भूमिका / अब तो दे दो मुझे अंधेरा यह दिलीप दर्श की ग़ज़लों में कथ्य की दृष्टि से जहाँ जीवन का सौंदर्य हैं वहीं जीवन की कई समकालीन विसंगतियाँ भी हैं। उन विसंगतियों से ग़ज़लें जूझती हैं और बेहतर विकल्प की ख़ोज करती हैं। इस खोज में ग़ज़लकार को कितनी सफलता मिलती है यह तो एक पाठक ही तय कर सकता है परन्तु जहाँ तक मेरा मानना है दर्श सौंदर्य और विसंगतियों के बीच एक सेतु तो अवश्य निर्मित करते हैं। उस सेतु से होकर कोई भी पाठक प्रेम को इंगित करते हुए विसंगतियों के समक्ष प्रेम की एक नयी नींव तो डाल ही सकता है। यही नींव पाठक को भविष्य में प्रेम के शिखर-बिन्दु तक ले जाती है। जीवन के तथ्य और जीवन की विसंगतियों के बीच खड़ी इस संग्रह की ग़ज़लें ग़ज़लकार के मन के भेद और विचारों के रहस्य खोलने के लिए काफी हैं। भाषा और शिल्प की बुनावट सहज और सरल है। कहीं भी अबूझ भाषा का चमत्कार और असंगत कथ्य की कोई पहेली नज़र नहीं आती। यूँ कहें, ये ग़ज़लें साफ मन की सहज अभिव्यक्ति है जो सीधे-सीधे पाठकों से संवाद करती हैं। भाव,बुद्धि,कल्पना का समावेश लेखकीय समझ के साथ किया गया है। उल्लास औ
रचनाओं और विचारों को उनके साहित्यिक - सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर बढ़ावा देने के लिए प्रयत्नशील समकालीन रचनाशीलता और विमर्श का एक गैर - व्यावसायिक मंच । संपर्क सूत्र : kumardilip2339@gmail.com