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Showing posts from November, 2019

दुबई घूमै गनी / पद / 4

दुबई घूमै गनी गनेस । मूस छांडि बिल्ली पे चढ़िकै भरमै देस - बिदेस । कविता- कविता करत फिरै यह कविता का दरवेस। काॅफी पीवत भी कविता में करै नया उन्मेस । कवि के ओलंपिक में आवै, बहु धरि कवि के भेस ।  तत्त बिचारै, सत्त संभारै, चीन्है असली फेस । बिल्ली के पांवों के पीछे खूब लगावै रेस। समझ न आवै बिल्ली से ही क्यों नुचवावै केस। संपादक- परकासक पीड़ित कवि के कबज, कलेस दूरदास सब हर लै हरदम मर - मर गनी गनेस।

कविता, रहस वतावै / पद /3

कविता , रहस बतावै नंदन । कविता का बस मरम उघाड़ै, ना निंदा ना वंदन। वैष्णव - जन पे पुहुप चढ़ावै, सीस लगावै चंदन, नकली जन का खूब करै पर झाड़ू से अभिनंदन । इन्कलाब के सूने पथ पर बाढ़ै जंगल दन - दन। कचिया लेकर वाम हाथ से निसि दिन करै निकंदन। बहुत भया अब कामरेड के फटे कोट पर क्रंदन । दूरदास चल कविता भाई हमहूं भागैं लंदन।

यायावर- मन भावै / पद / 2

भारत !  यायावर - मन भावै । पैंसठ पतझड़ भोगि भ्रमर यह कुसुम अंग को ध्यावै। सहस कमल से ओस झरत नित तामें खूब नहावै। रेनू रेनू जपत निरंतर रेनू - भूत बुलावै । सिर चढ़ बोलै भूत सबद जो लिख - लिखकर दिखलावै । अनिल जनविजय मास्को से जब कचिया लेकर धावै, नागार्जुन की लाठी में तब कड़ुआ तेल पिलावै। परम 'हंस' के सम्पादक जब ठुमकत नैन लड़ावै, विंहसि - रहसि तब यादवजी को 'यौनाचार्य' बतावै। मोबाइल पर घंटों बतिया कनपट्टी गरमावै, बात - बात में सहजहि अपना भारी ज्ञान घुसावै । वाम - दहिन का भरम छांडिके अपनी राह बनावै , मानुष के सम्मुख नहिं कोई,  वाद न नेह लगावै । हैप्पी बड्डे बोल - बोल जहँ सब जन पिंड छुड़ावै,   दूरदास बस हरसि - हरसि तहँ प्रेम- परस -पद गावै ।।

ऊधौ, अब हम / पद / 1

ऊधौ, अब हम पुहुप देस के वासी जिसकी हवा लहै जब फुफ्फुस छूटै क्राॅनिक खांसी। पहुँचत जहँ सब क्लेस मिटत है भागत भरम - उदासी निसि दिन रस नारंगी टपकै पीवत जियरा भांसी। गन्ना -रस मधुमेही माया, काया करत बिनासी वापिस आ यह देस हे ऊधौ, क्या भटकत चौरासी।  यह तो नश्वर काया ऊधौ,  सत्ता है अविनासी।  दूरदास कुरसी की लीला देख पचावै हाँसी।

प्रेम को कभी

प्रेम को कभी सुबह की पहली चाय या शाम की काॅफी नहीं समझा मैंने प्रेम को बस पानी ही समझा हमेशा मन पर मैल की परत महसूस हुई तो धो लिया पी लिया बस सूख गया जब कुआँ मेरे भीतर और भर गया उसमें अंधेरा कोई प्यासा ! जब कभी उड़ा धुआँ भांप ली आग बुझा भी दी उसे इसी पानी से सिर्फ चिल्ला कर  -"आग , आग !" मैं न पाया भाग जब कभी लौटा, तन - मन ले थके - पके डूब उसमें नहा लिया खूब जुड़ा ली आत्मा भी यही नहीं कभी डाल लिया कमंडल में छींट लिया सिर पर, हो गया पवित्र देखा पानी में एक महात्मा भी ।

तुम्हें रोटी नहीं देगी

तुम कविता में कितना भी आटा गूंधो कितना भी खांसो नंगे घूमो या बेघर मर जाओ कविता तुम्हें रोटी नहीं देगी और न ही पैसे दवाई, कपड़े या घर - खरीदी के लिए कविता सिर्फ बताएगी तुम्हारी भूख तुम्हें कहाँ - कहाँ गिरा सकती  है कहाँ- कहाँ तोड़ देती है तुम्हारी खांसी तुम्हारे गीतों की कड़ी  को कविता सिर्फ बताएगी तुम कितने नंगे हो और अच्छी नींद या मौत के लिए बिछावन के ऊपर एक छत का होना क्या वाकई जरूरी है ?