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Showing posts from April, 2020

अवधू गजब देस यह चीन / 12

अवधू, अजब देस यह चीन। छींकै तो खांसै यह दुनिया, नासै सबकी नीन। रात पियानो, सुबह बांसुरी, शाम बजावै बीन, सुर - साधक यह गज़ब खिलाड़ी,सुध लै सबकी छीन। मछुआ फेंकै बदल - बदलके जल में जाल नवीन। भांति -भांति के जाल देखिके कनफ्यूजन में मीन।  कबहूँ आँख दिखावै कबहूँ थपकी दै नमकीन ।  नेपथ में कुछ और चलावै ,और दिखावै सीन। आदम के शव पर चमकावै जीडीपी रंगीन, वामबुद्धि अब पूँजी पर तौले आदम की जीन।  दुनियां में जो भी लावारिस जंगल, नदी, जमीन उन पर अपना नेमप्लेट रखने में चतुर प्रवीन। ह्वेनसांग - इत्सिंग नहिं भेजै, भेजै जीव महीन, दूरदास जो छुवै जीव को, हूजै क्वारंटीन।

डायनोसोर फिर लौट आया है / कविता / दिलीप दर्श

जंगल की चढ़ती हुई नींद  पहली बार नहीं टूटी थी अचानक चढ़ती पहर रात को झींगुरों का जंगली मादक कोरस  पहली दफा नहीं थमा था एकाएक  काली जंगली बिल्ली  अभी - अभी काट गई जो  हवा का रास्ता  हवा का सारा साहस  अपनी चमकीली आंखों में कैदकर  खो गई तत्क्षण  अंधेरे में वहीं कहीं खोखली हतप्रभ हवा  जंगल के बीचो-बीच खड़ी सूंघती दिशाएं दिशाओं में घुल रही कोई  अनजानी  -सी गंध अपनी नासिका की घोर विफलता पर खासे अचंभित जंगली कुत्तों का छटपटाहट में भौंक उठना  रह -रहकर  ये सब कुछ पहले भी कई दफे हुआ था  सियारों, गीदड़ों, लकड़बग्घों, भेड़ियों का  असमय सस्वर पाठ  जंगल के लिए कोई नई बात नहीं थी  लेकिन इतना संगठित सामूहिक स्वर  पहली बार उठ रहा था  भय - विस्मय के बीच खड़े  जंगली पेड़ों को  पहले भी कई बार देखा गया था  आपस में कानाफूसी करते हुए  पत्ते कान की तरह खड़े   पहले भी हुए थे सन्न   परन्तु कभी नहीं थरथराई थीं पेड़ों की जांघें इतने पसीने कभी नहीं छूटे थे सच की कयास पर पहले  अपने घोंसले में  पहले भी कितनी बार  हड़बड़ाकर चहचहा उठी थीं चिड़ियां

हम सब किसी भी भाषा में पैदा हों

हम किसी भी भाषा में पैदा हों  उसमें हमेशा होती है एक तीर्थंकर चिड़िया  सुबह -सुबह गाती है बहुत मीठा  गीतों में देती है खबर कि आकाश कितना अनंत है  और पांखें हैं कितनी छोटी  और कितनी छोटी है यह पृथ्वी भी गीत सुनता है सबसे पहले आस - पास के मुहल्ले का कोई मुर्गा  गीत जितना गुनता नहीं है  उससे ज्यादा कोशिश करता है उसे गुनगुनाने की  चिड़िया के गीत  उसके पठारी कानों से नीचे अंदर तक नहीं धंसते  उसकी आत्मा की झिल्ली झंकृत होती है सिर्फ बांग से  तीर्थंकर चिड़िया यह जानती है बखूबी  इसलिए मुर्गे की भाषा में  गीतों का अनुवाद  खुद करती है  तीर्थंकर का अनुवादक बनना  तीर्थंकर की मजबूरी है  मुर्गे समझ सकें गीत का सच  मुर्गे से ज्यादा यह गीत के लिए जरूरी है  क्योंकि गीत का सच एक है  और मुर्गे हैं अनेक  एक सच की सही और पूरी समझ  आने से  सभी मुर्गे बन सकते हैं मनुष्य खुद - ब - खुद  अन्यथा सतही या अधूरी समझ  मुर्गे को गिरा देती है घोर अंधेरे कुएं में  मुर्गे को लगता है कि वह  कुएं में भी ला सकता है ब्रह्ममुहूर्त  बांग देकर उगा सकता है सूरज क्योंकि ऐसा कभी नहीं हुआ कि  वह बांग दे और सुबह न हो  मुर्गे को यकी

यह कैसा समय है

ये कैसा समय है  जब हमें पैदा करने होते हैं बच्चों से ज्यादा सन्नाटे और सन्नाटे को पैदा करने से भी ज्यादा जरूरी समझा जाता है  सन्नाटे को सब तरफ बिछाना  यह कैसा समय है  घर को सन्नाटे से घेर, घर को जिंदा रखना और बंद खिड़कियों के शीशे से  बाहर पड़ोसी खिड़कियों को घूरना घूरती आंखों में  तैरते मृत्यु - भय को संक्रमण से बचाना  पृथ्वी को मनुष्यविहीन होने से बचाने के लिए निहायत जरूरी समझा जाता है  यह कैसा समय है  कि लिफ्ट के अंदर या बाहर होते ही  जब महिला की प्यार - भरी आवाज़ में   बज उठता है निर्देश कि  "कृपया दरवाजा बंद करें " तो यह आज का सबसे बड़ा निर्देश लगता है और ध्वनित होता है  उसकी अनुगूँज का विस्तारित मतलब भी कि "कृपया सन्नाटा पैदा करें " यह कैसा समय है  कि दूरी अस्तित्व के लिए एक अनिवार्य शर्त बन जाती है  और तमाम नजदीकियां बन जाती हैं  सामूहिक आत्महत्या की ठोस वजूहात  यह कैसा समय है  कि प्रयोगशाला में बैठकर आदमी  ढूंढते - ढूंढते मृत्यु के संभावित कारक  या मारक विषाणु  खोजने लगता है  मृत्यु को संक्रामक बनाने के तरीके और बनाने लगता है घातक संक्रामक हथियार शायद प्रयोग