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अवधू चुप रहु

अवधू, चुप रहु, मुख नहिं खोलहु।  राखहु भेद छुपाकर भीतर, बाहर कुछ नहिं बोलहु।  खोलहु मुख जब बाहर, पहले भीतर खुद को तोलहु।  सबद - सबद को जिह्वा पर लै मधुर - मधुर कुछ घोलहु।  बोलहु बरफी हरदम, कबहूँ नीम न सीधे बोलहु। मान - हानि का जुग नाजुक यह जोखिम क्योंकर मोलहु ?  नंगा भी अब कहत हे अवधू ! बटन न ऐसे खोलहु।  दूरदास की मानहु नहिं तो जाहु कचहरी डोलहु। 
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अवधू भ्रम भयो इक भारी

अवधू भरम भयो इक भारी ।  एक हमीं हरिचंद देस में बाकी भ्रष्टाचारी।  एक हमीं जनता के सेवक कुर्सी के अधिकारी। शेष सभी बस चूसक- शोषक लोभी कुर्सीधारी।     एक हमीं हैं धुले दूध के, धवल श्वेत पटधारी। औरन की तो लंगोटी भी दाग जड़ित अति कारी।  हम तो एक फकीर, देह पर धोती आधी  धारी। आगे नाथ न पीछे पगहा, नहिं घर, नहिं इक नारी।  लोभ,मोह - माया को कबहूँ कनखी तक नहिं मारी। बैठ ध्यान में सेल्फी खैंचैं यहि बस एक बिमारी ।  त्यागमूर्ति व तपोनिष्ठ हम, नीति - नियम में  भारी। जो भी घेरा डारै हम पर, उनपर घेरा डारी। कबहूँ झाड़ू, कबहूँ साइकिल, कबहूँ हाथी भारी। कबहूँ कमल, कटारी बनकर प्रकटैं बारी - बारी।  हमरे पौरुष के आगे नतमस्तक दुनिया सारी ।  दूरदास यह देस धन्य है धन्य पुरुष अवतारी।  

पैर कविता

पैर / कविता  उन्हें अंदाजा था कि  शांति काल के दिन लेकर आएंगे  सभी पैरों के लिए  अवसर की समानता के अधिकार शांतिकाल की रातें आरक्षित रहेंगी  सपनों के लिए  सपने देखते - देखते  बीत जाएँगी शांति काल की रातें अवसर और सपनों के बीच कुछ पैर पद्म हो जाएँगे कुछ हो जाएँगे पद्मश्री भी कुछ बनकर रह जाएँगे छाले  कुछ बांध लेंगे घुंघरू  कुछ बैठ जाएँगे धरने पर या रैली में   कुछ खड़े ही रहेंगे कतार में कुछ मैराथन में  कुछ टूट जाएँगे कुछ रूठ भी जाएँगे पैर होने की कीमत चुकाएंगे शांतिकाल में  कुछ संसद में कुछ संसद के मार्ग में  कुछ मार्ग के बाएं, कुछ दाएँ  आगे बढ़ते हुए पैर  चोटी चढ़ते हुए पैर  पीछे हटते हुए पैर गलती से एक - दूसरे से सटते हुए पैर

कागज़ी हैं मुट्ठियाँ

  कागज़ी हैं मुट्ठियाँ ये , कागज़ी आवाज़ है। वक्त से मुठभेड़ का यह क्या गज़ब अंदाज़ है।   खूबसूरत - सी जो वो है आसमां में उड़ रही कागज़ी चिड़िया है कोई , कागज़ी परवाज़ है।   दौर कैसे – कैसे आएँगे अभी तो और भी यह अभी क्या देखते हैं ये तो बस आगाज़ है।

ग़ज़ल / आसमानी तख्त से

ग़ज़ल /  आसमानी तख्त से नीचे उतरकर देखिए।  खूबसूरत है जमीं भी, चल- ठहरकर देखिए।  तब दिमागी शोर का एहसास भी हो जाएगा।    दिल के सन्नाटे से तो पहले गुज़रकर देखिए।  और भी है बहुत कुछ रफ्तार के बाहर यहाँ,  इक दफा रफ्तार से पूरा उबरकर देखिए।  आप भी महसूस कर लेंगे जमाने का दबाव वक्त के सीने पे थोड़ा – सा उभरकर देखिए। रोज औरों को सुधरने की नसीहत दे रहे कारगर होगी नसीहत, खुद सुधरकर देखिए।  देखते हैं आप उनके हाथ ही पत्थर वो क्यों  आपके हाथों में भी तो है वो पत्थर देखिए।                    

अपने ही देश में/ कहानी

  अपने ही देश में   मार्च अभी गिरा नहीं और इतनी गर्मी ! इस बार धंधे में भी शायद जल्दी ही गर्मी लौटेगी।   रेशमा खुश होकर अपनी कमर से लटकी थैली में हथेली डालकर चिल्लर टटोलती है और सामने खड़ा एक ग्राहक के हाथ में रख   फिर दूसरे के हाथ में नारियल - पानी और स्ट्राॅ मुस्कुराते हुए रख देती है। यह मुस्कराहट उसके होठों पर   परत दर परत चढ़ती ही जाती है और चेहरे से नीचे गले तक पसीनों की उतरती बूँदें पसरकर कभी गले के बहुत नीचे तक भी सरक जाती हैं। अच्छा हुआ बेटी सुचिता भी आ गई। हर रविवार को वह यहाँ आ ही जाती है। अपनी माँ के धंधे में उसके हाथ बँटाना उसे अच्छा तो लगता ही है , इसे वह अपना कर्तव्य भी समझती है। रेशमा आँचल से अपना चेहरा पोंछ चौक के ठीक सामने सातेरी माँ के मंदिर के कंगूरे की तरफ नजर उठाती है। कंगूरे पर लहराती पताकाएँ ... सालों से देखती आई है। इन्हें देख उसे बड़ा सुकून मिलता है। उसे लगता है ये पताकाएँ नहीं बल्कि देवी माँ की   शक्ति ही साक्षात् लहरा रही है। कभी - कभी मुँह से निकल भी जाता है -   “सब देवी माँ की ‘कुरपा’ है !” मंदिर में घंटा – ध्वनि उठती है -   टन् टन् टन् ...। रेशमा के मन मे

घर - वापसी

  पहलू पूरे पन्द्रह साल बाद आज गाँव लौटा है। आठ - नौ साल का रहा होगा जब उसे गाँव छोड़कर जाना पड़ा था। कहाँ गया किसी को पता नहीं था। कौन था जो पता भी करता ! अम्मी बचपन में गुजर गई थी और अब्बू ...। ननिहाल में भी कोई रहा नहीं था। आज गाँव के मस्जिद - टोला में पीपल के पेड़ के नीचे पहलू को छंगुरीदास के साथ खड़े देखकर लोग अचंभित हैं । सबसे ज्यादा अचंभित है अच्छे मियाँ । पीपल के नीचे प्रतिष्ठित शिवलिंग है। कुछ महिलाएँ नहा - धुलाकर   उस पर जल चढ़ाने आई हैं यादव – टोली से। एक बूढ़ी पूछ रही है - “ इ सदरिया का बेटा है ? टूअर - टापर ... च् च् च् ...। वह बिल्कुल करीब आकर उसे थोड़ी देर निहारती है और कुछ कहती हुई उलटकर अपनी राह पकड़ लेती है।   परन्तु अच्छे मियाँ को अभी भी भरोसा नहीं हो रहा है । होगा भी कैसे ? “पहला है यह ? सदरी का बेटा ? यह अभी किधर से उग आया छंगुरी ?” अच्छे मियाँ के मुँह से ‘छंगुरी’ सुनकर छंगुरीदास अंदर ही अंदर कुढ़ गया था। “ तुम्हारा फोकनिया - डोकनिया सब ‘बेरथ’ गया अच्छे , उमिर आ गई , तमीज नहीं आई ?” छंगुरीदास अच्छे – अच्छों को नहीं छोड़ता। वो जमाना गया जब लोग उसे छंगुरी भी नहीं