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Showing posts from August, 2019

दीवार /1

दीवार /1 दीवार के साथ जीने की सदियों लंबी आदत, परंपरा बन जाती है बिल्कुल दीवार - सी ही ठोस और खड़ी हमें जीना पड़ता है दीवारों के बीच हमेशा दीवार हमारे बीच रहती है और हम दीवारों के बीच हम तोड़े जाते हैं समय - समय पर टूटते जाते हैं हम दीवारें नहीं हम कुछ बरस जीते हैं दीवारें जीती हैं सदियां, सहस्राब्दियां...

दीवार /2

दीवार/ 2/ कविता ----------------------- जब कभी कुछ बोलना होता है हम उन्हें दीवार पर लिख भाग जाते हैं दीवार के पीछे लिखकर भागना बड़ी सुविधा है दीवार ही दे सकती है मनुष्य की भीड़ नहीं दीवार की अपनी कोई बात नहीं होती वह बोलती है वही जो उस पर लिखते हैं समय-समय पर हम सब लिखते - लिखते कभी नहीं भरती दीवार इसलिए कभी नहीं थकती वह बोलते - बोलते दीवार नहीं,  हम बोलते हैं दरअसल                    

दीवार / 3

एक कविता/दीवार/3 ------------------------------ पहले दीवार नहीं बनती पहले बनता है अंधेरा अंधेरा जबतक फैलता है दीवार नहीं बनती है बहुत सर्द मौसम में जब समय होने लगता है ठंडा और प्रेम बिल्कुल बर्फ तो सिकुड़ने लगता है अंधेरा जमने लगता है वह उसके बीच से उगने लगती है पतली दीवार कहीं कहीं अंधेरा चला जाता है खड़ी रह जाती है दीवार दीवार अंधेरे की ही वंशज है हम उसमें अंधेरे की जीन ढूंढ सकते हैं।             

चर्चिल अभी चर्च में है

अपनी रणनीति की तमाम ताकत, कमजोरी, अवसर और खतरों के विश्लेषण के बाद तमाम सुरक्षा - घेरे के बीच चर्चिल अभी चर्च में है, पूछने आया है जीसस से, स्वर्ग के साम्राज्य का रास्ता ... दरअसल बनाना चाहता था वह पृथ्वी को एक साम्राज्य, साम्राज्य को स्वर्ग तमाम कोशिशें हुईं उत्सर्ग न साम्राज्य लहराया, न ही आया कोई स्वर्ग साम्राज्य बनाना चाहा तो कम पड़ती गई पृथ्वी, चीटी के अंडे की तरह छोटी पड़ गई स्वर्ग बनाने निकला तो फैलते गुब्बारे की तरह पृथ्वी बड़ी से बड़ी होती गई सपना धरा का धरा ही रह गया भीतर का हरा जख्म हरा ही रह गया आखिरकार महसूस हुआ कि स्वर्ग के साम्राज्य का रास्ता शायद उधर से शुरु नहीं होता जिधर से तमाम कोशिशें शुरू होती हैं तो जरूरी है अब पूछना उस आदमी से जो सीधे स्वर्ग से उतरा है सदेह इसलिए चर्चिल खड़ा है अभी जीसस के समक्ष कहते हैं जीसस मुस्कुराए उन्होंने कुछ सवाल उठाए- क्या तुम्हें नहीं मालूम सवाल किससे कर रहे हो ? उससे जिसके सर से लेकर पांव तक ठुकीं हुईं हैं कई कीलें ? और सबसे बड़ी कील जिसकी जुबान पर है ? ये बात अलग है कि इस हालत में भी वह अपने इमान पर है

बारिश के दिनों में

बारिश के दिनों में बारिश के दिन याद नहीं करता बारिश की रातें याद करता हूँ मैं उन्हीं रातों के भींगते अंधेरे में उगतीं थीं मां की आंखें अंधेरा चीरने की कोशिश में कभी गुम हो जाती थीं घर के अंदर उसी अंधेरे में कभी बरसती नहीं थीं, बस पसीजती थीं कभी-कभी घर की कच्ची दीवार की तरह घर दुबका रहता था अंधेरे की भींगी -भारी चादर में हम भाई - बहनें दुबके रहते थे एक रस्सी खाट पर मां की सूती साड़ी में और पिता उसपर डाल देते थे अपनी एक पुरानी खद्दर धोती कि हम बच्चों की देह में बची - बनी रहे गरमी लेकिन हम बच्चे तब यह कहाँ समझते थे कि धोती - साड़ी का सम्मिलित संघर्ष जरूरी है दुनिया में गरमी बचाने के लिए भींगते अंधेरे में माँ जब बुझी हुई ढिबरी दुबारा बालती थी हम बच्चे नहीं जानते थे कि यह ढिबरी दरअसल वह अपनी ही आंखों से निकालती थी और पिता उसकी थरथराती रोशनी में शिनाख्त करते थे - छप्पर कहाँ - कहाँ चूता था और माँ को बताते थे कि चूते हुए छप्पर के नीचे घर में कौन-सा कोना सुरक्षित है ढिबरी के लिए ताकि रोशनी में कम होती रहे रात की लंबाई पिता ही बताते थे माँ को कि कहाँ -कहाँ करने

भीड़ से ख़ारिज आदमी

भीड़ से खारिज आदमी भले ही हारा हुआ लगता है कभी हारा हुआ नहीं होता वह अकेला या बेसहारा हुआ लगता है पर कभी अकेला या बेसहारा नहीं होता भीड़ से खारिज आदमी का सिर्फ और सिर्फ भूगोल ही होता है कोई इतिहास नहीं होता उसके पास नहीं होती कोई दूसरी संज्ञा या एक भी विशेषण अपने नाम के शुरु - आखिर में लगाने के लिए कोई शीर्ष- पूंछ नहीं होते क्योंकि शीर्ष - पूंछ मिलते हैं सिर्फ इतिहास के संरक्षित अभयारण्य में और वहाँ नाबाद हिलते हैं किसी विजेता के फरमानी इशारों पर  भीड़ से खारिज आदमी पहले ही खारिज कर चुका होता है ऐसे इशारों को समय रहते इन्कार कर चुका होता है शीर्ष और पूंछ के बीच हकलाती जिंदगी को भीड़ से ख़ारिज आदमी स्वीकार कर चुका होता है शीर्ष- पूंछ विहीन अस्तित्व के अपने भूगोल को वह पहचान चुका होता है भीड़ में खड़े व्यवस्था के मदारी को जान चुका होता है कि आज के दौर में मदारी दरअसल एक संपेरा है बजाता है नित नये सुरों में बीन दिन भर बीन सांप के लिए है या भीड़ के लिए यह एक बड़ा रहस्य है और इस रहस्य को जिज्ञासा की खुजलाती धूप से बचाने के लिए बीच बीच में वह नए-नए अंदाज़ में द

खूंटी और कविता

कमजोर या मजबूत हरेक कवि के भीतर एक खूंटी गड़ी रहती है उससे बंधी कविता घूमती है अक्सर गोल - गोल कभी खूंटी पर भी खड़ी रहती है जब टूटती है जड़ता की डोर कविता जागती है वह खूंटी तोड़कर भागती है बदहवास चौराहे पर खड़ी आतनिक भीड़ से एक आदमी को चुन लाती है इस तरह वह एक आदमी हो जाती है अब भीड़  की खूंटी उखाड़ फेंकने के लिए लेकिन जब कवि कविता को खूंटी से खोल देता है कविता कुछ क्षण ठिठक जाती है बेबस हो अपनी ही मुक्ति पर जड़ता के नियम के हिसाब से वह दूर आगे तक नहीं जाती और जब कवि उसे आगे से आवाज़ देता है उसी चौराहे की ओर कविता भीड़ तक पहुंचती तो है वह बस भीड़ की छाया छूकर लौट आती है जैसे धूप पेड़ के चारों ओर उसकी छांह छूकर लौट जाती है सूरज के पास कवि को याद आता है गंवई मुहावरा कि हुलाया हुआ कुत्ता कभी शिकार तो नहीं पकड़ता है लेकिन खाली हाथ लौटने पर भी कितना अकड़ता है ...तो कविता को खूंटी से खोलकर भगाना कितना सही है या ज्यादा सही यह है कि कविता कब खुद खूंटी तोड़कर भागे उस विलक्षण क्षण का इंतजार करना  ? अभी बदले समय में यही बड़ा प्रश्न है और कवि फिलहाल कनफ्यूज्ड है