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Showing posts from January, 2021

जो किसी को याद नहीं रखता

अब मत ढूंढना भाषा में  अपना अक्स या वे चिन्ह  जो भाषा में तुम्हारे उतरने के सबूत थे   और जिन्हें संभालकर रखती थी भाषा पहले कभी भाषा में सब कुछ ढूंढने की तुम्हारी आदत शायद जायज भी थी पहले  अब कितनी भी कोशिश कर लो कि जब लौट आओ भाषा से  तो छोड़ आओ भाषा में  अपने शब्द, रूप, रस गंध , स्पर्श  और भी बहुत कुछ अपना  जो तुम्हारे अस्तित्व को देते हैं आकार और अर्थ  परन्तु भाषा को ये सब संभालकर रखना  स्वीकार नहीं है अब वह अब लौटा देती है सब कुछ  यहाँ तक कि  तुम्हारे पैरों की निशानी भी अब  नहीं मिलेगी वहाँ  भाषा उसे अब मिटाना सीख चुकी है  पद - चिन्ह का अजायबघर नहीं बनना चाहती है वह अस्थियों की तो बात ही नहीं है  वहाँ अपने नाखून या बाल का छोटा - सा टुकड़ा भी  नहीं मिलेगा तुम्हें  स्तूप या मकबरा बनने से साफ इंकार कर चुकी है भाषा   भाषा को मूर्तियां पसंद नहीं अब इसलिए भाषा के किसी चौराहे पर   किसी की कोई मूर्ति भी नहीं मिलेगी  वह अब चौराहा बनना भी नहीं चाहती जो बनाए जाते हैं  सिर्फ मूर्तियों को खड़ी करने के लिए  भाषा अब किसी मठाधीश का कमरा नहीं  अब वह सेतु है  पृथ्वी और आकाश के बीच का  जो किसी को याद न

अवधू मन में बहुत भड़ास

अवधू, मन में बहुत भड़ास। क्रोध, जलन,नफरत हम ढोवैं, रोवैं पीड़ पचास।  खूब मजा आवै जो करिहैं औरन का उपहास। औरन जब उपहास उड़ावैं खुद क्यों होय उदास ? खुद को ताड़ बतावै औरन को समझैं यदि घास, क्यों रोवैं फिर सिर धुनि - धुनि  जब बहै पवन उनचास ? भाँति-भाँति के लोग जगत में, अपने - अपने क्लास। सबकी अपनी भूख यहाँ पर सबकी अपनी प्यास ।   थोड़ा लिखकर बहुत छपावैं खुद को समझैं खास। अपनी महिमा गावैं खुद ही, छप छप - रोग छपास।  निंदक- आलोचक जब आवैं उड़ि उड़ि इनके पास दूरदास इनके मुख से तब निकसै शहद - सुबास।  

अवधू कौन रेणु को ध्यावै

अवधू, कौन रेणु को ध्यावै । सोवत, जागत, चलत निरंतर, रेणु रैन - दिन गावै।  रेणु - ताप में तपत कौन वह रग - रग रेणु बसावै। कौन हजारीबाग बैठकर रेणु - समाधि लगावै।  लिखत रेणु पर खरी जीवनी नस - नस रस निकसावै । पृष्ठ- पृष्ठ पर विहँसि- हरसि वह कौन कलम चमकावै । जीवन - भर यायावर बनकर झोली भरि - भरि आवै। झोली खाली करि वह पुनि - पुनि ठाम नया फिर धावै।  सोचत - सोचत रेणु- कथा पर, सर के बाल गँवावै। साबुन, शैंपू और हजामत को फिर व्यर्थ बतावै।  यह सुन रेणु सुकेश इष्ट जब मन ही मन गरमावै।  तब खल्वाट भगत यह उनके केश - गुच्छ सहलावै।  रेणु सुकेश प्रसन्नवदन तब मुक्तहस्त उछलावै दूरदास फिर यायावर के सिर सघन जुल्फ लहरावै।