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Showing posts from September, 2019

तेरी कविता मेरी कविता

तेरी कविता मेरी कविता चकमक चोले में है लिपटी अंदर क्यों अंधेरी कविता  ? दिखती कितनी भरी - भरी सी अंदर खाली खाली कविता , तुम कहते हो पी ली कविता मैं भी कहता, खा ली कविता । औरों की तो नकली कहते अपनी कहते असली कविता, खंजडी कविता पैदा होती जीती बनकर डफली कविता । तन से खद्दरधारी होकर मन से कारोबारी कविता, झुग्गी - झोपड़ियों की आंखों की है महल - अटारी कविता । चापाकल का पानी किसकी किसकी है बिसलेरी कविता ? किसकी है निम्बोली ताज़ा किसकी स्ट्राॅबेरी कविता  ? फूल - फूल पर मंडरा आती तेरी उड़ती तितली कविता , गूंगी से तो बेहतर है कि बोले कुछ - कुछ तुतली कविता । फटे बांस की बना बांसुरी फूंकी और निकाली कविता, बहरों के जलसों में जाकर पिटवा आई ताली कविता । भींगे माचिस की डिब्बी की अंतिम सूखी काठी कविता , गोली - बम के आगे जैसे बेबस टूटी लाठी कविता । फूंक - फूंक चूल्हे सुलगाती खाला की फुंकनी भी कविता , चौपाटी पर पसरी, चिकनी बाला की बिकिनी भी कविता । नाक - मुंह तुड़वाकर लौटे जब ले गए सवाली कविता, मुस्काते वे लौट रहे थे जब ले गए रुदाली कविता । बड़े बड़े झंडों के नीचे

लिख लिखकर

क्योंकि निरपराध होने के बाकी सारे सबूत  खारिज हो चुके हैं अब लिख - लिखकर देता हूँ सबूत धोता हूँ गुनाह रोज खारिज करता हूँ आरोप इस समय में आदमी होने का लिख - लिखकर चुकाता हूँ कीमत इस कारोबारी समय में आदमी होने की क्योंकि मेरी जेब में नोट नहीं, सिर्फ शब्द हैं जिनमें से प्रत्येक की एक तरफ किसी महाकवि की खिसियासी - सी तस्वीर है दूसरी तरफ लिखा है- " मैं धारक को अर्थ अदा करने का वचन देता हूँ " लिख - लिखकर तुम्हें सिर्फ इसलिए दिखाता हूँ कि तुम देख सको कविता आदमी की बेगुनाही का अब  एकमात्र सबूत है और जेब में रहकर भी शब्दों की उतनी ही कीमत है उतना ही वजूद है

नया होगा यह देखना

मेरे लिए नया नहीं है धनुष की चढ़ी प्रत्यंचा को उतरते देखना हर दिन बांसुरी की चढ़ती लय के साथ ध्यानस्थ बुद्ध के ठीक सामने बैठ चार्वाक को चाय पीते देखना नया नहीं है मेरे लिए  तुलसी के कमंडल से गंगाजल निकाल रहीम को वुज़ू करते देखना तो बिल्कुल नया नहीं है नया तो होगा देखना काशी के पंडितों को पसीने से तर - बतर अपने कुर्ते से धागे खींच - खींच जनेऊ बनाते हुए वहाँ के जुलाहे के लिए नया होगा यह देखना कि कुछ राजकुमार जाने लगे हैं स्कूल एकलव्य की मंडली में दिन -भर  बैठ सीख रहे हैं- नया ककहरा जहाँ दो वर्णों के मेल के बिना कोई भाषा ही नहीं बनती आदमी की न ही बनता है सभ्यता का कोई व्याकरण नया होगा यह देखना कि इस पार का आदमी  सामनेवाले आदमी की पीठ को उसकी पीठ ही समझता है पुल नहीं समझता उस पार जाने के लिए

इसे कविता नहीं कहोगे

झोपड़- पट्टी के बीचो-बीच नीचे नालों के पानी में रोज किस तरह बहता है पूरा शहर तुम नहीं जानते जानते हैं वे जिनके घर हो जाते हैं गायब कभी भी बारिश में उफनते नालों की बाढ़ में और जानती हैं वे औरतें जो नाले के किनारे सूखी टोंटी के सामने खड़ी रहती हैं घंटों प्लास्टिक का खाली डिब्बा लेकर और तुम जानते हो सिर्फ प्रेस - कांफ्रेंस में थोड़ी देर खड़े होकर एक पानीदार वक्तव्य देते हुए जनता के गंजे शीर्ष गोलार्ध पर विकास - सूचकांक की कंघी घुमाना कुछ इस तरह कि भूलकर नाले का पानी और टोंटी का सूखता हुआ गला ढूंढने लगें लोग केश - विन्यास के एक से एक नमूने और सरतराशी की नायाब कला और तुम अपनी कंघी अपनी जेब में रख वापस अपनी गंगा में बहने लगो मुझे कोई दुख या गुस्सा नहीं कि तुम मेरी इन बातों को कविता नहीं कहोगे दुख या गुस्सा इस बात का है कि तुम वही आदमी इसी तरह गंगा में बहोगे भेष बदल - बदलकर अनंतकाल तक बहते रहोगे आखिर कबतक कभी कंघी पर पानी तो कभी पानी पर कंघी फिराते रहोगे ?

पानी और पत्थर

मुझे नफरत को पानी नहीं पत्थर बनाना है और प्रेम को बनाना है पानी रोकना है हर हाल में प्रेम को पत्थर बनने से  घृणा के पत्थर चुनने हैं आबाद इलाके से और उन्हें बनाकर पहाड़ मनुष्यता के नितांत परित्यक्त क्षेत्र में कहीं कैद कर देना है पहाड़ी जड़ता के अभेद्य घेरे में अगर रखना है दूर उन्हें हवा में पत्थर उछालनेवाले घृणास्पद हाथों से असंख्य माथे को फूटने से बचाना है अगर बचाना है मनुष्यता को पत्थर से इसलिए पानी बनाना है प्रेम को बहाना है उसे दसों दिशाओं में मुझे पानी में बहाना है मुर्दा शांति से बुना सफेद बर्फ का मोटा कफन पानी से तोड़ना है वह पहाड़ अन्यथा वह धरती की छाती पर खड़ा रहेगा गड़ा रहेगा शूल बनकर सदियों- सहस्राब्दियों तक मनुष्यता के परित्यक्त क्षेत्र में इसलिए प्रेम को पानी बनाना समय की जरुरत है फिलहाल पानी का मतलब तबीयत है

मुझे भी यकीन नहीं

...लेकिन तुम्हें कैसे यकीन दिलाऊं कि कोई नरम या हरी घास नहीं है इधर भी जैसा कि तुम्हें लगता रहा है क्योंकि मुझे भी यकीन नहीं है कि उधर जहाँ तुम खड़े हो वहाँ भी कोई नरम या हरी घास नहीं है कैसे यकीन दिलाऊं कि कहीं कोई घास नहीं है दरअसल पैरों से दबी जमीन पर, या आंखों के टंगे आकाश में कहीं कोई घास नहीं है और यह जो हरियाली है बिल्कुल जड़ -विहीन है इसकी न तो कोई जमीन है न ही कोई आकाश है हरा या नरम घास बस एक भ्रामक एहसास है यकीन नहीं होता कि दरअसल घास है जमीन के नीचे और हम सब ऊपर - ऊपर जमीन पर सिर्फ पैर पटक रहे हैं हम सब भटक रहे हैं अपने - अपने उजाड़ में कहीं कोई घास नहीं है इस भयानक सुखाड़ में मैं कैसे यकीन दिलाऊं मुझे भी यकीन नहीं होता

चोटी पर खड़ा आदमी

चोटी पर खड़ा आदमी हंसता नहीं है वह हंसी छीनता है छीन - छीनकर जमा करता है हंसी छुपाकर रखता है उसे जैसे कोई काला धन यह बात उस पहाड़ की घाटी में सबको मालूम है ढलान पर चढ़तीं चीटियां भी जानती हैं जानते हैं चोटी के आस - पास खिंचते बादल फिर भी घाटी के लोग ढलान की चीटियां बादल हंसते हैं, हंसने से नहीं डरते चोटी पर खड़ा आदमी रोता भी नहीं है क्योंकि रोना चोटी से गिरा सकता है परन्तु यह सब उस झरने को कहाँ मालूम है जो गिरता है चोटी से हंस - हंसकर झरता है उसकी पनीली हंसी और गिरने - झरने की उठती आवाज़ में कितनी थिरता है ! चोटी पर खड़ा आदमी यह नहीं जानता !

अब परीक्षा ही होगी / कविता/ दिलीप दर्श

मैं जानता हूँ समीक्षा किसकी होती है किसकी होती है परीक्षा पूरी तरह जानता हूँ । समीक्षा होती है उस मुंह की जहाँ कभी दो - चार से ज्यादा दांत नहीं होते आधी से अधिक जीभ भी नहीं आवाज़ में कोई अर्थ या भाषा नहीं कोई इशारा नहीं, भरोसा या आशा नहीं लेकिन होती है समीक्षा क्योंकि वह मुंह बड़ा होता है समीक्षक घुटने के बल खड़ा होता है डर - डरकर बार - बार गिनता है वे ही कुछ दांत खींच- खींचकर वही आधी जीभ कहता है - यूरेका, यूरेका, यही है वो मुंह , वो आवाज़ मिल गई मुंह को कमल बनाकर कविता खिल गई ...और परीक्षा होती है जहाँ आग है जीवन का उफनता राग है अनुभूति है, भाषा नहीं है सच्चाई है, कोई झांसा नहीं है भरोसा है, झूठा दिलासा नहीं है मुंह को कमल बनाने का कमाल नहीं अब परीक्षा ही होगी समीक्षा का सवाल नहीं  !

कितने काम के हैं ! / कविता/ दिलीप दर्श

तुम गढ़ते हो नए दर्शन कहते हो नई बात उछालते हो नए विचार लिखते हो नई कविता ढूंढते हो नई नई शैली गढ़ते रहो कहते रहो उछालते रहो लिखते या ढूंढते रहो मगर ये दर्शन, बात, विचार, कविता या शैली कितने काम के हैं उस आदमी के ? खाली है जिसकी थैली और जिसके मकई खेत में दुधिया भुट्टे की आंखों में हमेशा अकाल मृत्यु का भय है

दाल / कविता/ दिलीप दर्श

उदास हो जाती है रंग और स्वाद के बिना जिंदगी हल्दी और नमक के बिना दाल कितनी उदास हो जाती है ! शाश्वत चूल्हे की आग जैसे समय प्रेशर कुकर है या संसृति सीटी या सीत्कार उबलता पानी है शायद दुख पक रही है दाल  लेकिन अब दाल उदास नहीं रहेगी उसमें आएगा रंग, स्वाद और गंध अब आ गई हो तुम लगेगा छौंका या तड़का प्रेम का कलछी जो है तुम्हारा हाथ श्रम के गरमाते तेल में पकेगा तुम्हारी मुस्कान का चुटकी भर जीरा हींग जैसे तुम्हारी सांसों की गर्मी हर लेगी उदास दाल की ठंडी थकान क्योंकि अब आ गई हो तुम बदल गई है घर की हवा !□□□