं। उनकी कोई भी रचना हो, कोई भी विधा हो, कथा, उपन्यास या रिपोर्ताज, कहीं भी कोई अतिरिक्त शब्द, ध्वनि  या संकेत चिन्ह नहीं मिलते। रचना की इतनी ठोकी -पिटी संरचना अन्यत्र दुर्लभ ही है। इसलिए वे कथा -शिल्पी कहे जाते हैं। 
कथा शिल्प ही नहीं, हिन्दी गद्य की भाषा के स्वरूप और दिशा को जिन रचनाकारों ने समय - समय पर नवीनता या नवोन्मेषी आयाम दिया है उनमें फणीश्वरनाथ रेणु अग्रपांक्तेय हैं। जब आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी आधुनिक हिन्दी के रूप और ढांचे को स्थिर एवं मानकीकृत कर रहे थे तो प्रेमचंद उसी मानक – मर्यादा के भीतर अपनी कहानियों – उपन्यासों के माध्यम से भाषा का परिष्कृत और प्रवहमान रूप सामने रखते जा रहे थे जिसे लोगों ने खूब अपनाया। ‘गोदान’ की भाषा इसका अद्भुत उदाहरण है। इसमें हिन्दी के परिनिष्ठित और लोक प्रचलित रूप एक साथ उभरे हैं, पूरे  संतुलन और लोक – संपृक्ति के साथ। यह प्रेमचंद के विराट् कथा – लेखन की भाषिक सफलता है लेकिन इस भाषिक सफलता में कहीं न कहीं, कुछ ऐसे तत्व हैं जो गौण हो गए हैं वे तत्व हैं भीषण गरीबी, शोषण और प्रकृति की विनाशकारी गति की मार झेलती ग्रामीण जिन्दगी में चल रहे महानृत्य और लोकजीवन का राग -बोध जो तमाम विघटन और परिवर्तन के बावजूद मनुष्यता को बचाए रखता है। रेणु ने जो पीड़ा और दुख का संसार बुना है उसके चप्पे-चप्पे में नाचता- गाता हुआ जीवन है न कि सिर्फ उदासी या बेबसी में लिपटी हुई दुनिया।
ग्रामीण जीवन की गहरी से गहरी लोक -पीड़ा, आदर्श और यथार्थ के द्वंद्व को गहरी मानवीय संवेदना के साथ चित्रित करनेवाले प्रेमचंद, अपनी भाषा के प्रति हमेशा सचेत और जागरूक रहते हैं, यह जागरुकता  रेणु में आकर कारीगरी- पच्चीकारी में परिणत हो जाती है। रेणु की प्रतिबद्धता भाषाई संस्कार के प्रति उतनी नहीं है जितनी जीवन को यथासंभव यथार्थ रूप में प्रस्तुत करने हेतु भाषाई सामर्थ्य के विस्तार के प्रति है। वे कबीर की तरह भाषा को संवाद के बेबस और असमर्थ संवाहक नहीं मानते वरन् जटिल से जटिल  जीवन – चित्र और भावावेग के क्षणों को पूरी तीव्रता और विस्तार से प्रस्तुत करने के योग्य बनाते हैं  वे भाषा का सिर्फ उपयोग नहीं करते और सिर्फ विस्तार नहीं देते बल्कि भाषा को जीते हैं और उसे आवश्यकतानुसार संवारते हैं, यही नहीं, उसमें रस, रंग, ध्वनि, मौन, और राग भरकर उसके सामर्थ्य का अर्थपूर्ण विस्तार करते हैं। 
यह रेणु की नवोन्मेषशालिनी मेधा ही है कि हिन्दी कहानी में शायद पहली बार शब्द के ध्वन्यात्मक रहस्य भी बड़ी सहजता से उघड़े हैं। जहां उनकी लेखकीय संवेदना अनभिव्यक्त को व्यक्त करने में असमर्थ हो जाती है वहां उनका तीन डाट का प्रयोग पाठक की संवेदना और समझ को झंकृत और चमत्कृत कर देता है। “कोमा और फुलस्टाप भी बोलते हैं” ऐसा बेनीपुरी की रचनाओं के बारे में कहा जाता है लेकिन रेणु की रचनाओं में इसके अलावा तीन बिंदुओं और आधे शब्दों के प्रयोग भी अभिव्यक्ति के प्रभावशाली उपादान हैं। 
चूंकि रेणु ने जिस ग्रामीण जन – जीवन को चुना है वह प्रेमचंद के बाद का है जब ग्रामीण भारत की पृष्ठभूमि पर साहित्य लिखने का सिलसिला जोरों पर था और इस पृष्ठभूमि पर लिखे जा रहे विपुल कथा- साहित्य में गांव के बदलते जीवन और परिवेश को अलग तेवर, स्वर या रंग – ढंग में मौलिकता के साथ चित्रित करने का दौर भी शुरू हुआ जो कमोबेश अभी भी बदस्तूर जारी है। 
आजादी के बाद भारतीय समाज के सवाल अलग थे और ज्यादा जटिल हो चुके थे। गुलामी का घुटन - भरा माहौल तो चला गया था लेकिन विभाजन के दंश अभी ताजा थे,  और देश के सामने राष्ट्रीय एकीकरण एवं जर्जर अर्थ- व्यवस्था बहुत बड़ी चुनौती थी। फिर भी जनता के दिलों में उत्साह था, आंखों में भविष्य के सपने भी। ये दंश, चुनौती, सपने और मुक्ति की उछाह, सबको रचना में एक साथ समेटना आसान नहीं था। यही नहीं, इसकी पृष्ठभूमि में था वह ग्रामीण या आंचलिक जीवन, जो टूटते – बिखरते हुए भी, घोर अभाव और प्राकृतिक आपदाओं से जूझते अपने अमृत को नाभि में बचाए खड़ा था। रेणु ने इस नाभि की पहचान की थी, और उसमें छुपे कस्तूरी की सुगन्धि जब पूरे साहित्य- जगत में फैलाई तो लोगों को आश्चर्य हुआ कि रेणु वहाँ भी अपनी कथा और पात्र के लिए रस, रंग, स्वाद, सपने और नृत्य ढूंढ सकते हैं जहाँ जीवन सदियों से जड़ता झेलने के लिए अभिशप्त रहा है। विद्यापति के दिव्य ‘अपरूप- रूप’ को रेणु अतिसाधारण ठेठ गंवई जीवन में तलाशते हैं। 
रेणु के समय में ही कथा साहित्य में ‘नई कहानी’ का उदय हुआ जिसमें उभरते शहरी जीवन को स्पेस मिलना शुरू हो गया था और व्यक्तिवादी चरित्र के माध्यम से युवा- वर्ग की वैयक्तिक इच्छाओं- आकांक्षाओं, अनुभवों- उलझनों और आत्मसंघर्ष के स्वर मुखरित हो रहे था, वहीं ग्रामीण आंचलिक जीवन की सामाजिक- सांस्कृतिक और आर्थिक चिंताएं और सवाल कहीं -न -कहीं पृष्ठभूमि की तरफ सरकते जा रहे थे। लेकिन रेणु जैसे सजग, प्रतिबद्ध, संवेदनशील और जिम्मेदार लेखक इस पर लगातार नज़र गड़ाए हुए थे और कथा - लेखन की मुख्य धारा से इन चिंताओं और सवालों को बेदखल होते नहीं देख सकते थे। 
उन्होंने जो भी पात्र बनाए, वे उपेक्षित ग्रामीण भारत के आंचलिक पात्र थे जिनकी आंचलिकता में राष्ट्रीय सवालों की  धड़कनें थीं। गनपत, लुट्टन पहलवान, बावनदास, बलदेव, कालीचरण, डा प्रशांत, फातिमा आदि अनेक ऐसे चरित्र हैं जिनके आंचलिक व्यक्तित्व हैं लेकिन आंचलिकता का अतिक्रमण करते हैं। यही नहीं, हिरामन, हिराबाई, लछमी दासिन, पंचकौडी मिरदंगिया,मोहना, हरगोविन संवदिया, रसूल मिस्तिरी, सिरचन, गोधन आदि कई चरित्र हैं जो समाज के सबसे निचले पायदान पर हैं और उनका सामाजिक मूल्य या हैसियत अत्यंत तुच्छ है लेकिन रेणु के कथा- साहित्य में आकर वे महत्तर और उच्चतर मानवीय संवेदना के वाहक बन गए हैं । मानवीय संवेदना, भावना, गुण, और दोष कभी आंचलिक नहीं होते बल्कि उनमें सार्वभौमिकता होती है। रेणु ने अपने पात्र को चुनने या उनके  चरित्र को गढ़ने में इन बातों का भरपूर ख्याल रखा है । यह रेणु की पात्र- चरित्र के सृजन – निर्माण की अद्भुत कला है। 
आज जिस दलित साहित्य,  दलित विमर्श, दलित उत्थान या दलित नेतृत्व अथवा दर्शन की बात की जा रही है वे रेणु की रचनाओं में सीधे तौर पर कहीं नहीं हैं क्योंकि वे इस बात से बखूबी बाखबर थे कि ऐसा करने से समाज और साहित्य का विघटन या अवमूल्यन होगा और क्षति भी होगी। इसलिए वे कोई विमर्श या वाद विशेष को लेकर वे कभी आगे नहीं आए या बढ़े, फिर भी उसमें विमर्श के बीज कहीं - कहीं अवश्य मिलते हैं। उनके कुल साहित्य के तीन – चौथाई स्पेस में निचली जाति या सभाचट्टी के ही पात्र और लोकजीवन आए हैं जिन्हें आज की खंडित मानसिकता दलित कहती है और विघटनकारी साहित्य लिखकर या राजनीतिक नेतृत्व देकर अपनी पहचान और पद या कद बनाने की कवायद में दिन रात लगी रहती है। 
इसके ठीक उलट, रेणु साहित्य में कहीं नारेबाजी नहीं करते, न ही ऐसे किसी विमर्श को हवा देते हैं लेकिन उनके साहित्य में दलित जन - जीवन जिस तीव्रता और विस्तार से रूपायित हुआ है शायद ही कहीं हुआ होगा । उनकी कालजयी कृति “ मैला आंचल” दलित भारत की ही महागाथा है। मेरी राय में इस उपन्यास से बेहतर दलित जीवन चित्रण शायद ही कहीं हुआ है। इसका बड़ा कारण यह है कि उनकी रचनाशीलता के केंद्रीय तत्व हैं पीड़ा, करुणा और संघर्ष। व्यवस्था के प्रति आक्रोश भी है लेकिन वह परिधि पर है और वे बदलाव के गांधीवादी तरीकों के पक्षधर हैं बावजूद इसके कि वे समाजवादी राजनीति में सक्रिय रहे और भारत छोड़ो आन्दोलन से लेकर नेपाली क्रांति तक उनकी सक्रिय भागीदारी में उनका आन्दोलनकारी व्यक्तित्व देखा जा सकता है।  पीड़ा समाज के सबसे निचले उपेक्षित वर्ग या जाति की नहीं बल्कि उस उपेक्षित  जीवन की थी जिसमें सब शामिल थे सवर्ण,  पिछड़े, दलित अछूत जिनकी सामंती मानसिकता नव स्थापित लोकतांत्रिक ढांचे से टकरा रही थी। 
आमतौर पर जब हम सामंती मानसिकता या फ्रेमवर्क की बात करते हैं तो हम सिर्फ शासक, शोषक या अनुत्पादक वर्ग को खलनायक बनाते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि कि इस ढांचे में सभी खलनायक हैं। शोषित भूमिहीन किसान – मजदूर और अत्यंत पिछड़े या दलित भी इसी ढांचे के हिस्से हैं उन्हें भी इस ढांचे से उतना ही मोह है जितना तथाकथित उच्च वर्ग को। सामंतवाद और कुछ नहीं बल्कि इन दोनों प्रकार की जड़ मानसिकता की यथास्थितिवादी जुगलबंदी है जिसमें ये दोनों वर्ग बराबर के भागीदार हैं। रेणु ने इशारों ही इशारों में यह बात “ मैला आंचल” में उठाई है – 
“दाल बंदौं, भात बंदौं और बंदौं बथुआ,
सबसे बढ़के बंदौं, मालिकजी के जूतवा।”
इसलिए रेणु ने अपना दलित-प्रेम  कभी भी  एकपक्षीय रूप से या सामाजिक प्रतिशोध के रूप में नहीं रखा है। “फुटंगी झा” के लिए भी उतनी ही करुणा है जितनी “गोधन” जैसे समाजबाहर किए गए छोटी जाति के  रसिकमिजाज और ताजा शहरी -बोध से युक्त युवक के लिए। अपनी सर्वग्राही रस – चेतना को रेखांकित करते हुए वे स्वयं स्वीकार करते हैं-  “ इसमें फूल भी हैं, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता  भी – मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।”
उन्होंने आगे यह भी लिखा है कि वे अपने लिए अपनी राह बनाना चाहते थे। प्रेमचंद की विराट् विरासत के समक्ष यह राह बनाना उनके लिए उतना आसान नहीं था। इसके लिए उन्हें भाषा और शिल्प दोनों मोर्चे पर एक साथ संघर्ष करना पड़ा और पचास के दशक के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनैतिक परिवर्तनों की बारीकियों को खुले मन से आत्मसात् करना पडा, एक आम आदमी की तरह। 
शिल्प की दृष्टि से, रेणु की मौलिकता इस बात में है कि उन्होंने कथा को एकरेखीय प्रवाह नहीं बल्कि उसे ऐसा बहुरेखीय उपप्रवाह के रूप में संरचित किया जो अंत में या अपनी सम्पूर्णता में एक मुकम्मल कथा – चित्र बनकर उभर जाता है। इसके लिए उन्होंने एक कथा में कई अन्तर्कथाओं और सूत्रों को पिरोया जो भी कथा के विकास,  रचाव और फैलाव में सहायक हो सकता है। और यह नैरेटिव शैली में उतना संभव नहीं था जितना कि उनकी अपनी शैली में जिसमें अक्सर पात्र स्वयं कथा कहते हैं और कथाकार,  पाठक को उसमें छोड़कर स्वयं कोई और सूत्र ढूंढने - पकड़ने वहाँ से चले जाते हैं। उनकी कहानियों में पात्र को पूरी आजादी है अपना चरित्र या स्थिति दिखाने की। रेणु ने इस तरह कथा - शैली के परंपरागत ढांचे को तोड़ा है, और एक ढांचाविहीन ढांचा गढ़ा है ठीक उसी तरह जिस तरह कविता के छंदोबद्ध ढांचे को गिराकर ‘ छंदविहीन’ छंद का सूत्रपात किया गया । उन्होंने  कथा – क्षेत्र में अलग-अलग सांचे गढ़े ताकि कथावस्तु, पात्र, स्थिति, समय और परिवेश के अनुसार अभिव्यक्त हो। यही कारण है रेणु की प्रत्येक कहानी का अपना रस, रूप और गंध है तथा उसकी अपनी पहचान है। 
रेणु और उनके साहित्य पर आजीवन खोज और  शोध करनेवाले आलोचक भारत यायावर को उद्धृत करना यहाँ बिल्कुल प्रासंगिक रहेगा  क्योंकि उन्होंने रेणु के व्यक्तित्व, चिंतन और साहित्य पर जितना काम किया है और उन्हें जितना जाना और समझा है उतना शायद ही किसी ने जाना या समझा होगा। रेणु की कथा – साहित्य में जो नवीनता है, नया सौंदर्य- बोध है उसपर यायावर लिखते हैं- 
“ रेणु की कहानियाँ अपनी बुनावट या संरचना, स्वभाव या प्रकृति, शिल्प और स्वाद में हिन्दी कहानी की परंपरा में एक अलग और नयी पहचान लेकर उपस्थित होती है। अंततः एक नयी कथा – धारा का प्रारंभ इनसे होता है । ये कहानियां प्रेमचंद की जमीन पर होते हुए भी, जितनी प्रेमचंद की कहानियों से भिन्न हैं उतनी ही अपने समकालीन कथाकारों की कहानियों से। इसलिये रेणु की कहानियों के सही मूल्यांकन के लिए एक नया सौंदर्यशास्त्र निर्मित करने की आवश्यकता है। ”
यहाँ तक कि ‘नई कहानी’ के कथाकार राजेन्द्र यादव,  निर्मल वर्मा,  भीष्म साहनी,  कमलेश्वर आदि ने भी रेणु की श्रेष्ठता को अपने – अपने ढंग से स्वीकार किया है। एक साथ लोक- मन के चित्रकार और लोकजीवन के गायक के रूप में रेणु ने सबको अपनी तरफ खींचा है, यही उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की सार्थकता और सफलता है।□□□


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