‘सुनो कौशिकी’ दिलीप कुमार अर्श का पहला कविता -संग्रह है । इसमें 32 कविताएँ 8 ग़ज़लें हैं । इसमें कवि ने अपने अन्तर्मन को ही वाणी दी है। कविता कवि के अन्तर्मन की वाणी या पुकार तो होती ही है इस वाणी या पुकार में अक्सर व्यष्टि में समष्टि का भाव – प्रसार होता है। इसलिए एक अर्थ में “सुनो कौशिकी” व्यष्टि में समष्टि का काव्य है। दूसरा, बचपन की अनेक स्मृतियाँ चलचित्र की भांति कवि के मानस पटल पर चलती रहती हैं और वही कविता का रूप लेती गई हैं। यही नहीं इस कृति में कवि ने पग पग पर दिखाई पड़ती समकालीन जीवन-व्यवस्था, मूल्य हीनता, संवेदना शून्यता और एक हद तक पांव पसारती अनैतिकता को मुखरित – रूपायित करने की कोशिश की है। मनुष्य की स्मृति में बहुत सारी बातें या चीजें सुषुप्तावस्था में पड़ी रहती हैं, लेकिन सजग सचेत कवि ही उसे उकेरने में सफल होता है। इस दृष्टि से कवि दिलीप कुमार अर्श भी निस्संदेह सफल हुए हैं। डाॅ. नीलोत्पल रमेश आत्मकथ्य में कवि ने स्वयं स्वीकार किया है - “ सारी कविताएँ जैसे पहले से ही भीतर में थी और उन्हें सालों से मैं जी रहा था, बस अभिव्यक्ति की अकुलाहट या बेचैन को अवसर के
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