नज़्म सुभाष की तीन ग़ज़लें

समकालीन युवा ग़ज़लकारों में 'एंग्री यंगमैन' के रूप में उभर रहे  नज़्म सुभाष हमेशा जन - सरोकारों से जुड़े सवालों को ग़ज़लों में उठाते हैं।  

गजल / 1 


इल्तिज़ा   इतनी   है   मेरी   इनदिनों  सरकार  से
ढक  दे  सारी  मुफ़लिसी  वो  क़ीमती  दीवार  से

नीति- निर्माता  ज़मीं   पर   स्वर्ग जो  लाये उतार
कीजिए  तुलना  लिहाज़ा  अब किसी अवतार से

जानना था अपनी क़िस्मत  में मुहब्बत का सिला
सो  ज़बाँ  जलने  लगी  है  प्यार  के  इज़हार  से

तालियाँ  बजने  लगीं  इस बार जब  उसने कहा-
'हम लिखेंगे शान्ति का  अध्याय अब तलवार से'

मर  गया  परसों   पड़ोसी   भूख  से  लड़ते  हुए
ये  ख़बर  मुझको मिली  है आज के अख़बार से

भीड़   में   तब्दील   होना  चाहता  है  लोकतन्त्र
असलियत  सहमी  हुई   है  बद्गुमां  जैकार  से

बेकली,  आँसू,  घुटन, ग़म,  दर्द  और तन्हाइयाँ
कितने अफ़साने मुक़म्मल 'नज़्म' के किरदार से।


गजल / 2 

इस   जहाँ   से  एकदिन  तू  भी  हवा  हो  जाएगा
हादसों   पर  बात   मतकर   हादसा   हो   जाएगा

मेरी  चाहत  की  कहानी  में  नया  कुछ  भी  नहीं
मुझको  पहले  से  ख़बर थी  वो  जुदा हो जाएगा

ख़त्म   करता   जा   रहा  वो   तर्क  की  गुंजाइशें
देखना  वो  शख़्स  भी  अब   देवता  हो   जाएगा

लालसाएँ  मत  बढ़ा  ख़ुद को  भी  थोड़ा वक़्त दे
तू  भी  वर्ना  भीड़   में  ही  गुमशुदा   हो  जाएगा

आदमी  की    शक्ल  पर   इतने  मुखौटे  हैं  चढ़े
कौन  जाने  कब  कहाँ  पर कौन क्या हो जाएगा

आप  मालिक   हैं  यहाँ  के  आपका  बाज़ार  है
आप  जिस  पर  हाथ रख दें आपका हो जाएगा

दौर  बेशक  है कठिन कहता है लेकिन 'नज़्म' ये
डूबकर     तेज़ाब   में   सोना   खरा  हो  जाएगा

ग़ज़ल / 3 

नये   थे   प्रश्न    बेशक    ही    मगर   उत्तर    पुराने   हैं
जिरह से  जो  बरी  निकले  वो  मुजरिम  भी  सयाने  हैं

ज़रा  बारूद  को  समझो   कभी   दुविधा  नहीं   करती
क़रीब   इसके   गये  जो  भी   वही   इसके   निशाने  हैं

हवाओं   से   बग़ावत    कर    चरागों   ने   क्षमा   मांगी
अँधेरे    की    तमन्ना    थी ,  नये    क़िस्से    सुनाने   हैं

चिड़ीमारों  ने  जंगल  में  ये  निर्णय कर  लिया  है  अब
परिंदे      मार     देने     हैं     हमें    अंडे     उड़ाने   हैं

सुना  है  स्याह   जुल्फ़ें   देख   बादल  तोड़   देते   दम
ज़रा   लहराओ   फिर  जुल्फ़ें    हमें   गेहूं   सुखाने   हैं

वो  मेरे साथ में चलकर  अगर  करता  तो  क्या करता
वही    ख़ामोश   राहें    हैं    वही    गुजरे   जमाने   हैं 

इबादत  मैं  करूं   किसकी  यहां   हर  एक   ईश्वर  है
लगा  दूं  आग जन्नत  में  जो  इन सब  के  ठिकाने  हैं।
               □□□
            

नज़्मसुभाष

No comments:

Post a Comment

नवीनतम प्रस्तुति

अवधू, चहुँ दिसि बरसत नोट

अवधू चहुँ दिसि बरसत नोट।  सब झोरी सिलवाय रहै अब खोल - खोल लंगोट। खूब बजावहु ढोल विकासी दिन भर दै दै चोट। रात बैठ नेपथ्य मचावहु गुप - चुप लूट...