अवधू, चुप रहु, मुख नहिं खोलहु। राखहु भेद छुपाकर भीतर, बाहर कुछ नहिं बोलहु। खोलहु मुख जब बाहर, पहले भीतर खुद को तोलहु। सबद - सबद को जिह्वा पर लै मधुर - मधुर कुछ घोलहु। बोलहु बरफी हरदम, कबहूँ नीम न सीधे बोलहु। मान - हानि का जुग नाजुक यह जोखिम क्योंकर मोलहु ? नंगा भी अब कहत हे अवधू ! बटन न ऐसे खोलहु। दूरदास की मानहु नहिं तो जाहु कचहरी डोलहु।
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