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Showing posts from May, 2019

घाव और मक्खियां / कविता

नागरिक नहीं , वासी नहीं  हम सब हैं सदियों पुराने घाव सूखते आए हैं पछिया हवा में और पुरबैया में बजबजाते आए हैं  और यह देेश, देश नहीं, समाज भी समाज नहीं    घावों का विराट् समुच्चय है बस घावों के भीतर कई घाव हैं  माथे के घाव हैं  उनकी सोच में अहंकारी मवाद है बांहों के घाव में ताकत की खोखली फ़ौलाद है  पेट के घाव में  भूख – प्यास  की वही शाश्वत और अंंतहीन कुलबुली  सबसे ज्यादा जलन है पैरों के घाव में  जिन पर ऊपर के सारे घावों का शास्त्रीय दवाब है कुछ घाव जमानों पुराने  कुछ बीच के काल के तो कुछ हाल के कुछ तो अभी के, बिल्कुल ताज़ा कुछ सवर्ण, कुछ अवर्ण , कुछ विवर्ण  कुछ आरक्षण फलित , कुछ आरक्षण -  स्खलित  कुछ दलित घाव मूंछ पर रखे ताव कुछ महादलित घाव  फूंकते सामाजिक न्याय के अलाव कुछ शहरी या मध्यवर्गीय घाव   खिल उठते देखते ही चाय और वड़ा पाव  कुछ घाव बहुजन कुछ घाव सहजन  हरेक घाव का कोई न कोई महाजन  कभी घाव हिन्दी, कभी हैं अहिन्दी  कहीं घाव मराठी कहीं हैं आसामी कुछ घाव पूंजीवादी कुछ पूंजी विरोधी कुछ घाव रोज बोले - "आजादी आजादी "  फैलते हुए घाव बहुसंख्यक  सिकुड़ते हुए घाव अल्पसंख्यक  ब