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Showing posts from August, 2020

एक चीनी कविता

वे पौधे  दलदल में हरे - हरे  हवा के झोंकों में झूल रहे हैं  दिन खत्म होने को आ गया  कि मैंने देखा  एक औरत चल रही है वहाँ  दलदल के काले जल पर उतरातीं कमल की वे धवल कलियाँ  और वहाँ किनारे  रात के अंधेरे में खड़ी वह औरत   मैंने देखा    रात भर जाग ही रहा मैं  नींद भी आ नहीं रही  देख रहा हूँ वह औरत  कितनी दुबली है !  जैसे वहाँ एक पौधा डोलता हुआ  हवा में मैं आँखें मूंद लेता हूँ और देखता हूँ उसके गले की धवलता  उतराता गोरापन  जैसे कमल उतराता है  रात के काले जल पर !   

मेनसियस और एक टेढ़ी उँगली / प्राचीन चीनी चिंतन

स्वयं की कमियों को समझने के लिए  मेनसियस ने मनुष्यता को एक दृष्टि दी है । यह दृष्टि दो हजार साल से भी अधिक पुरानी है, हम कह सकते हैं लेकिन दृष्टि तो दृष्टि है। वह हमेशा जिन्दा रहती है और कभी भी हमारी आँखें खोलने में सक्षम होती है।  दूसरी बात, मनुष्य की मूलभूत समस्या अभी भी वही है जो दो - तीन हजार साल पहले थी। यह समस्या किसी भौतिक सुख - सुविधा से जुड़ी नहीं है बल्कि यह समस्या मनोवैज्ञानिक है। स्वयं को बेहतर व्यक्त करना अभी भी मनुष्य की मूलभूत चिंता है और व्यक्त न कर पाने की हालत में अपनी कमियों- दोषों पर विचारना, उन्हें दूर करने के उपायों पर सोचना तथा अपने जीवन को कमियों- दोषों से पूरी तरह मुक्त कर लेना अभी भी एक बड़ी समस्या है। आधुनिक मनुष्य इस अर्थ में बुद्ध से जितना सीख सकता है उतना ही मेनसियस से भी सीख सकता है । मनुष्य में जो कमियाँ हैं उनके बारे में मेनसियस कहते हैं," एक आदमी है जिसकी चौथी उँगली टेढ़ी है। यह सीधी नहीं खिंच पाती। यह दुखती भी नहीं है न ही किसी कार्य में कोई व्यवधान करती है।" उसके टेढ़ी रहने से उस आदमी की हथेली की क्षमता कभी प्रभावित नहीं होती। अक्

मेनसियस और उसका चरवाहा

मेनसियस भले ही ईसा पूर्व तीसरी - चौथी सदी का आदमी था लेकिन उसकी सोच इक्कीसवीं सदी के मनुष्य से कहीं बेहतर था। सोच का समय के आगे होना उतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना महत्वपूर्ण सोच का बेहतर होना होता है। समय से आगे की सोच मनुष्यता को बेहतर बना सकेगी यह कहना थोड़ा मुश्किल है क्योंकि इसका ऐतिहासिक अनुभव थोड़ा निराशाजनक रहा है।  आश्चर्य होता है कि जब प्राचीन भारत में अहिंसा के पक्ष में या कहें कि राजनीतिक हिंसा के निषेध में एक सकारात्मक माहौल बन रहा था, उसी कालखण्ड में चीन में भी मेनसियस नाम का एक असाधारण आदमी लियांग के राजा ह्सियांग को देश और समाज को एक करने और एक रखने का गुर बता रहा था।  राजा के साथ मेनसियस ने जिस साक्षात्कार का हवाला दिया है उसमें उसने कुछ महत्वपूर्ण बातें बताईं हैं । ये बातें आधुनिक "ह्सियांग" के लिए बहुत मूल्यवान् हैं क्योंकि ये आधुनिक "ह्सियांग" सोच या आचरण तो विभाजनकारी रखते हैं लेकिन समाज - देश की एकता के लिए  दिन - रात फ़िक्रमंद रहते हैं। उनकी इस फ़िक्र में उन बातों का कोई जिक्र नहीं होता जिनका ज़िक्र करना मेनसियस कभी नहीं भूलते।

मेनसियस और आधुनिक चीन

मेनसियस चीन में एक बड़े दार्शनिक हुए। वे 372 (ईसा पूर्व ) में पैदा हुए थे। वे कनफ्यूशियस के लगभग सौ साल बाद आए थे और प्लेटो एवं अरस्तू के समकालीन थे। मेनसियस मूलतः लोकतांत्रिक विचारक थे। यद्यपि चीन में भी उस वक्त राजा का ही शासन था। ऐसे में लोकतांत्रिक मूल्यों- आदर्शों की बात करनी, चर्चा करना, उसकी वकालत करना एक बड़ा साहसिक कार्य था। कहते हैं, मेनसियस एक दिन लियांग के राजा ह्यूएइ के पास गया। राजा ने बहुत आदरपूर्वक उन्हें बिठाया, हाल - चाल पूछा और कहा, " हे पूज्य पुरुष! एक हजार "ली" तय कर आप यहाँ पधारे हैं, मुझे लगता है इससे मेरे राज्य को अवश्य कोई लाभ (मुनाफा/ profit) होगा।" मेनसियस ने जबाब दिया," क्या मैं जान सकता हूँ, महाराज ने यहाँ "लाभ" शब्द का प्रयोग क्यों किया? जबकि मैं यहाँ कोई लाभ के विषय पर चर्चा करने या कोई मुनाफे का संदेश लेकर नहीं आया।" राजा थोड़ा सकपकाया । वह मुनाफे और तिजोरी को ही राज्य की खुशहाली के लिए सबसे जरूरी मानता होगा। मेनसियस ने आगे कहा," महाराज ने पूछा है कि राज्य के "लाभ" के लिए क्या किया जाए ?

कविताएँ पढ़ते हुए

कविता का पाठक होना आसान नहीं है। कविता अब वह नहीं है जो स्मृति- श्रुति की परंपरा ढो सके। स्मृति - श्रुति - परंपरा की कविता में उतरना आसान है क्योंकि वहाँ छंद - सुलभ लय की लहर है, एक धारारेखित प्रवाह भी है जो पाठक को खींचता है और अंत तक बाँधे भी रखता है। अभी इस दौर में कविता में लय खोजनी पड़ती है, प्रवाह को पहचानना पड़ता है। इसमें सीधे - सीधे उतरना कभी - कभी अरुचिकर भी लगता है। परन्तु एक बार लय और प्रवाह की पकड़ मिल जाए तो कविता अब एक साथ कई अनुभूतियों से भर देती है। ये अनुभूतियाँ एकरस या एकरूप नहीं होतीं । इनमें एक साथ कई तरह के रंग, रूप और रस अवतरित होते महसूस किए जा सकते हैं । इनमें जीवन के अनेक फलक खुलते देखे जा सकते हैं । ये कभी - कभी पाठक की दृष्टि को अचंभित भी करते हैं तो कभी चमत्कृत भी। किसी भी कविता से गुजर कर आप वही नहीं रह जाते जो आप कविता में उतरने से पहले होते हैं। यही अनुभूति कविता की सफलता है। इसी में कवि कर्म की सार्थकता भी है। जो कविता हमारी संवेदना को झंकृत नहीं कर पाती, हमारी आत्मा को छू नहीं पाती वह सिर्फ रूप (फाॅर्म) या ढांचे में कविता - सी दिख सकती है,

" मेरे गाँव का पोखरा" / स्मृतियों का पुनर्पाठ/ समीक्षा / दिलीप दर्श

पेशे से शिक्षक कवि नीलोत्पल रमेश एक बेहद सरल और संजीदा इंसान हैं । उनकी सरलता और संजीदगी उनकी कविता में भी झलकती है। वे वास्तविक जीवन में जो हैं, अपनी रचनाओं में भी वही हैं । यह उनके पहले कविता- संग्रह 'मेरे गाँव का पोखरा' में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है । इसमें उनका व्यक्तित्व ही उनके कृतित्व में पूरी सहजता से ढल गया लगता है । यही कारण है कि यह संग्रह अपनी पठनीयता में कवि के आत्म- विस्तार या आत्म- विकास की भी यात्रा लगती हैै। आज का कवि विरोधाभासों की कई तहों में एक साथ जीता है। वह इन विरोधाभासो को बखूबी समझता भी है परन्तु बात जब कहने या लिखने की आती है तो सामने एक अस्पष्टता - सी आ जाती है। यही नहीं, थोड़ी स्पष्टता आती भी है तो उसकी छवि  किसी व्यक्ति, विचारधारा या विमर्श से बँधकर उसके प्रवक्ता की बनने लगती है । ऐसे में खुद को मुक्तदृष्टि रख पाना एक चुनौती तो है ही और कविता को भी कविता रख पाना बिल्कुल मुश्किल काम है क्योंकि ऐसे में कविता किसी विचार या विमर्श विशेष के मुखपत्र से कभी भी सुरक्षित दूरी पर नहीं रहती।  आज कवियों को मुख्यतया वामपंथी और दक्षिणपंथ

प्रतिबद्धताओं का अनूठा स्वर हैं प्रेम नन्दन की कविताएं / प्रद्युम्न कुमार सिंह / समीक्षा

प्रतिबद्धताओं का अनूठा स्वर हैं प्रेम नन्दन की कविताएं / प्रद्युम्न कुमार सिंह प्रेम नन्दन ग्राम्य जीवन से जुड़ा हुआ एक ऐसा नाम है जो पूरी प्रतिबद्धता के साथ सृजन कार्य में लगा हुआ है। यद्यपि वे मेरे गृह जनपद के हैं किन्तु मेरी उनसे पहली मुलाकात बांदा जलेस के कार्यक्रम के दौरान हुई । पहली मुलाकात संक्षिप्त किन्तु सार्थक रही और यही से मैं उनके भीतर छिपे कवि को जान और समझ सका। उनकी बहुत सी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपती रहती हैं। हाल ही में लोकोदय प्रकाशन लखनऊ से प्रकाशित कविता संग्रह 'यही तो चाहते हैं वे' काफी चर्चित हुआ। उनका रचनात्मक जीवन लगभग मेरे साथ ही प्रारम्भ हुआ। यह महज एक संयोग है कि वे मेरे ही जनपद से आते हैं। उनकी कविताई ठेठ गवई अंदाज की है। वे जो महसूसते हैं वही लिखते हैं । जब उन्हे पढ़ा तो पाया कि इस युवा कवि की कविताएं चेतना रूपवादी, कलाकृतियों, व रोमैन्टिक भावावेग की आभासी तुलनाओं से निसृत सूक्तियां मात्र नहीं हैं बल्कि कवि के उत्तप्त अनुभवों की भट्ठी में अंगार सदृश्य लोहे की प्रतिक्रियावादी विचारों को भयाक्रान्त करती हैं। उनकी कविताओं

मेरा वसंत

कवि ! आता होगा तुम्हारा वसंत धीरे – धीरे  उतरता होगा कलियों पर, फूलों पर फिर भौरों की रग - रग में घुलती होगी गंधाती मादक हवा भागता होगा पतझड़ अपनी कैंची और उस्तरा समेटकर झड़े हुए पत्तों की उदासी और रहते होंगे जो कुछ बासी होते होंगे सब विसर्जित तरोताज़ा सुबह और मुस्कुराती जाती शाम में परन्तु मेरा वसंत उतरता है रोज जब मैं  निकल पड़ता हूँ घर से अपने काम पर  मेरे सामने  सुबह-सुबह खिलकर  अचानक महक उठता है फूल खुल जाता है एक और नया दिन मेरा वसंत चलता है रोज मेरे साथ बस में, कार में चढ़ पहुँचता है  मेरा दफ्तर मेरे साथ  टेबल पर मेरे सामने रखी फ़ाइलों को घेर लेता है फाइलों के अंदर मेरे हस्ताक्षर महक उठते हैं  मेरा वसंत उतरता है  मेरी कुरसी पर  मापता है कुर्सी की ऊंचाई भी कम - ज्यादा करता है केबिन का वातानुकूलित तापमान शांत करता है वह पब्लिक के गुस्से भी बचा लेता है रोज मेरी नौकरी वह उतरता है मेरे वेतन पर  वेतन में सुगंध पैदा करने के लिए  शाम तक वह चला जाता है वापस अपनी बड़ी दुनिया में जहाँ करोडों जोड़े पैर चल रहे होते हैं अपने - अपने वसंत के साथ अपनी-अपनी नौकरी बचा

खिलना भूल जाने से पहले / कविता/ दिलीप दर्श

कि कहां है वह, किधर ढूँढना है उसे शायद अभी नहीं है वह जमीन पर, आकाश में पानी या हवा - बतास में नहीं है वह आग में या इडेन के बाग में पहाड़ी जंगलों के सिकुड़ते आगोश में बर्फ के ऊंचे विजन विस्तार में भी नहीं है वह   सडकों पर, सपनों में, उड़ानों में जरुरत के उठ रहे मकानोंं में  सवालों के बेचैन कक्ष में  समय के धड़कते वक्ष में बहस के पक्ष में, विपक्ष में तुम्हारी हंसी में, रुदन में क्रांति के पहले और क्रांति के बाद में हमारे युद्ध या जेहाद में न ही शांति – प्रस्ताव में न संधि  – समझौते के रिसते घाव में पूजा में, नमाज में व्यक्ति में, समाज में नहीं है वह कहीं  पहले देखना है  कहाँ - कहाँ से गायब है वह  या उसे उठाकर रख दिया गया है   किसी अंधेरे कोने में नहीं मालूम  मुड़कर  देखना है पीछे   कि कितनी कठिन अनजान सदियों से सुनसान भीषण कितने जंगलों से, पहाड़ों – घाटियों से  नदियों से भटकते, चढ़ते- लुढ़कते डूबते - उतराते पहुँचे थे हम साथ- साथ  खेत के इन मैदानों तक फिर चिमनियों, कारखानों तक अभी पहुँचे हैैं वैकल्पिक मनुष्यता के  कुुुछ नए ठिकानों तक  याद करने हैं वे जंगली जानवर उनके हि

ग़ज़ल / घनी मूंछों के साए में

घनी मूंछों के साए में तेरे ये होठ जलते हैं । तेरी मूंछें बदल जातीं, कहाँ साये बदलते हैं ! चलेंगे कब तलक किस्से ये कहना है जरा मुश्किल  सुना है इश्क़ के हैं तो हजारों साल चलते हैं ।  तुम्हें चलना नहीं आता तो पानी और कीचड़ क्या  तुम्हारे पैर तो सूखी ज़मीं पे भी फिसलते हैं । जिसे जन्नत समझके हिन्द ने सर पे बिठाया है इसे कश्मीर कहते हैं यहाँ पत्थर उछलते हैं ।  ये कैसा वक्त है कि फासले पर ज़ोर है सबका मगर ये फासले कम हों तो सबके दम निकलते हैं । 

यायावर बाबा

यायावर बाबा आजकल भले ही मौनी बाबा हो गए हों परन्तु एक समय था जब वे कभी चुप नहीं रहते थे । दिन भर जागते हुए बोलते ही रहते थे, बोलते - बोलते कुछ छूट गया तो रात को सोते हुए बोलते थे। नींद का भी भरपूर उपयोग करते थे। सुना है कि एक बार वे नींद में बोलते- बोलते चलने भी लगे थे। घर में किसी को ताज्जुब भी नहीं हुआ था क्योंकि सब जानते थे यायावर के लिए नींद क्या जाग्रत क्या ! उन्हें तो बस चलना है..."अभी कहाँ आराम बदा, यह नींद निमंत्रण छलना है, अरे अभी तो मीलों मुझको मीलों मुझको चलना है..." वे नींद में भी गाते रहते थे। जब से शरीर थोड़ा अशक्त हुआ, नींद में पांव से की जानेवाली यायावरी तो थम गई लेकिन जिह्वा दिन - रात चालू ही रही।  यह उन्हीं दिनों की बात है जब उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एक बयान दिया था। उन्होंने बस इतना ही कहा था, “ महिलाएं, पुरुष की बराबरी नहीं कर सकतीं”बस क्या था कि अखबार, टीवी चैनल, सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक मानो आग लग गई। जैसे हजारों - लाखों रावण देश में एक साथ जल उठते हैं, बाबा के पुतले भी धू- धू कर जलने लगे, एक दिन के लिए लगा देश में असमय दीवाली सा समां बंध