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Showing posts from June, 2020

सुनो कौशिकी: समकालीन जीवन में संवेदना ढूंढती कविताएँ / समीक्षा / डॉ. नीलोत्पल रमेश

‘सुनो कौशिकी’ दिलीप कुमार अर्श का पहला कविता -संग्रह है । इसमें 32 कविताएँ 8 ग़ज़लें हैं । इसमें कवि ने अपने अन्तर्मन को ही वाणी दी है। कविता कवि के अन्तर्मन की वाणी या पुकार तो होती ही है इस वाणी या पुकार में अक्सर  व्यष्टि में समष्टि का भाव – प्रसार होता है। इसलिए एक अर्थ में “सुनो कौशिकी” व्यष्टि में समष्टि का काव्य है। दूसरा, बचपन की अनेक स्मृतियाँ चलचित्र की भांति कवि के मानस पटल पर चलती रहती हैं और वही कविता का रूप लेती गई हैं। यही  नहीं इस कृति में कवि ने पग पग पर दिखाई पड़ती समकालीन जीवन-व्यवस्था, मूल्य हीनता, संवेदना शून्यता और एक हद तक पांव पसारती अनैतिकता को मुखरित – रूपायित करने की कोशिश की है। मनुष्य की स्मृति में बहुत सारी बातें या चीजें सुषुप्तावस्था में पड़ी रहती हैं, लेकिन सजग सचेत कवि ही उसे उकेरने में सफल होता है। इस दृष्टि से कवि दिलीप कुमार अर्श भी निस्संदेह सफल हुए हैं।  डाॅ. नीलोत्पल रमेश    आत्मकथ्य में कवि ने स्वयं स्वीकार किया है - “ सारी कविताएँ जैसे पहले से ही भीतर में थी और उन्हें सालों से मैं जी रहा था, बस अभिव्यक्ति की अकुलाहट या बेचैन को अवसर के

कौन बनेगा कविकुलपति !

...टीवी खोलते ही स्क्रीन पर एक ताड़- सा खड़ा इंसान हाथ जोड़े प्रकट हुआ।   "देवियों - सज्जनों, नमस्कार,  आदाब,  सत श्री अकाल... 'कौन बनेगा कविकुलपति'  के इस कार्यक्रम में मैं यायावर मुनि आप सबका स्वागत करता हूँ । उम्मीद करता हूँ कि आप सब ख़ैरियत से हैं, छह फुट की आपसी दूरी बनाए हुए हैं, बनाए भी रखें, नहीं तो आजकल छह फुट जमीन भी नसीब...खैर, यह बताते हुए खुशी हो रही है कि मेरे बाबूजी जो हिन्दी के बड़े कवियों में से एक हैं, आज  का दिन उनके लिए कुछ खास है।" "बधाई हो मुनि जी, उनको बर्थ डे की ढेर सारी शुभकामनाएं"- सामने बैठे आडिएंस ने एक साथ  शुभकामनाओं की बारिश की। एंकर ने इस बारिश में भींगते हुए कहा, "अरे भाई,  आज उनकी पुण्यतिथि है, जन्म दिन नहीं"  आडिएंस की मुद्रा बदली। थोड़ी सकपकाहट भी फैल गई। चेहरे पर क्षण - भर के लिए उदासी और शोक की मुद्रा हावी हो गई।  एंकर ने अपनी नम आंखें पोछते हुए कार्यक्रम को आगे बढ़ाया।  "खैर, देवियों सज्जनों,  अभ्यर्थियों की बढ़ती संख्या देखते हुए खेल के फार्मेट में इस बार तब्दीली की गई है । अब एक नहीं, पांच हाट सीटें ह

सुभाष राय की एक कविता / तलाश

सुभाष राय जितने कुशल संपादक हैं उतने ही सफल कवि हैं । समकालीन हिन्दी कविता में जनधर्मिता की लौ  अपनी हथेलियों पर लेकर आगे बढ़ने वाले जो थोड़े से पक्षमुक्त कवि होंगे, उनमें से वे एक हैं, ऐसा मैं समझता हूँ ।  ----------------------------------------------- तलाश   मौसम साफ होने पर कोई भी बाढ़ के खिलाफ पोस्टर लगा सकता है बिजली को गालियां बक सकता है तूफान के खिलाफ दीवारों पर नारे लिख सकता है जब हवा शीतल हो, धूप मीठी हो कोई भी क्रांति की कहानियां सुना सकता है घर मे लेनिन और माओ की तस्वीरें टांग सकता है लेकिन जब मौसम बिगड़ता है गिने-चुने लोग ही घर से बाहर निकलते हैं बिजलियों की गरज से बेखबर बाढ़ के खिलाफ बांध की तरह बिछ जाने के लिए ऐसे कितने लोग हैं धरती उन्हें चूमना चाहती है प्यार से

एक पंक्ति के विरुद्ध / कविता / दिलीप दर्श

एक पंक्ति के विरुद्ध  जब लिखनी पड़े  एक पूरी किताब या फिर  किताबों की पूरी श्रृंखला  तो समझ लेना चाहिए  कि पंक्ति एक आंख से पढ़ी गई है और किताबें लिखी गई हैं अधखुली आंख से अन्यथा एक पूरी पंक्ति के विरुद्ध   पर्याप्त हुआ करता है  एक ही शब्द  विरोध का एक शब्द  दोनों आंखें मिलकर ढूंढ सकती हैं  अगर हों खुली  और देखती हों सिर्फ वही नहीं  जो वे देखना चाहती हैं  जो वे नहीं देखना चाहती हैं  अक्सर वहीं मुंद जाती है एक आंख 

धान रोपती स्त्रियाँ / कविता / दिलीप दर्श

अपने खेतों से उखड़कर  दूसरे खेतों में रोपे जाने का दर्द  जानती हैं  धान रोपती स्त्रियाँ  इसलिए गाती हैं बिचडों के लिए गीत जैसे अनुभवी स्त्रियों ने मिलकर गाए थे  उनके पांवों को जनमडीह से उखाड़ते हुए रोपते हुए पिया के देश में  वहाँ के आंगन में  गीतों के अवरोह से उतरती थी उखड़े पांव के लिए सान्त्वना  आरोह में चढ़ता था आशीष  उनके लिए गीत ने एहसास दिलाया था कि वे दुनिया में अकेली नहीं हैं   यही एहसास गीत की असली ताकत है इसे जान चुकी हैं  धान रोपती स्त्रियाँ  जी चुकी हैं  बिचड़ों का दुख पहले ही  इसलिए गा - गाकर भर रही हैं  बिचडों में भी  यह एहसास कि वे अकेले नहीं हैं दर्द की पनीली पहरों में  कोई हो न हो  उनके साथ हैं धान रोपती स्त्रियाँ  और उनके गीत !     

अब जबकि बादलों ने / कविता / दिलीप दर्श

अब जबकि बादलों ने  पूरा कर लिया है मानसूनी तिमाही में ही पूरे साल की बारिश का बजट और बारिश लगभग खत्म हो गई है पानी पर बहस जारी है पानी के दावेदारों और पानी के मारों के बीच पानी के दावेदार खुश हैं कि बाकी दिन अब इत्मीनान से गुजरेंगे  देश में पानी की कमी नहीं रहेगी  पानी का निर्यात बढ़ेगा  बढ़ेगा विदेशी मुद्रा का भंडार   वे खुश हैं कि कम समय में  और न्यूनतम लागत पर लक्षित बारिश हुई है  और बादलों को धन्यवाद देना चाहते हैं  इसलिए उन्होंने रखा है  संसद में धन्यवाद- प्रस्ताव  पानी के मारों को घोर आपत्ति है इस पर आपत्ति है  कि बारिश एकाएक हुई है  एकाएक इतनी बारिश  संभाल नहीं पा रहीं हैं नदियाँ  बह रही हैं अभी भी  खतरों के निशान से ऊपर बह गए हैं गाँव के गाँव डूब गईं हैं फसलें  बचे हुए लोग या जानवर दिख रहे हैं  बस ऊंचे-ऊंचे बांधों पर अफवाह गरम है कि  बांध कभी भी टूट सकते हैं  क्योंकि इस बार भी  बड़े - बडे चूहों ने बनाए हैं  बड़े - बड़े बिल इनमें  बिलों ने बांध को बिल्कुल खोखला कर दिया है  ऐसी अफवाह है  पानी के मारों की मांग है  धन्यवाद प्रस्ताव पर नहीं  चर्चा हो तुरंत इस अफवाह प

साधो, लिस्ट भयो है जारी

साधो, लिस्ट भयो है जारी। कवियन की यह लिस्ट लांब अति, पढ़त - थकत मन हारी।  देखि -देखि निज नाम लिस्ट में, भरम भयो अति भारी, अब तो हमहूं स्थापित कवि, पाठक दुनिया सारी। लिस्टेड कविकुल मुदित मुग्धमन मारत हैं किलकारी,  लिस्टबाह्य कवि कुपित - खिन्न, दै लिस्टकार को गारी। आक्रोशित सब धरना धरि- धरि कविता पढ़ै करारी, क्रोध- अंध हो निज कविता भी लिस्ट समझकर फाड़ी।  लिस्टकार सुनि - सुनि मुस्क्यावै, गुप - चुप गुबदी मारी।  पुनि - पुनि परखै नाम और तब लिस्ट कियो विस्तारी। फिर भी कछु कवि शेष रहै तो वेटिंग लिस्ट उतारी,  दूरदास बस आस करै कब आवै अपनी बारी ।   

यायावर मुनि भाखै सत सत

“यायावर मुनि जी,  इस घोर कोरोनाकाल में तो आप भी कविया गए हैं, ” “ तो तुम्हें क्या दिक्कत है ?”. “ जी मुझे कोई दिक्कत नहीं, यह तो खुशी की बात है। कविता का आदिकाल था, भक्तिकाल था ....अब  कोरोनाकाल है, कल कोई और काल होगा..कविता का काल - प्रवाह रुकता ही कब है ! मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहता था कि इस घोर कोरोनाकाल में देश का हरेक तीसरा व्यक्त्ति कवि है, जाग्रत कवि, एलर्ट कवि।” मुनि जी मुस्कुराए, जैसे बुद्ध मुस्कुराए थे। उन्होंने समझाने के लहजे मेें कहा, “ देख, यह संसार एक गद्य है, गद्य का कारण है, गद्य से मुक्ति भी है, कविता गद्य से मुक्ति का एकमात्र मार्ग है। कोरोना का कहर अभी जीवन का सबसे बड़ा गद्य है, इससे मुक्ति हेतु दुनिया घर या अस्पताल में क्वारंटीन्ड होकर छटपटा रही है, दुनिया में  सरकारों के पास वैक्सीन नहीं है तो क्या हुआ ? कविजनों के पास कविता तो है, फिर कविता किसी वैक्सीन से तो कम नहीं । 'ब्रह्मानंद सहोदर' में डुबकी लगाकर बाहर निकलो, न तो डाबर के किसी च्यवन ऋषि को याद करने की जरूरत रहेगी, न ही दिन - भर किसी सेनिटाइजर की। ऐसे में हरेक तीसरा ही क्यों ? सुषुप्त या ज

दिलीप दर्श को कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार- 2019 / डाॅ. कविता नंदन

डाॅ. कविता नंदन  हिन्दी के युवा साहित्यकार दिलीप दर्श को प्रतिष्ठित त्रैमासिक पत्रिका 'कथाबिंब' की ओर से उनकी 2019 में प्रकाशित कहानी "फिर वही सड़क" के लिए यह सम्मान दिया गया है। 'कथाबिंब' की ओर से कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार-2019 पाने वाले कथाकारों में अंशु जौहरी (सुरंग भरे पहाड़), राजगोपाल सिंह वर्मा (पेइंग गेस्ट), मीनाक्षी दूबे (फेयर ड्राफ्ट), डॉ.अमिताभ शंकर राय चौधरी (सुंदरवन की अनोखी कथा), संदीप शर्मा (गाइड), एम.जोशी हिमानी (अधूरी कहानी), दिलीप 'दर्श' (फिर वही सड़क) और ओमप्रकाश मिश्र (काकू.की जेल यात्रा) हैं । युवा साहित्यकार दिलीप दर्श पिछले लगभग डेढ़ दशक से हिन्दी साहित्य में काव्य, कथा, निबंध और समीक्षा जैसी विधाओं में गंभीर साहित्यिक लेखन के जरिए सक्रियता बनाए हुए हैं। जनवरी 2018 में उनका काव्य संग्रह 'सुनो कौशिकी' प्रकाशित हुआ था और 2019 में उनका कथा संग्रह 'ऊँचास का पचास' प्रकाशित हुआ। युवा साहित्यकार के लेखन में गाँव से लेकर शहर की पृष्ठभूमि पर संघर्षरत आम जन की संघर्षशील यात्रा को पढ़ने-समझने का भरपूर अवसर मिलता

फिर वही सड़क / कहानी / दिलीप दर्श

तीसरे गर्भपात के बाद स्त्री कितनी धर्मशाला हो जाती है मालूम नहीं, मगर हर तीसरी बारिश के बाद यहाँ की सड़क, गड्ढा या नाला हो जाती है, यह सबको मालूम है। रुपौली और नवटोलिया के बीच की सड़क एक बार फिर टूटकर गड्ढे और नाले में तब्दील हो गई है। पुनर्निर्माण तो दूर, इस बार गड्ढे भरने के भी आसार नज़र नहीं आ रहे। साल भर पहले ही चुनाव हुए हैं । चुनाव के ठीक  पहले पुनर्निर्माण कार्य अभी शुरू ही हुआ था कि एक दिन कुछ बदमाशों ने बीच सड़क पर सिविल इंजीनियर को गोली मार दी । ठेकेदार, जो तत्काल बोरिया-बिस्तर समेटकर गए, आज तक वापस नहीं आए। आती रहीं सिर्फ खबरें ... अपहरण, फिरौती, हत्या, जातीय गैंगवार या मजहबी उन्माद की । पुलिस , कानून , प्रशासन ...सब मूकदर्शक ! परन्तु सड़क के टूट जाने से जीवन की गाड़ी रुकती नहीं, रुकती तब है जब गाड़ी का एक्सल ही टूट जाता है, अन्यथा यहां गड्ढे या नाले की पंकिल छाती को चीरकर गाड़ी निकालना किसी संघर्ष से कम नहीं और उनसे बचाकर निकालना, न ही किसी कला से कमतर । इस इलाके में गल्ले के कारोबार में सफल होने के लिए जो भी गुणात्मक शर्तें जरूरी हो सकती हैं, उनके अलावा इस संघर्ष और क

इसलिए वे पेड़ थे / कविता / दिलीप दर्श

जब बंट रहे थे पृथ्वी पर जड़ और पैर पैर लेने से इंकार कर दिया था हमारे पूर्वजों ने समय के विरुद्ध उन्होंने  पैरों के बदले जड़ों को चुना था गति - विरोधी नहीं थे वे लेकिन चलना स्वीकार नहीं था उन्हें  समझ साफ थी कि  जड़- विहीन कोई आगे तो बढ़ सकता है  ऊपर नहीं उठ सकता इसलिए उर्ध्वगति के पक्षधर थे वे पैरों के संभावित खतरों को लेकर  उन्हें आशंका थी कि  योग्य या समर्थ माना   सिर्फ उन्हीं पैरों को माना जाएगा  जो शामिल होंगे किसी आक्रांता के फ्लैग मार्च में शेष को घोषित कर दिया जाएगा  मड़ियल या अपाहिज जिनके लिए शांति मार्च ही रहेगा   एकमात्र और स्थायी विकल्प     उन्हें स्वीकार नहीं था  चलते हुए अपने कदमों को  किसी ताकतवर के हाथों सौंप देना या अपाहिज घोषित होकर जीना भी ऐसे पैरों के बल  उन्हें नहीं लगा था कि  वे कभी अपने पैरों पर खड़े हो पाएँगे विकलांग आत्म- निर्भरता भी  स्वीकार नहीं थी उन्हें  उन्हें लगा था कि चलने से ज्यादा   पैरों से लिया जाएगा कुचलने का काम वो भी इतना ज्यादा  कि चलते - चलते पैर  भूल जाएंगे चलना   उन्हें याद रहेगा सिर्फ