कुछ मित्रों को मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने का बहुत साहस रहता है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि इस मुद्दे पर मैंने कई व्यक्तियों को खुले फोरम पर वैचारिक खींचतान करते देखा है। हिन्दी ग़ज़ल कहते ही पता नहीं क्यों कुछ लोगों को बदहजमी होने लगती है और ऐसी दुर्गंध भरी बातें निकलने लगती हैं कि जैसे हिन्दी ग़ज़ल का कोई अस्तित्व या अस्मिता ही नहीं है। ऐसा खासकर वे लोग कहते हैं या मानते हैं कि उर्दू में जैसी ग़ज़लोई हो सकती है हिन्दी में शायद संभव नहीं। इस मान्यता के दो संभावित अर्थ हैं । पहला, भाषा के तौर पर हिन्दी ग़ज़ल को उसकी पूरी ग़ज़लियत के साथ ढोने में असमर्थ है, दूसरा उर्दू भाषा में जिस मिज़ाज की बात कही जाती है और जिसका आत्मसातीकरण उर्दू ग़ज़ल में ही संभव है, वह हिन्दी में शायद संभव नहीं है। मेरे हिसाब से ये दोनों बातें बिल्कुल व्यर्थ हैं और बेतुकी भी। ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि उर्दू उत्तर मध्यकाल में पैदा होकर जहाँ सिमटती चली गई, वहीं हिन्दी फैलती गई। आधुनिक काल की शुरुआत के आस पास उर्दू सिर्फ रईसों की भाषा या तहजीब की भाषा बनकर रह गई। वह लोकसुलभ होने के बजाए लोकदुर्लभ सी होती
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