Skip to main content

Posts

Showing posts from October, 2020

स्मृतियों के अनूठे कवि : गणेश गनी

“एक दिन सब ऋतुएं / उमड़कर किताबों में समा गईं / उस दिन लगा/ किताबों में भी बसते हैं मौसम/ किताबें खोलीं तो देखा / बादल धो रहे हैं अपराधों के दाग / लाल पंखोंवाली चिड़िया / आकाशवर्णी अंडों को से रही है / सीलन भरी दीवारों से एक कनखजूरा / बाहर आ रहा है धीमे – धीमे / यानि कि ऋतु फिर बदल रही है” किताबों में बसते मौसम, बादल के अपराधों के दाग, लाल पंखोंवाली चिड़िया, आकाशवर्णी अंडे, सीलन भरी दीवार और अंत में वह मंदगति कनखजूरा...क्षण – भर में बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई। कवि – दृष्टि तितली की तरह उड़ी और  उड़- उड़कर  एक के बाद दूसरे बिंब – पुष्प को जैसे छूकर वापस आ गई। इस तरह दृश्य- निर्मिति का एक वर्तुल पूरा हो गया।  गनी की कविता में ऐसे वर्तुल अक्सर आते हैं जिनमें दृश्य तेज़ी से बदलते हैं क्योंकि बिंब तेजी से बदलते हैं और बड़ी सघनता से एक के बाद दूसरे आते चलते हैं। इसलिए उनकी कविता या उसकी बिंबधर्मिता पर लिखना आसान नहीं । ऐसा नहीं है कि उनकी कविता जटिल है बल्कि ऐसा इसलिए है कि वह कठिन है ठीक वैसे ही जैसे पहाड़ी जीवन कठिन होता है लेकिन वह जटिल नहीं होता।  फिर जटिल कविता को समझना, उसकी गुत्थियों को