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Showing posts from September, 2020

हिन्दी ग़ज़ल बनाम उर्दू ग़ज़ल / नाम पर घमासान के बहाने कुछ सवाल

कुछ मित्रों को मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने का बहुत साहस रहता है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि इस मुद्दे पर मैंने कई व्यक्तियों को खुले फोरम पर  वैचारिक खींचतान करते देखा है।  हिन्दी ग़ज़ल कहते ही पता नहीं क्यों कुछ लोगों को बदहजमी होने लगती है और ऐसी दुर्गंध भरी बातें निकलने लगती हैं कि जैसे हिन्दी ग़ज़ल का कोई अस्तित्व या अस्मिता ही नहीं है। ऐसा खासकर वे लोग कहते हैं या मानते हैं कि उर्दू में जैसी ग़ज़लोई हो सकती है हिन्दी में शायद संभव नहीं। इस मान्यता के दो संभावित अर्थ हैं । पहला, भाषा के तौर पर हिन्दी ग़ज़ल को उसकी पूरी ग़ज़लियत के साथ ढोने में असमर्थ है, दूसरा उर्दू भाषा में जिस मिज़ाज की बात कही जाती है और जिसका आत्मसातीकरण उर्दू ग़ज़ल में ही संभव है, वह हिन्दी में शायद संभव नहीं है।  मेरे हिसाब से ये दोनों बातें बिल्कुल व्यर्थ हैं और बेतुकी भी।  ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि उर्दू उत्तर मध्यकाल में पैदा होकर जहाँ सिमटती चली गई, वहीं हिन्दी फैलती गई। आधुनिक काल की शुरुआत के आस पास उर्दू सिर्फ रईसों की भाषा या तहजीब की भाषा बनकर रह गई। वह लोकसुलभ होने के बजाए लोकदुर्लभ सी होती

ग़ज़ल/ सिर्फ सोचो नहीं फैसला

सिर्फ सोचो नहीं, फैसला भी करो। पहले छोटा सही फिर बड़ा भी करो। पुल की बातें ही करते रहे रात -दिन  आके पुल पे कभी तो मिला भी करो। शाख मिलती कहाँ सब गुलों को यहाँ  मिल गई है तुम्हें तो खिला भी करो।  जिंदगी- भर जो सबको हँसाता रहा कैसे जिंदा रहा वो, पता भी करो।  जब दरख्तों के पत्ते बचाए नहीं  धूप की क्यों किसी से गिला भी करो। आग औरों की औरों से बुझती नहीं  खुद बुझा लो अगर तुम जला भी करो  है रडारों की जद में सभी हरकतें  दर्ज़ होता यहाँ गर हिला भी करो ।               

ग़ज़ल/ अधरों से तुम

अधरों से तुम हास चुराए जाते हो। क्यों सबका मधुमास चुराए जाते हो ? पल भर जो भी श्वास हमें तुम देते हो  सदियाँ भर उच्छ्वास चुराए जाते हो । जिसके पद के नीचे अब भूगोल  नहीं  उसका क्यों इतिहास चुराए जाते हो ? अच्छे दिन का तुमने जो आभास दिया अब वह भी आभास चुराए जाते हो। फूलों को लेकर ही हम थे आनंदित   फूलों से भी बास चुराए जाते हो।  पहले तो थोड़ी कँपती थी उँगली भी  अब तो तुम बिंदास चुराए जाते हो।       

ग़ज़ल/ उनके सपने ऊँचे

उनके सपने ऊँचे - ऊँचे माले हैं । हमने तो बस छोटे – छोटे पाले हैं। यह इंसां का घर है या है मकड़ी का कोने – कोने में मकड़ी के जाले हैं। छाले तो पैरों के गिन - गिन जाते हैं  डाटा में क्यों जूतों के ही छाले हैं ? जिनके पद पंकज हैं वे ही कह सकते  खुद को कीचड़ में किस हद तक डाले हैं।     दीपक तो बाले हैं तूने, सच है ये  एल ई डी के नीचे ही तो बाले हैं ।  हमने उन दरवाजों पर भी दस्तक दी जिन दरवाजों पर सदियों से ताले हैं ।  

ग़ज़ल/ बलजीत सिंह बेनाम

ग़ज़ल    मेरा ये दिल ही नहीं मेरे इख़्तियार में है अजब क़रार सनम तेरे इंतज़ार में है ख़ुदा के रूप बहुत कितने रूप देखोगे वही है गुल में छुपा और वही ख़ार में है कहीं पे बज़्म नई क़हक़हों की है रोशन कहीं पे शख्स कोई दर्द के हिसार में है गिरे हैं लोग बहुत जीत जाने की ख़ातिर मगर हयात निहाँ तो किसी से हार में है

हिन्दी दिवस: कुछ सवाल

भाषा – संस्कृति, धर्म से भी बुनियादी चीज है। जब धर्म- संप्रदाय नहीं थे तब भी भाषा थी, संस्कृति थी। लोगों ने धर्म बदले, संप्रदाय बदले लेकिन उनकी भाषा- और संस्कृति कमोबेश वही रही। धर्म में बदलाव से भाषा- संस्कृति में कुछ बदलाव आए भी लेकिन भाषा- संस्कृति की मूल आत्मा वही रही और उससे लोगों का लगाव उतना ही बुनियादी बना रहा। यह बात सिर्फ भारत जैसे देश पर लागू नहीं होती। लगभग सभी देशों में जहाँ धर्म प्रचार या धर्म युद्ध के बल पर बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ, वहाँ भी बिल्कुल ऐसा ही हुआ । लोगों ने नए धर्म अपनाए लेकिन अपनी मूल भाषा या संस्कृति की भावना की कीमत पर नहीं । धर्म को वहाँ की भाषा या संस्कृति ने अपने स्वरूप में समाहित किया न कि उस भाषा- संस्कृति के स्वरूप को अपनाया जिसमें धर्म मूलतः पैदा हुआ। दक्षिण एशिया के देशों ने जो बौद्ध धर्म अपनाया, उसे अपनी स्थानीय भाषा- संस्कृति के अनुसार इस तरह अपनाया कि बौद्ध धर्म का स्वरूप वहाँ के अनुसार तैयार हुआ । यही बात इस्लाम पर भी लागू होती है। दक्षिण- पूर्व एशिया के देशों में इस्लाम को मान्यता मिली लेकिन उनकी भाषा- संस्कृति बुनियादी रूप से पूर्ववत् ही

आदमी भी क्या ? / कविता

आदमी भी क्या उतना बुरा होगा  जितना बुरा उसे समझते हैं सभी ? अब आदमी ही है थोड़ा तो बुरा होगा कबतक सुर मेंं ही रहेगा?  कभी तो बेसुरा होगा आदमी है तो  सीधा कभी नहीं गया होगा कभी झुका होगा,  कहींं गिरा होगा  गिरकर उठा होगा   कभी कहीं मुड़ा होगा कभी कंठी - माला तोड़ी होगी  तो कभी लंगोटी छोड़ी होगी वह ऐसे ही आगे नहीं बढ़ा होगा किसी की पीठ पर चढ़ा होगा किसी की गर्दन मरोड़ी होगी कभी चीखा होगा  कभी चिल्लाया होगा खुद से तंग आकर  खुद पर भी झल्लाया होगा सो गया होगा कभी सपनों में खो गया होगा जाग गया होगा तो हड़बड़ाकर भाग गया होगा आँखें मींचे सपनों के पीछे   आदमी है तो  वह हमेशा वही नहीं रहेगा वही रहेगा  तो हमेशा सही नहीं रहेगा        

जात न पूछै शिक्षक की

मित्रो, आज सुबह सुबह फेसबुक पर एक पोस्ट देखा। पोस्ट में दो - तीन तस्वीरें भी थीं। फेसबुक पर जितनी तस्वीरें देखी हैं उनमें से ये तस्वीरें मेरे लिए बहुत खास हैं । क्योंकि इनमें एक संदेश है, सामाजिक संदेश।  ये हैं मेरे मित्र जितेन्द्र झा। जब मैं शिक्षक था, इनका सान्निध्य मिलता रहता था। एक शिक्षक के रूप में ये बहुत योग्य और जिम्मेदार शिक्षक हैं । आज मुझे लगा ये एक छात्र के रूप में भी एक कृतज्ञ छात्र हैं । इस तस्वीर में वे अपने बचपन के शिक्षक का चरण - स्पर्श करते दीख रहे हैं । ये शिक्षक हैं श्री गुलाब यादव। इनसे मेरा कोई  व्यक्तिगत परिचय नहीं है। लेकिन मुझे लगता है जितेन्द्र जी सही कह रहे हैं कि वे योग्य शिक्षक होंगे क्योंकि शिक्षक होने के बाद , या इतने सालों बाद भी उनका छात्र उन्हें अगर इस तरह याद कर रहा है या कृतज्ञता जता रहा है जो उस ज्ञान, शिक्षा और संस्कार की दाद देनी चाहिए जो इस शिक्षक ने अपने बाल - छात्रों में डाले। इसका दूसरा पहलू अधिक महत्वपूर्ण है जो बिल्कुल सामाजिक है , जिसमें एक साफ संदेश है।  मेरी बात अटपटी लग सकती है लेकिन अगर उसमें कुछ दम है तो जरूर विचार करना चाहिए । मेरा कह