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Showing posts from March, 2020

लगाते थे हमेशा जो / ग़ज़ल

लगाते थे हमेशा जो यहाँ सामान की क़ीमत ।  लगाएंगे अभी वे ही हमारी जान की क़ीमत । कभी पूछी नहीं उसने वहाँ से ख़ैरियत मेरी, अभी पूछी तो बस पूछी मेरे एहसान की क़ीमत ।  चढ़े बाज़ार तो चढ़ते चढ़ावे देवता पे भी जुड़ी शेयर के बाज़ारों से क्या भगवान की क़ीमत ? कमी कितनी भी हो जाए यहाँ इंसान की लेकिन  कभी चढ़ती कहाँ है शहर में इंसान की क़ीमत । जरा सी गिर भी जाए तो खरीदें और भी अरमां  मगर चढ़ती ही जाती और ये अरमान की क़ीमत । करोड़ों हैं परेशां सिर्फ घर के कर्ज भरने में  वहीं कुछ पूछते हँसके भी हिन्दोस्तान की क़ीमत ।  खुली धरती या खाली मेज पे रख  खा रहे हैं जो  उन्हीं से पूछते हो दर्श दस्तरख्वान की क़ीमत ।

ग़ज़ल

आएगा वो खास कुछ इस बार लेके। या वही अल्फ़ाज़ फिर दो – चार लेके। हमने तो बस बूँद मांगी थी दुआ में वो खुदा था आ गया बौछार लेके। तुम किनारे लेके बैठे रो रहे थे हम तो डूबे गा रहे मँझधार लेके। चांद के उस पार जाते हैं अभी भी अब न जाते हम मगर दिलदार लेके। चांद के उस पार आखिर क्या है ऐसा आ न सकते चांद के इस पार लेके ? छत तो तुम देते नहीं हो बारिशों में गर्मियों में क्या करें दीवार लेके ? उन सभी आंखों की ली हमने तलाशी जो चमकती थीं तेरा दीदार लेके। बादशाह अब है नहीं तो क्या हुआ ?    अब मदारी बैठता दरबार लेके।  दुश्मनों से बात वैसे की न हमने बात की तो सिर्फ कारोबार लेके। हम तो पहुँचे थे वहाँ लेके दुआएं  तुम तो पहुँचे थे वहाँ बाज़ार लेके।

उन दिनों मैं कविता नहीं लिखता था

उन दिनों  कविता नहीं लिखता था  ग़रीबी के उन दिनों  गरीबी को लिखने से कहीं ज्यादा  आसान था गरीबी को देखना बिना कुछ कहे  या बिना लिखे कोई कविता उसे जी लेना  और भी आसान था शायद कविता लिख नहीं पाता था ,  लेकिन कविता पढ़ाता था बच्चों को बच्चों को इसलिए कि  बच्चों के लिए कविता एक विषय थी जिसे पढ़े बिना बच्चे बड़े नहीं हो सकते थे बच्चे ही पढ़ या समझ सकते थे  उनके अमीर पिता नहीं  जो चालीस के होते ही  कविता से बहुत दूर जा चुके थे  और जिनके लिए कविता थी अब बस बच्चों के पढ़ने की चीज  कविता है अभी भी आदमी गढ़ने की चीज अमीर पिता अब यह भूल चुके थे चालीस के बाद  पढ़ाता था, सिर्फ इसलिए नहीं  कि बच्चे समझ सकें कविता  और वे बन सकें बेहतर मनुष्य  एक बेहतर दुनिया के लिए वे बना सकें  कुछ बेहतर रातें और थोड़े बेहतर दिन पढ़ाता इसलिए भी था कि कविता पढ़ाने के मिलते थे पैसे उन पैसों को अंतिम सिक्कों तक खरचते थोड़े दिन भूल ही जाता था  कि यह सर्दी की धूप है  फिर आगे तो वे ही दिन हैं  गरीबी के, मुफलिसी के  जिनसे लड़ते हुए कुछ कवियों ने   हासिल की थीं कुछ कविताएं  और कुछ ने तो असमय गंवाईं थीं जानें भी बिना किसी हास