युवा कवि सिद्धार्थ वल्लभ के कविता संग्रह "कुकनुस" की युवालोचक उमा शंकर सिंह परमार द्वारा विस्तृत समीक्षा।

बेचैनी का प्रतिरोधी आख्यान
- उमाशंकर सिंह परमार 

"कुकनुस" यूनानी चिड़िया है। इसे फिनिक्स भी कहते हैं। एक पाश्चात्य मिथकीय कल्पना है कि यह चिड़िया गाती है, गाने से उसके परों से आग निकलती है, आग में वह भस्म हो जाती है और अपने ही राख से वह पुनः जिन्दा भी हो जाती है। युवा कवि वल्लभ के नवीन कविता संग्रह का नाम "कुकनुस" है। कुकनुस शीर्षक प्रथम दृष्टि में अज़ीबोगरीब प्रतीत होता है। पाठक में जिज्ञासा और कौतूहल पैदा करता है। इस पक्षी को लेकर दन्त कथाएं, पुरा कथाएँ, लोक कथाएं यूरोप में खूब हैं। सभी इससे परिचित हैं, परंतु कविता में, वह भी उत्तरसंरचना के दौर में, विमर्शों और प्रतिरोध के दौर में पुराकथा, पुरा मिथक के दायरे में समय का विवेचन कैसे सम्भव है? यहाँ मैं साफ कर दूँ कि कुकनुस भले ही मिथक है मगर कविता संग्रह "मिथकीय" संरचना नहीं है। कुकनुस शीर्षक की मात्र एक कविता है जो इस संग्रह की पहली कविता है। शेष चौहत्तर कविताओं में कुकनुस की वैचारिक व सांकेतिक निर्मित संकल्पना या आवाजाही नहीं है और इस शीर्षक की दूसरी कोई कविता भी नहीं है । कुल पचहत्तर कविताएँ इस कविता संग्रह में हैं। कवि युवा है, बहु पठित है, लेखक और एक्टिविज्म का संगम है, बिन्दास है, बेपरवाह है। ऐसे व्यक्तित्व के लिए रचनात्मक जोखिम उठाना कोई बड़ी बात नहीं है। अपने पहले कविता संग्रह "सुनो शोना" के बाद कुकनुस शीर्षक का दूसरा कविता संग्रह प्रकाशित होना एक बड़ा जोखिम है। 'सुनो शोना' प्रेम कविताओं का संग्रह है। यहाँ प्रेम , प्रेम की पीड़ा ,मार्मिक संवेदनाओं, स्मृतियों , कार्यव्यापारों , भावों तथा इनसे परिपक्व अनुभूतियों का जटिल मगर चिकना सौन्दर्यबोध उपस्थित है। सौन्दर्य और प्रेम के लिए उर्दू की इश्क-हकीकी शैली अख्तियार कर अलहदा अन्दाज में वल्लभ ने प्रेम कविताओं का एक मापदण्ड तैयार किया। हिन्दी की जड़ भाषा को तथा प्रेम कविताओं की ट्रेडिशनल शैली को वल्लभ ने ‘सुनो शोना’ में खंडित किया। यह भी भाषा का रचनात्मक जोखिम था। सुनो शोना की ललित छवि को कुकनुस न केवल तोड़ती है बल्कि दूसरे छोर पर खड़ा भी करती है। दोनों कविता संग्रह रचनात्मक सृजन के दो विपरीत छोर हैं। पहले कविता संग्रह से वल्लभ की जिस छवि का निर्माण हुआ, पहचान बनी वह छवि कुकनुस तक आते-आते टूट गयी और वल्लभ एक नये आवेग के साथ, नयी कलात्मक उपागमों के साथ भाषा को नया संस्कार दे रहे हैं। रचना प्रक्रिया के दायरे में जितने भी प्रयोग हो सकते हैं, वह कुकनुस में आजमाये गए हैं। अपनी ही छवि को तोड़ दूसरी छवि का सृजन करना एक गैप को जन्म देता है। यह गैप जब छूटता है तब सृजन की सम्भावी प्रक्रियाएँ भी छूटती हैं और लेखक की किसी छवि में न बँधने की बेपरवाह जिद, संवेगों की मूलभूत विशिष्टताओं को समाप्त करती है। यही है रचनात्मक जोखिम, जिसे वल्लभ ने कुकनुस में उठाया है। जोखिम तो है मगर सृजन भी है। कुकनुस की अपनी माइथोलॉजी है, उसकी अपनी उपस्थिति है। कुकनुस मिथकीय कैरेक्टर है मगर रचना मिथक नहीं है । कुकनुस प्रतीक है लेकिन कुकनुस कविता संग्रह प्रतीक काव्य नहीं है । कुकनुस रूपक है लेकिन कविता संग्रह रूपक काव्य नहीं है। दरअसल  कुकनुस "आत्मघाती पुनर्सृजन" का प्रतीक है । रचनात्मकता को "आत्महन्ता आस्था" ( दूधनाथ सिंह, सन्दर्भ निराला ) या फिर अज्ञेय की “असाध्य वीणा” जैसी आत्मोत्सर्ग से भरी पूरी रचनात्मकता के निहितार्थ "कुकनुस" में भी है। भूमिका में  "पुराने का मिटना" और "नये का सृजन" तथा इस प्रक्रिया में "प्रतिपल मरण" जैसी स्थितियाँ क्षतिग्रस्त समय में रचनात्मक खतरों का आभास रचती हैं। “राम की शक्ति पूजा” के राम अपनी आँख भेंट कर शक्ति को प्रसन्न करते हैं और "पुरुषोत्तम नवीन" के रूप में जन्म लेते हैं। पहले 'स्व' का आत्मघात और फिर जन्म । यही काम केशकम्बली “असाध्य वीणा” में करते हैं। आत्मघात ही रचनात्मकता के सृजन का हेतु है। यही कुकनुस की सांकेतिकता है। वल्लभ भूमिका में लिखते हैं "कुकनुस की तरह ही कवियों की यह परम्परा हमेशा कायम रहेगी। अपनी ही धुन में एक मिटेगा तो दूसरा जन्म लेगा।" जन्म के लिए मरण या मरण के लिए जन्म दोनो की मान्यताएँ पौराणिक हैं। एक मान्यता और विश्वास के सहारे वल्लभ ने कुकनुस की सांकेतिक अर्थवत्ता का विस्तार किया है। यहाँ रचनात्मकता द्वारा निर्मित कवि की पहचान का अन्त है और प्रतिरोध पूर्ण युवा आक्रोश का नया सृजन है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नही कि वल्लभ दोनों छवियों में अपने समकालीनों पर बीस ठहरते हैं। 

कुकनुस  समय, सत्ता, व्यवस्था, हिंसा, वर्गभेद, यन्त्रणा व मनुष्य द्वारा इजाद़ तमाम संस्थाओं, नियमों , कानून , अवधारणाओं के हिंसक चरित्र व खोखलेपन को साबित करता हुआ बयान है; जिसमें कवि की बैचैनी है, तड़प है , मशक्कत है, थकावट है, पराजय है और आत्मबोध है। स्वयं को अर्थहीन साबित करने वाले तनाव के विरुद्ध रचनात्मक संघर्ष है। कविताएँ जाग्रत, ताजादम और चेतन कवि की खुली आत्मस्वीकृतियाँ हैं। कुकनुस भीषण समय में सत्ता और पूँजी निर्मित विभेदकारी व्यवस्था में बुरी तरह उलझे आम आदमी का जीवन संघर्ष है। यहाँ वह सब कुछ है जो हमारे समय में घटित हो रहा है। जिसे हम इन आँखो से देख रहे हैं, अनुभव कर रहे हैं। कानून, नियम, लोकातान्त्रिक संस्थाओं व नैतिकताओं के व्यापक पतनोन्मुख समय को अधिकतर कवि "अंधेरा" कहते हैं। अंधेरा, हिन्दी कविता की जानी-पहचानी निर्मिति है। निराला, मुक्तिबोध, मलय, वीरेन डंगवाल  इत्यादि कवियों ने अंधेरे का बहुआयामी प्रयोग किया है। अंधेरे की विशेषता है कि समस्त बुरी घटनाएं और हिंसक गतिविधियाँ इसी में घटित होती हैं, जिसे आम जन नही देखता, न्याय नही देखता बल्कि कविता देखती है और अपराधियों की शिनाख्त करती है, उनसे मुठभेड़ करती है। यह अन्धेरा और अन्धेरे के खिलाफ़ मुकम्मल प्रतिरोध संघर्ष और जोखिम कुकनुस में भी है। "कभी कभी / सन्नाटे से उकताए / दर्दीले सुनसान दयारों में / पुराने पगचिन्हों का पीछा करता / मन का पंछी / कुकनुस बनकर लौट आता है /अँधेरे-अँधेरे में ही / अपना वजूद जलाने"।  कुकनुस का बार-बार लौटना समय के भीतर की हिंसाओं के समक्ष खुद की असमर्थता का प्रबोध है। आज की कविता की सबसे बड़ी कमी है कि आज का कवि बड़बोला है। वह अपराजेय योद्धा की तरह समय को जीतना चाहता है। वल्लभ पहले कवि हैं जो अँधेरे की ताकत को पहचानते हैं, समय की विवशता को जानते हैं और इसीलिए वह बड़बोलेपन के वशीभूत होकर प्रतिरोध के नाटकीय विधान की सहायता नहीं लेते बल्कि खुद की असमर्थता और भाषा की निरर्थकता की पहचान करते हैं। यही कारण है कि वह कविता में विजेता की तरह व्यवहार नहीं करते बल्कि संघर्षरत कवि के स्वरूप में अपनी समूची कमजोरियों को आत्मस्वीकृति देते हैं। अपनी कविता “कैक्टस” में वह लिखते हैं कि सवाल इतने हैं कि वह देह में भी उग आते हैं। कमी सवालों की नहीं है, न इन सवालों को पाल-पोसकर जिन्दा करने वाली शक्तियों की है। वल्लभ लिखते हैं- "असंख्य अबोध काँटों से घिरे / कुछ अटपटे उदास अनुत्तरित प्रश्न / उग आते हैं मन की लचीली  डाल पर / इन हठीले प्रश्नों पर / बारहमासी बहारें होती हैं"। इन सवालातों का दौर ही आज का दौर है। अब साधारण शब्दों से उम्मीद रखना बेकार है। इस खतरनाक समय में चीजों का गलत इस्तेमाल करने वाली ताकतें बलवती हैं, दुस्साहसी हैं। जिन्दगी के साथ-साथ भाषा की कालाबाजारी का समय है। अब कवि को तय करना है कि वह क्या चुनता है- वह भावुकता चुनता है कि बेचैनी चुनता है। भावुकता की भाषा छल की भाषा है इसलिए वल्लभ ने बेचैनी को चुना है । कुकनुस कविता संग्रह कवि की अथाह बेचैनी का प्रतिख्यान है। कवि की बेचैनी समय के खिलाफ़ है, समय के खिलाफ़ एक मुहिम है। यहाँ शब्द और कलात्मक उपागम कविता दर कविता शिल्प का अनूठापन कवि का जादू नही है बल्कि जोखिम है। यही कारण है वल्लभ अपने आस-पास की घटनाओं को आवयविक अमूर्तीकरण का जामा नही पहनाते, फंतासियों तक नही ले जाते हैं न ही वह यथार्थ की नग्नता को चित्रित करते हैं,  बल्कि वह यथार्थ को रूपान्तरित करते हैं, विवेचित करते हैं और खुद बेचैनी का प्रतिसंसार रचते हैं व पाठक को बेचैन करने की कूव्वत रखते हैं।

वल्लभ की इस बेचैनी का कारण समय है,घटनाएँ हैं, मूल्यहीनता है। वह अपनी कविताओं में मूल्यहीनता का सवाल बडी शिद्दत से उठाते हैं। विशेषकर लोकतान्त्रिक संस्थाओं और लोकतान्त्रिक नैतिकता में गिरावट का सवाल उन्हें सबसे अधिक त्रासता है। यह सच भी है। आजकल राजनीति, लोकतन्त्र को उसकी पहचान व उसकी मौलिक अवधारणाओं से अपदस्थ कर चुकी है। लोकतन्त्र की जो संकल्पना की गयी थी उससे मोहभंग तो सत्तर के दशक में ही हो गया था जब धूमिल ने अवमूल्यन का सवाल उठाया था। आज वैश्विक पूँजीवाद के युग में जब बाजार ही सबसे बड़ा मूल्य है तो लोकतन्त्र शोषक शक्तियों का सहयोगी बनकर उभरा है। इसमें काबिज कुलीन शक्तियां अपने हित-अहित और सुविधानुसार मूल्यों को परिभाषित करती रहती हैं। जनतन्त्र की यह वर्गीय तब्दीली आज का सच है और इस सच के खिलाफ पहले से चला आ रहा मोहभंग अब प्रतिरोध में बदल चुका है । जितना विकास प्रतिगामी शक्तियों का हुआ है उसके समानान्तर जनतान्त्रिक प्रतिरोधी शक्तियों का भी विकास हुआ है। वल्लभ की बेचैनी यदि मूल्यों के प्रति है तो यह महज मोहभंग नही है, एक आक्रोशपूर्ण बेचैनी भी है । अपनी बेचैनी को अभिव्यंजित करते हुए वह राष्ट्रहित में  कविता लिखते हैं- "समयकाल के इस दौर में / किसी का भी सुनने के लिए / उसका गला घोंट देना / तर्क संगत करार दिया जा सकता है / अखबार के खोए हुए नस्ल के कॉलम के/ ठीक नीचे मोटे अक्षरों में / चुप रहने को अनिवार्य एवं / राष्ट्रीय नसीहत बताया जा सकता है"। आज यह लोकतन्त्र की अनिवार्य जरूरत है। सत्ता में काबिज बुर्जुवा शक्तियों का वर्चस्व देखते हुए हर व्यक्ति को बेचैन होना पड़ेगा, हर साँस को टकराना होगा, हर अभिव्यक्ति के लिए अनुकूल औजारों को खोजना होगा। समय की इस रुग्णता को वल्लभ ने हालिया घटनाओं के जिक्र द्वारा पूरा किया है। इस भावभूमि में कुकनुस की अधिकांश रचनाएं आती हैं, जिसमें समय की भयावहता और कवि की रचनात्मकता का पारस्परिक संघर्ष है। मुर्दा समय, सहिष्णुता, अस्तित्व चिन्ह, विलाप, यहाँ सुरक्षा का पूरा प्रबन्ध है,  टोकरी में बन्द सांप, व्यवहारवाद , शपथ-पत्र, स्वच्छता, दरवाजा आदि कविताओं द्वारा जिस अँधेरे का सृजन होता है वह हमारे समय का भयावह हिंसक अँधेरा है ।

वल्लभ अपनी बेचैनी के लिए दो प्रविधियों का सहारा लेते हैं- पहला अपने दशक की घटनाओं का जिक्र करते हैं तो दूसरा चरित्र सृजन करते हैं। पहली प्रविधि तर्कनिष्ठ यथार्थ को पुष्ट करती है तो दूसरी प्रविधि कवि की जमीनी अनुभूतियों व संवेगों की वास्तविकता सुनिश्चित करती है। उनकी बहुत-सी कविताएँ हालिया घटनाओं से जुड़ी हैं। जैसे ‘बहुरूपिया’ कविता इन कविताओं में एक मास्टरपीस कविता है। यह कविता अकेली है मगर बहु-आयामी और बहुअर्थी है। बहुरुपिया वेश बदलकर अभिनय करने वाला एक चरित्र होता है। वह जो भी करता है वह उसका अभिनय होता है। उसके अभिनय व हावभाव का उसके निजी जीवन से कोई नाता नहीं होता है। उसका अभिनीत चरित्र और निजी चरित्र परस्पर पृथक होते हैं। वल्लभ का बहुरुपिया लोकतन्त्र में चुना गया शासक है। यह शासक भी लोकहित का अभिनय करता है। वह अभिनय है, वास्तविकता नहीं है। यह कविता आज के दौर के सत्ता प्रमुखों का चरित्र बखूबी बयाँ करती है। अमेरिका से लेकर हिन्दुस्तान तक ऐसे ही बहुरूपिया काबिज हैं जिनका काम है अपने वर्गीय हितों के अनुरूप जनता की क्षमता का दुरूपयोग करना, उसे अपने अनुरूप भीड़ में तब्दील करना। यह चरित्र बुद्धिलाल पाल की "राजा की दुनिया" से मेल खाता है। वहाँ भी लोकतन्त्र की प्रक्रियाओं से जन्मे फासिस्ट का रूपक विधान किया गया है। वल्लभ ने भीड़ बनने और इस भीड़ में आदमियत के खोने, मनुष्यता के अलगाव विस्थापन व पतन का विस्तारित खाका खींचा है। अस्तित्व चिन्ह, यहाँ सुरक्षा का पूरा प्रबन्ध है, विवशता, कुचक्र, सर्कस, चुभती नस्ल जैसी कविताएँ इसी भावभूमि की हैं जहाँ मनुष्यता का अवमूल्यन और अलगाव साफ़ दिखाई दे रहा है। यह कविताएँ बताती हैं कि आजादी के सत्तर साल बाद भी हम भारतीयों को आजादी नसीब नहीं है और न ही चेतनागत रूप से कोई परिवर्तन ही हुआ है। विस्थापन और अपदस्थ करने वाली हिंसक शक्तियों में लगातार इज़ाफा हुआ है। ऐसे निराशा के दौर में कोई भी कवि हो, वह बेचैन होगा ही जैसे वल्लभ हो रहे हैं। कुकनुस इसी निराशा से टकराव की विवेचना है । 

वल्लभ की द्वितीय प्रविधि चरित्र है। हालांकि चरित्रमूलक कविताएँ केवल तीन ही हैं, मगर पठनीय हैं। वल्लभ जिस फार्मेट में कविता कहते हैं उस संरचना शिल्प में चरित्र के लिए और कथात्मक आख्यानों के लिए विशेष अवकाश नहीं है। फिर भी अनुभवों की जटिलता को सरलता तक ले जाने में चरित्रों की भूमिका असंदिग्ध है। वल्लभ चूँकि बेचैनी और आक्रोश की पृष्ठभूमि में लिखते हैं इसलिए इनकी कविताओं से आप सपाट कथनों की उम्मीद नहीं कर सकते हैं और ना सीधे और उथले बयानों की आशा कर सकते हैं। ऐसी कविताएँ जिसमें बेचैनी का संस्थापन हो, जटिलता होना रचनात्मक रूप से बेहद जरूरी है क्योंकि भाषा और विन्यास की जटिलता मानसिक जटिलता का प्रतिआकार होती है। यही जटिलता मुक्तिबोध और मलय में भी है। और यह कहना होगा कि दोनों कवियों में सपाट कथन ना के बराबर है। दोनों में निष्कर्ष कथन है जैसा निष्कर्ष कथन वल्लभ की रचनाओं में हैं। भाषा और विन्यास की इस अस्त-व्यस्त शैली में चरित्र भी सपाट नहीं होते। कवि चरित्र को देखता है और उसकी बाहरी विकृतियों की बजाय मनःस्थितियों को उखाड़ने में ज्यादा रमता है मगर वल्लभ ने यहाँ भी ठीक इसका उल्टा किया है। वह चरित्र के बाहरी जगत से भीतर के जगत में प्रवेश करते हैं। वह खुद का कायान्तरण नहीं करते बल्कि चरित्र की काया को ही बिम्ब की तरह संवेद्य करके पाठक की मनःवृत्तियों को कुरेदते हैं। यह वल्लभ के चरित्र विधान की खासियत है और यह खसियत उन चरित्रों से पृथक है जो किसी व्यक्ति का टाइप बनकर अपनी निजता और स्वायत्तता के साथ समूची सृष्टि से अपने आपको पृथक रखते हैं। वल्लभ का कैरक्टर विधान वर्गीय है। यहाँ वैयक्तिक टाइप नहीं बल्कि वर्गीय अवस्थिति का टाइप है। वह भी कुकनुस की तरह समूची रचनात्मकता व आम जनमानस की प्रतिकृति बन जाता है। आदिवासिन, शूर्पनखा , कैक्टस,सफेद कबूतरी आदि इसी सन्दर्भ की शानदार कविताएँ हैं।

 कुकनुस यह तय कर देता है कि वल्लभ भाषा के सतर्क प्रयोक्ता हैं। उर्दू फारसी की बाहुल्यता, लोकभाषा व संस्कृतनिष्ठ शब्दावली की पारस्परिक मिलावट उनके इस कविता संग्रह को भाषा के सन्दर्भ में "परिपक्व" साबित करती है। आश्चर्य है यह कवि सुनो शोना जैसा "पदलालित्यपूर्ण" "प्रेम की पीर" रचने के बाद "कुकनुस" जैसा प्रतिरोधी एवं रचनात्मक स्तर पर जूझते कवि के आत्मालाप को प्रभावी भाषा के साथ रच लेता है। यहाँ प्रतिरोध और गुस्से का रचाव है और संरचना में कसाव है। जैसे हर एक शब्द चुनकर, खोजकर, सोचकर रखा गया हो। भाषा की तल्खी, मृदुता और बेचैनी को कवि ने अपनी तल्खी, अपनी मृदुता और अपनी बेचैनी बना डाला है। विविध अनुप्रयोगों व संवेगों संवेदनाओं से चुनकर रखे गये सहगुम्फित शब्दों की आवाजाही वल्लभ को समकालीन कविता की अगली कतार मे खड़ा कर देने की क्षमता रखती है।  यह प्रयोगधर्मिता नये कवियों में नहीं है। आज की कविता के चालू मुहावरों को धत्ता बताते हुए वल्लभ ने भाषा सृजन जैसा एक बेहद जरूरी काम किया है। एक नये कवि से यह उम्मीद करना कि वह हर रचना मे नयी भाषा इजाद करे, आज की भारी भरकम भीड़ में सम्भव नहीं है। हर एक कवि भाषा के स्तर पर अपने आपको दोहरा रहा है या परम्परागत  भाषा को ढो रहा है। वल्लभ इस बडे दोष से साफ़-साफ़ बच गये हैं। वल्लभ की भाषा उनकी कविता के विषय का मुँह नहीं ताकती। वह अपनी भाषा का, अपनी प्रयोग क्षमता का उपयोग करते हैं। इस संग्रह की एक कविता है 'सीरिया'। इस कविता मे भाषा परिवर्तन की सम्भावना थी मगर वल्लभ नहीं करते हैं। आम कवि विषय परिवर्तन हुआ नहीं कि झट भाषा का दामन छोड़ देता है। यह भी एक अनावश्यक जड़ता है। जो भी विषय है उसे अपनी भाषा और अपनी अस्मिता के साथ कहना भी एक बड़ा जोखिम है और वल्लभ ने इस जोखिम को सफलता पूर्वक वहन किया है। वह अपने समय को ग्ल़ोरीफाई नहीं करते बल्कि अपनी विवशता को ग्लोरीफाई करते हैं। ऐसे में अपने आस-पास के परिवेश परिदृश्य में फैली असहायता असमर्थता के भय से भाषा छिन जाने का खतरा भी साथ-साथ रहता है और इस खतरे से जूझते हुए इस बेचैनी को बिम्बाकृति देना एक समूचे मुल्क की रचनात्मक बेबसी का प्रतिसंसार बन गया है । 

वल्लभ अपनी काव्यभाषा के साथ-साथ अनुप्रयोगों में भी अलहदा हैं। वह मिथक,आख्यान और किंवदन्तियों को आधुनिक अर्थनिर्मितियों में संस्कारित करने में सिद्धहस्त हैं। वैसे तो 'कुकनुस' अपने आप में एक काल्पनिक मिथक ही है मगर इस मिथक को आख्यान के स्वरुप में किसी कविता में प्रयुक्त नहीं किया गया है जबकि आख्यान और मिथक परक कई कविताएँ कुकनुस में हैं। इन मिथकों में भारतीयता के साथ-साथ वह सभी मान्यताएँ जुडी हैं जो इनकी पहचान है। वल्लभ इस पहचान को ही अपनी कविताओं में जगह देते हैं। इससे एकतरफ तो वह मिथक से जुड़े आख्यानों की विशाल गाथा से बच जाते हैं तो दूसरी तरफ सभी संरचनात्मक शर्तों को पूरा करते हुए अपने समय की सार्थकता-निर्रथकता की सिद्धि करते हैं। अपनी छोटी कविताओं से अपेक्षाकृत थोडी सी बडी कविता "कनु उवाच" एक मिथक गाथा है। कनु कृष्ण को कहा जाता है। धर्मवीर भारती ने इसी संवाद को लेकर राधा के ऊपर “कनुप्रिया” नामक नाट्यगीत लिखा था और वल्लभ ने “कनु उवाच” लिखा है। इस कविता में कनु जो बयान देते हैं वह भले ही पुरातन हो मगर अर्थनिर्मिति आधुनिक और सामयिक है। यह कुकनुस के भाव विधान से पृथक है। राधा और कृष्ण की मिलन शर्तों, अवस्थितियों, मनोवेगों तथा प्रेम की पवित्र समझ के पीछे दैहिक कार्यव्यापारों का स्मृतिपरक आख्यान है। इसमें कवि ने प्रेम की कोमलताओं और जरूरतों की वायावी छवि को तोडने की कोशिश की है। इसी तरह की “शूर्पनखा” कविता है जिसमे समय के अधूरेपन से भरे छल को चिन्हित किया गया है। 'बौद्धमठों के वृक्ष' इस कविता संग्रह की बेहद शानदार कविताओं मे से एक है। इस कविता में कवि ने सांस्कृतिक विस्तार और उसकी अपराजेयता का वैचारिक सवाल उठाया है। किसी भी संस्कृति का अस्तित्व केवल उसकी स्थूल स्थापनाओं से ही नहीं जाहिर होता बल्कि संस्कृति सूक्ष्मता में भी अपना वजूद कायम रखती है- "अपने बसन्त की प्रतीक्षा मे खड़े / बौद्ध मठों के वृक्ष / बुद्ध के पहले से ही बौद्ध थे"। यह कथन सांस्कृतिक अपराजेयता का काव्य प्रमाणन है। कुल मिलाकर यह विधान वल्लभ की बहुमुखी प्रयोगधर्मिता का एक पक्ष ही व्यंजित करती है। अपने दूसरे कविता संग्रह को प्रयोग और विधानों का शानदार स्थापत्य देते हुए इस युवा कवि ने आने वाले दौर की सम्भावनाओं को बचाया है और इस सम्भावना को जीवित रखा है कि लोकधर्मी कविता किसी भी खतरे से मुखातिब होने, जूझने में सक्षम है । यह आज की इस तीसरी पीढी के नये रचनाकारों की सफलता है कि वह औजारों की बेतरतीब खोज में भी अपनी जमीन से भटक नहीं रहे और नये रचनात्मक औजारों को अपने परिवेश और भाषा की लय प्रदत्त कर पक्षधर चरित्र के रूप में पहचान बनाने में सक्षम हैं। यह आत्म निरूपण नहीं है बल्कि इतिहास और भूगोल की जरूरी सामाजिकता है। यहाँ तटस्थता नहीं है, राजनैतिक स्पष्टता है, जिसकी तल्खी और भाषाई विविधता के कारण कुकनुस का कवि सिद्धांतों का अनुकर्ता नही बल्कि पैरोकार प्रतीत होता है ।

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