भारत यायावर की कविता / ऐसा कुछ भी तय नहीं था


न तूफ़ान का आना तय था
न पेड़ का गिरना
न मेरे मिट्टी
के मकान का
पूरी तरह धँस जाना

न यह तय था
कि उस मकान को छोड़कर
हम बाहर आएँगे
और उसे इस तरह भूल जाएँगे

भूल जाएँगे
कि जेठ की दोपहरी में
उसकी धरन में
रस्सी बाँधकर
झूला झूलने वाले हम
मिट्टी के मलबे से
उस धरन को निकालकर
बेच देंगे

तय कुछ भी नहीं था
फिर भी हमने बचपन के जर्जर उस मकान को
छोड़ दिया

उस मकान की दीवारों में
रह रहे चूहों ने भी उसे छोड़ दिया

रोज आँगन में
न जाने कहाँ-कहाँ से
आ जाने वाले कौओं ने भी आना छोड़ दिया

छ्प्पर में घोंसला बना कर रहने वाली
गौरैय्यों का भी कहीं अता-पता नहीं

आसपास मँडराने वाले
जूठन पर पड़ने वाले
कुत्तों को भी अब वहाँ कोई नहीं देखता

मकान
जो पहले हमारा घर था
अब बचपन का सिर्फ़ एक बूढ़ा मकान था
धूप-बताश-बारिश में अकेला रह गया
पिछवाड़े में खड़ा वह आम का पेड़
जिसे हमारे दादा ने लगाया था
वही साथी रहा अकेला

गर्मियों की एक रात
आँधी-तूफ़ान
पेड़ और मकान
दोनों धराशाई हो गए
दोनों ने अपनी
बरसों की मित्रता निभाई
पर निभा न पाए हम
जबकि
ऎसा
कुछ भी तय नहीं था!

(रचनाकाल : 1991)

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