अवधू, चहुँ दिसि बरसत नोट

दूरदास के पद / दिलीप दर्श 

अवधू चहुँ दिसि बरसत नोट। 
सब झोरी सिलवाय रहै अब खोल - खोल लंगोट।

खूब बजावहु ढोल विकासी दिन भर दै दै चोट।
रात बैठ नेपथ्य मचावहु गुप - चुप लूट - खसोट।

फाड़हु धोती - कुर्ता अपना, सिलवावहु अब कोट,
भूखी - नंगी भीड़ बुलाकर बाँटहु फिर अखरोट।

बदलहु खूँट, न छाँड़हु लेकिन जात - धरम की ओट, 
पांच बरस तक धारहु वरना हिरदै टीस - कचोट। 

औरन की गिन - गिन दरसावहु, खूब उछालहु खोट,
दूरदास रोजी - रोटी पर कबहुँ न मांगहु भोट। □□□

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