धर्म बदलें, मजहब बदलें, आस्था - अक़ीदा बदलें, इस छोटी सी जिंदगी में इसे कई बार बदलें, कोई बात नहीं। लेकिन धर्म, मजहब, आस्था, अकीदत में बदलाव का दायरा जब आपकी भाषा, पहनावे, तौर - तरीके या जीवन शैली यानी आपकी सांस्कृतिक बुनावट के बदलाव तक फैलने लग जाए, आपकी एक विशेष सीमा तय करने लगे, आपके 'स्व' को, आपकी व्यक्तिगत अस्मिता को उस जमीन की संस्कृति में बदलने लगे जिसमें आपके अपनाए धर्म,मजहब के अवतार, पैगंबर, या ईश- पुत्र पैदा हुए तो समझ लीजिए आपकी मानसिक गुलामी का आरंभ हो गया। इस लिहाज से अगर भारतीय इतिहास को देखें तो मोटे तौर पर दो तरह की गुलामी आई दिखाई पडती है जिसने भारतीय समाज को बदला और इतना गहरा बदला कि वह थोड़ा- थोड़ा खंडित होता रहा और अंततः यह खंडन पूरा भी हुआ। पूर्व मध्यकाल तक जो भी गुलामी थी मानसिक या सामाजिक वह आंतरिक थी। भले ही वह बुरी थी लेकिन यह बुराई भारतीय थी क्योंकि इसी जमीन की थी। वर्ण - जाति की श्रेष्ठता या हीनता अथवा उसके नाम पर शोषण मानसिक- सामाजिक गुलामी का एक हिस्सा था। लेकिन यह हिस्सा नितांत भारतीय था। रोग था लेकिन अपने शरीर का था। दर्द था लेकिन अपने दिल
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