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Showing posts from February, 2020

पूरा यकीन है मुझे / कविता

तुम्हारी चमड़ी की खुरचन में  जो मिट्टी है उसमें  सिर्फ कश्मीरी केसर नहीं है सांभर है, डोसा भी है खार, मोमो, समोसा भी है मगध की लिट्टी है, चोखा है  और इस मिट्टी में रंगों के जो घेरे हैं,  घेरे नहीं, बस नजरों का धोखा है तुम्हारी चमड़ी के नीचे जो हड्डी है  उसकी वज्र - सफेदी में  बस गोकुल का दूध नहीं है  उसमें देश के कोने - कोने की हरी - हरी घास है हरेक खेत के सूखे पुआल की कुट्टी है  जिसकी एक - एक टुकडी में  भारत नाम के एक ही ब्रांड की घुट्टी है जो मां की छाती से छिटककर   अब देशभक्ति के बाज़ारों में  अलग - अलग लेबल के साथ बिकाऊ है हलांकि हरेक ब्रांड अपने - अपने असर में  करीब- करीब उतना ही टिकाऊ है  तुम्हारी हड्डी की मज्जा में  जो बनता हुआ खून है उसका तीन - चौथाई   जो कि दरअसल पानी है वर्णविहीन उसमें सिर्फ गंगा - जमुना नहीं है  सिंधु- सरस्वती है, ब्रह्मपुत्र, कोसी है गोदावरी, कावेरी, कृष्णा भी है  पानी पर जो खिंची जा रहीं हैं, वे लकीरें नहीं, कुछ और हैं क्योंकि पानी सचमुच पानी है  और खून भी सचमुच खून है लकीरें खींचना, उसके टुकड़े करना किसी सनक का ही मजमून है ।  तुम्हारे माथे पर सिर्फ  चंदन

ऐसे मौसम में ही/ कविता

आखिर कबतक रखोगे अपने होठों पर आग अपनी आंखों में बिजली  और अपनी फूंक में जलती हुई धूप ? कबतक झुलसता रहेगा  धरा का शस्य श्यामल रूप ? कबतक जलाते रहोगे भाषा और शब्दों को करते रहोगे राख ? कि आग होठों पर रखने के लिए नहीं है  तुम इसे बेहतर रख सकते थे  अपने भीतर जैसे रखती है अग्निगर्भित पृथ्वी  और बाहर रखती है मिट्टी, पानी, हवा  पत्ता - पत्ता खिलखिला उठता है पेड़  पेड़ पर चहचहा उठती है चिड़िया और सोई हुई तितली को जगा देती है  उड़ने लगती है तितली पीछे भागने लगते हैं बच्चे  दौड़ते - भागते छोटे- छोटे बच्चे  थकते नहीं, बुझते नहीं कभी क्योंकि आग  नहीं होती उनके होठों पर  आग होती है उनके भीतर कहीं  जो उन्हें थकने - बुझने नहीं देती  चुंबन का बेहतरीन गुलाब खिलता है बच्चों के होठों पर  उगती है छोटी - छोटी दूब  हरी- हरी मुस्कुराहट की वह बेहतरीन गुलाब  तुम भी खिला सकते थे उगा सकते थे तुम भी वहाँ  छोटी - छोटी दूब  बिजली के लिए आंखें, छाती से बेहतर जगह नहीं हैं उसकी दाहक कौंध  अपनी छाती में रख सकते थे तुम  जैसे रखते हैं सांवले बादल  और दिखाते हैं सीने को दो फाड़ कर सार्वजनिक गडगडाहट के साथ  बरसने के ठीक पह

अवधू झाड़ू की गति न्यारी / पद / 12

अवधू, झाड़ू की गति न्यारी,  एकहि झटकन में भगतन की तोड़ै राम - खुमारी।  घर - घर झाड़ू फिरै दिवस - भर, रात करै उजियारी।   मन की बात सुनै नहिं कबहूं मन की करै बुहारी।  कमल - क्रोड का भौंरा भी अब चढ़िकै महल अटारी । गावै राग जमीनी लेकिन सुर में मारा - मारी।  झाड़ू विरथ, रथी सब भौंरा घेरै दल - बल भारी। एक अकेला झाड़ू, पहिया ले कर व्यूह उजारी। थक्यौ भौंरा झाड़ू को कह - कहकर भ्रष्टाचारी । झाड़ू लेकिन बकोध्यान से पुनि चुनि मछली मारी।  कमल - पंक सब उठा - उठाकर झाड़ू के मुंह मारी।  दूरदास, भौंरा कीचड़-बिन कमल खिलावत हारी । 

एक अभिधमन भट्ठी

हरेक कवि के भीतर होती है  एक अभिधमन भट्ठी कवि ही क्यों ? सबके भीतर होती है एक  सबके अपने - अपने लौह - अयस्क  पिघलते ही रहते हैं भीतर तरल - तप्त लोहा वही बाद में  होते - होते वयस्क  बनने लगता है ठोस चमचमाती कविता  जैसे चमचमाता इस्पात  उसे तब चोट या चुंबन नहीं  फिर ताप ही पिघला सकता है  ताप ऊपजता है  सिर्फ अभिधमन भट्ठी में  भट्ठी से गुजरकर ही समझा जा सकता है  इस्पात कैसे बनता है  और चमक या मजबूती कैसे होती है हासिल  अन्यथा हम नहीं होते कभी  चमक या मजबूती समझने के क़ाबिल ।

वह लिखेगा रिपोर्ताज

अपनी बची - खुची आंखें  और आंखों का बचा-खुचा पानी छोड़ गया वह  समय की शिला पर पाषाणी कान में फुसफुसाकर  कितना कुछ बता गया –  शिला पर ठहरी एक - एक बूँद पर  चमक रहा है उसके समय का मिज़ाज  अभी भी टकरा रही है शिलाखंड से उसकी आवाज़   वहाँ रखी उसकी आंखें अभी भी ढूंढ रही हैं कोई बात या घटना वह जरूर लौटेगा  फिर लिखेगा रिपोर्ताज !

गौरी ! शंकर पीकर भांग / पद / 11

गौरी! शंकर पीकर भांग। धुत्त धतूरे में नहिं सूझत क्या राइट क्या रांग। सबद-सबद पर टोकत - चालत, बीच अड़ावत टांग। तर्क में तांडव घोर करत मनवावत अपनी मांग। चटकधाम की चाय कड़क पी मारै खूब छलांग। चलत इंच भर पहुँचत लेकिन दूरी गज – फर्लांग।  कबहुँ बजावत ढोल दहिन से, गावत राग एकांग । साहित के सुर – साधक कबहूं दौड़त ले कर डांग।  सोचत थर-थर कांपत गौरी, डोलत अंग – उपांग। नंदी छांडि चढ़ै अब शंकर क्यों ओरांग उटांग।  मुर्ग मसल्लम डिनर दबा के देत पराती बांग। सुनत – सुनत अब दूरदास के कान भयो दिव्यांग।