मेरी आर्मेनिया यात्रा : एक अन्तर्कथा / दिलीप दर्श

...आज मेरी आर्मेनिया- यात्रा पूरी हुई। 
अब लिखने बैठा हूं तो इसका वृतांत भी पूरा हो ही जाएगा। इसमें बस ए
क चीज शायद कभी पूरी नहीं होगी, वह है इसकी पृष्ठभूमि से अनवरत उठती एक अंतर्कथा जो मैरी की जुबान से जितनी बयां होती है, उससे कहीं अधिक उसकी नीली आंखों से झांकती है।

पूरा अतीत / सारा दर्द/  पन्नों में है दर्ज  / अंधा, गूंगा, बहरा / पड़ा है निष्प्राण /  कब का मरा / पड़ा रहेगा वह ऐसे ही / जबतक छूती नहीं उसे / कोई उंगली जिंदा /  जबतक ढूंढता नहीं उसे / कोई प्यासा परिंदा / बाहर निकलकर  / जिंदा आंखोँ के गरम घोंसले से/ पड़ा रहेगा वह ऐसे ही !

इस चार – दिवसीय यात्रा के प्रथम और अंतिम दिन तो आने – जाने में बीते। बीच के इस  दो दिनी यात्रानुभव में इस अंतर्कथा की भीतरी दीवार से टकराता रहा और टटोलता रहा रूप – आत्मा  उस सभ्यता की, उस सांस्कृतिक जातीय देश की, जो अभी भी अपने अस्तित्व और पहचान के संकट से जूझ रहा है।

आप भी सोच रहे होंगे कि मैं जैसे किसी मंगल – यात्रा से लौटा हूं जो बार – बार सब जगह यात्रा- यात्रा जपते फिर रहा हूं या आरमेनिया- आरमेनिया का ढिंढोरा पीट रहा हूं तो यह भी साफ करता चलूं कि यह यात्रा मेरे लिए किसी मंगल यात्रा से कम नहीं थी। हलांकि अभी सबसे बड़ा सत्य यह भी है कि आपमें से किसी ने भी मंगल यात्रा तो अभी तक नहीं ही की है और न ही मुझे भी उधर पधारने का मौका मिला है। 
एक बात तो साफ हो गई है मेरी दृष्टि में, वह यह कि अगर भविष्य में पृथ्वी और मंगल की यात्रा के बीच एक को चुनना पड़े तो मैं पृथ्वी की ही यात्रा चुनना श्रेयस्कर समझूंगा। मंगल कितना खूबसूरत है मालूम नहीं लेकिन पृथ्वी सुंदर है और इसकी सुन्दरता के कितने अनुपम आयाम हैं, उनकी थोड़ी- सी झलक मुझे इस यात्रा के दौरान मिली।

“मुझे परवाह नहीं  /   कि उधर नहीं गया मैं ऊपर  /   खूब ऊपर  /   मुझे तो अपनी माँ के पास रहना है,  /   बैठ  /  इसी गोद में  /   देखना है नीला आकाश  /   पैठ  / इसीके अतल जल में  /   ढूंढना है मुझे उस आकाश की /  नीली परछाई  /  जो खो गई है असमय शायद  /   इधर ही कहीं !

जिन्हें होती है, उन्हें होती रहे , पर मुझे यह कहने में कोई संकोच या झिझक नहीं हो रही कि यह मेरी पहली विदेश- यात्रा थी। फिर जीवन में जो पहली बार घटित होता है वह सदैव अमिट रहता है हमारे मन पर, हमारी आत्मा पर। बाद में स्मृति की फडफडाहट हो अथवा मन की कल्पनाशीलता या फिर आत्मा की उड़ान  सबमें “ प्रथम दिवसे...” का वह अस्फुट स्वर, सभी अनुभवों में व्याप्त होता हुआ, समयानुसार किसी न किसी लय – ताल में जीवन के उपसंहारपर्यंत अनिवार बजते रहता है।

दूसरी बात, इस यात्रा पर मैं निकला था एक पर्यटक बनकर, एक मंडली में,  और इसके दौरान मैं पर्यटक से कब यायावर बन गया, पता ही नहीं चला और इसके पूर्ण होने पर लगा , अकेला ही लौट आया। शायद यायावर सदा अकेला ही लौटता है !

यायावर अर्थात् रमता खोजी सत्य का, सौंदर्य का, शिव -तत्व - सर्वाधार का।  यायावर मतलब अस्तित्व के इस विराट् फैलाव को कौतूहल और विस्मयपूर्ण दृष्टि से निहारता एक बाल – सदृश निर्दोष- निर्लिप्त मन। यायावर अर्थात् मधुकर जो वर्ण या गंध से खिंचकर उनकी खोज में मधुर रस -तत्व तक जा पहुंचे और काल के कटु- तिक्त स्वाद से छलनी हो रहे  मनुष्यता के जीभ पर थोड़ी मधुराई बरसा सके।

जीवन के रहस्य- तत्व को यायावरी के बिना समझा नहीं जा सकता, इसकी थोड़ी- सी प्रतीति मुझे इसी यात्रा के दौरान हुई। दृष्टि मिली और दृश्य भी। अदृश्य उतना अदृष्ट नहीं रहा और लगा यहाँ सब कुछ द्रष्टव्य हो सकता है। बस दृष्टि में, बोध में, भाव – दशा में यायावरी – चेतना संचरित होती रहे।

तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि यायावरी सदा अस्तित्व के बाहरी तल से आरंभ होती है क्योंकि हमारी मौजूदगी हमेशा इसी तल पर रहती है। यहीं से वह फिर चेतना की अतल गहराइयों तक भी पहुँचाती है बशर्ते कि “ मैं बहुरिया डूबन डरा” का भाव या स्थिति का बीच में आविर्भाव न हो।

इस यात्रा के दौरान मुझे कई बार महसूस हुआ स्थूल से सूक्ष्म, जड़ से चेतन और दृश्य से अदृश्य की यायावरी में कुछ भी अप्रकट या आछन्न नहीं रह जाता-

ये अराराट पहाड़ ही बताएंगे /  कितने ऊंचे हैं उनके सपने /  चट्टानों से महसूस होगा  /  उनका साहस या संकल्प  /  इन पर उगी वो अनजान दूब – घास  /  उमग- उमग कहेगी /   कितना हरा है अभी भी उनका आत्मविश्वास  /   चलकर कहेगी  हवा – बतास /  उनमें कितना है जीवन या सांसें हैं शेष / आकाश नहीं / यह झील सेवान बोल उठेगा  /  कैसे हैं यहाँ के लोग /  और कैसा है यह देश  /  और यह फैली - पसरी बर्फ मीलों तक  /  बताएगी अवश्य  /  उनके लिए क्या है जरूरी / उजला या सफेद होना हृदय का /  या ठंडा होना आत्मा का !

वह पहला दिन, पहला क्षण ! जब हमारी मंडली येरेवान हवाई अड्डे पर उतरी, लगा एक अलग ही संसार प्रकट हो गया। रोजमर्रा के काम - काज और व्यक्तिगत जीवन का दवाब झेलता बोझिल मन जैसे एकाएक भार - मुक्त हो गया था। किसी के मुखमंडल पर कोई तनाव नहीं , कोई थकान नहीं बल्कि उस पर  हर्ष और उत्सुकता की मुक्त आभा खेल रही थी ।

मुंबई की 32 डिग्री से गिरते शारजाह के 22 डिग्री से गुजरते हुए  2 डिग्री तक आया हुआ तापमान शरीर के लिए थोडी असहजता पैदा कर रहा था लेकिन मन में बढती जा रही पुलक इस असहजता को उभरने नहीं दे रही थी। नये लोग, नई भाषा, नयी मिट्टी, नया देश। इस नयापन में एक प्राचीनता भी छिपी थी।

हमें बताया गया यह कितना प्राचीन देश है और इस  येरेवान शहर ने तो 2800 वर्ष पूरे कर लिए हैं। हमारे यहां जब उत्तरवैदिक युग का अंतिम चरण चल रहा था और कृषि के विकास के साथ- साथ शहरीकरण की नींव पड़ रही थी तथा राज्य, राजा और प्रजा की अवधारणा ठोस रूप ले रही थी, उसी कालखंड में येरेवान उस विशाल भू – भाग में एक विशिष्ट शहरी सभ्यता का झंडा अपने कंधे पर लिए आगे बढ रहा था। इस सभ्यता के चरमोत्कर्ष काल में कैस्पियन सागर से भूमध्यसागर तक और काला सागर से ईरान की एक बड़ी झील तक लगभग तीस हजार वर्ग किलोमीटर तक इस देश की सीमा फैली हुई थी। कालांतर में, बैजेंटाइन और फारस शक्ति की साम्राज्यवादी भूख और संघर्ष का शिकार होकर यह देश अब अपने मूल भू – भाग के सिर्फ दस प्रतिशत हिस्से में रह गया। प्रथम विश्वयुद्ध के काल में तुर्की ने भी यहाँ के लोगों का सामूहिक संहार किया। दुखद पहलू यह है कि भारत ने आजतक तुर्की के इस कारनामे को “ जीनोसाइड” नहीं माना है, बल्कि इसे बस एक “ दुखांत” कहकर पल्ला झाड़ता रहा है । परन्तु यहाँ के लोगों में अभी भी उम्मीद है कि भारत जैसा बड़ा और उनके ही जैसा प्राचीन देश एक दिन इसे “ जीनोसाइड “ अवश्य मान लेगा। इस सुनियोजित सामूहिक नर – संहार का दंश अभी भी यहाँ के लोगों के मन में ताजा है। 
यही नहीं, पवित्र माना जानेवाला “ अराराट पर्वत” जो आर्मेनियाई सभ्यता का अभिन्न हिस्सा रहा है , ठीक वैसे ही जैसे हिमालय हमारी जातीय अस्मिता के लिए, भी अब आर्मेनिया नहीं,  तुर्की का हिस्सा है। यह बिल्कुल ऐसा ही है जैसे हमारा कैलाश या मानसरोवर हमारी जातीय स्मृति की धरोहर होते हुए भी हमारा नहीं रहा। इतिहास हमेशा भूगोल को विद्रूप करता रहा है और इसकी विद्रूपता की कीमत हमें अपनी जातीय – सांस्कृतिक अस्तित्व के कुछ हिस्से  की बलि देकर चुकानी पड़ती है । शिव के सामने अनुशासित  नंदी के बदले मदांध ड्रैगन का जो तांडव जारी है, उसे क्या कोई भारतीय नजरअंदाज कर सकता है ?

एक और समस्या जो सोवियत संघ के विघटन के बाद इस देश का सर दर्द बनी है वह है पडोसी देश अजरबैजान  के साथ पूर्वी हिस्से में सीमा- विवाद । स्टालिन ने कभी कहा था यह क्षेत्र अजरबैजान का है और तभी से अजरबैजान इसे अपना हिस्सा मानता रहा है। मजे की बात यह है कि इस विवादित क्षेत्र में आर्मेनियाई मूल के लोग सर्वाधिक हैं । ध्यान रहे, यहाँ  आर्मेनियाई मूल के लोग कहने का मतलब किसी धर्म- विशेष के मानने वाले से बिल्कुल नहीं है। यह बात अलग है कि आर्मेनिया मूल के लोग मुख्यतः इसाई हैं। तो आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच भी एक “ कश्मीर समस्या” है और इसका भारी मूल्य इस देश को चुकाना पड़ रहा है । मैरी ने बताया – यहाँ हरेक परिवार से प्रत्येक युवक अपनी जवानी का कम से कम दो साल सेना में अपनी सेवा देते हैं जो दैत्याकार देशों से घिरे इस देश की सुरक्षा के लिए निहायत जरूरी है।

इस्लाम के नाम पर उठी आक्रांता बर्बर जातियों ने जो पूर्व मध्यकाल से जो  दूसरे धर्म या नस्ल के लोगों को जड़विहीन करना शुरू किया उनमें  जोराष्ट्रियन या पारसी, आर्मेनियाई, यहूदी, यजीदी, कुर्द आदि के अलावा हिन्दू थे। यहूदी और हिन्दू छोड़कर बाकी सभी या तो अपनी भूमि से निर्वासित होकर जीवित हैं या अपनी ही जमीन पर सिमटकर – सिकुड़कर अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। आर्मेनिया ने यजीदियों को आश्रय दिया है, जिस तरह भारत ने पारसी और यहूदियों को दिया है । शरण वही दे सकता है जिसकी जड़ें गहरी हैं और अपनी जमीन में गड़ी हैं। आर्मेनिया और भारत इस बात के अद्भुत उदाहरण हैं ।

कभी-कभी यह लगता है अगर मनुष्यता के इतिहास में राजनीति का विकास सिर्फ “ राज्य “ तक ही रुक गया होता तो दुनिया का स्वरूप और बेहतर एवं साफ होता। “ राज्य से साम्राज्य” तक के लंबे सफर में कितना खून बहा, कितनी संस्कृति - सभ्यताएं मिटीं, मानवीय चेतना के विकास की परम संभावना किस सीमा तक खत्म हुई, इसका अनुमान लगाना लगभग असंभव  है । मुट्ठी- भर बर्बर जातियों ने धर्म के जनजातीय चरित्र का लाभ लेकर जो पूरे विश्व को एक लंबे कालखंड तक अस्थिर रखा और महाविनाश की तरफ धकेला उससे जो भी देश सर्वाधिक प्रभावित हुए, उनमें से भारत के साथ – साथ आरमेनिया भी है।

लेकिन यह बात भी जानने लायक है तमाम झटकों और नोंच-पटक के बावजूद आज जहां भारत मानवीय मूल्य, परंपरा, आधुनिकता और विकास के बीच समन्वय बिठाकर आत्मविश्वासपूर्वक आगे बढ रहा है वहीं इतना ही पुराना राष्ट्र आरमेनिया अस्तित्व और पहचान के संकट झेल रहा है ।

मैरी बताती है कि यहाँ की जनसंख्या बढने के बजाय घटी है। मंडली के किसी साथी ने उसे इस मामले में  भारत के एक पड़ोसी देश से प्रेरणा लेने कहा था जहाँ बच्चे खुदा के बगीचे के फूल माने जाते हैं और फूल जितना बढ़ेंगे , बगीचे उतने ही महकेंगे और बाद में बगीचे में डालने के लिए पानी नहीं बचेगा तब एक अलग महक उठेगी इस बाग से नहीं, बंदूक की नलियों से, फूलों की नहीं, बारूद की, तब उन्हें रोटी नहीं पसंद होगी, उन्हें पसंद होगा काफिरों का खून, और एक दिन पूरी दुनिया एक झंडे के तले हाथ फैलाए निस्सहाय खड़ी रहेगी और वह मुल्क इस झंडे का एकमात्र ‘ खानदानी ‘ दावेदार होगा। पूरी पृथ्वी पर सब एक ही धर्म को मानेंगे, बाकी सब अंडू- पंडू गायब हो जाएंगे। एक ही भाषा रहेगी जो खुदा की भाषा रहेगी बाकी सब अपवित्र भाषाएं उन्हीं के साथ  विदा हो जाएंगी। मैने देखा ये सुनकर मैरी पहले तो मुस्कुराई लेकिन बाद में डर गई थी। वह जानती थी भारत के उस पडोसी देश ने आरमेनिया को देश की भी मान्यता नहीं दी है।

मैरी, गोरी – चिट्टी,  मध्यम कद की कनकछडी - सी कृशकाय लड़की। काकेशियाई सौंदर्य और  संस्कार की जीवंत इकाई।  आवाज में गजब का आकर्षण । तगडा हास्य – बोध । उसे जब भी देखा, हमेशा मोटे - गरम कपडों में लिपटी। उम्र पूछने का साहस नहीं हुआ। लड़कियों की उम्र पूछकर अपने भद्रपुरुष के चोले  को गंवाने का साहस आम तौर पर किसी देश के पुरूष में नहीं पाया जाता। फिर भी मंडली में से किसी ने पूछ ही दिय़ा। पता चला, वह पच्चीस की है, अविवाहित है, अपने मां – बाप के साथ रह रही है। उसे योग्य वर की भी तलाश है।

मैरी ने बताया था कि यहाँ भारत की तरह ही लोग माता – पिता के साथ रहते हैं, उन्हें अनाथालय में नहीं डालते।  विवाह के बाद लड़कियां अपने सास – ससुर के घर में रहती हैं जैसा शायद गोरे लोगों के देश में नहीं होता। यहीं नहीं एक मित्र ने जब उसे भारत आने को कहा तो मैरी का जवाब साफ था – हमारे मां- बाप  लडकियों को यहाँ से बाहर अकेले नहीं जाने देते। यह सुनकर मुझे देश याद आ गया जहाँ लडकियों को अकेले बाहर जाने पर मना करते हैं। यह अच्छा है या बुरा, यहाँ मेरी चिंता यह नहीं है। मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं प्राचीन समाज के अपने संस्कार और टैबूज होते हैं जिनसे बाहर आना उनके लिए इतना आसान नहीं होता जैसा कि इन दोनों देशों में हम देख रहे हैं ।

यात्रा की शुरुआत में मुझे जो एक बात खलती रही, वह थी, लोगों के चेहरे पर फैली उदासी, खोया हुआ- सा भाव और शायद कुछ – कुछ लुटे – पिटे की - सी  निस्सहायता की धुंधली छवि। यहाँ लोगों को मुस्कुराते कम देखा था। निश्चित रूप से मैरी इसका अपवाद थी शायद इसलिए भी कि “ मुस्कुराना, जौली रहना “ उसके गाइड के पेशे में एक जरूरी तत्व था। फिर भी मैंने देखा था, जीनोसाइड टावर और स्मारक के बारे में बताते वक्त उसकी आंखों में भी पानी के साथ – साथ वही उदासी भर आई थी जो यहाँ नवंबर के महीने में चारों तरफ फैली रहती है, जब पतझड़ के विदाईकाल में पूरा शहर एक अजीब-  सी ठंढी उदासी ओढ़े लगभग ठूंठ- सा प्रतीत होता है।

लेकिन उदासी की यह प्रतीति ज्यादा  देर टिकी नहीं। दूसरे दिन शाम को पूरी मंडली झूम उठी “ अराराट “ की फैक्ट्री स्थित बार में। एक साथ एक सौ बीस लोग अपनी – अपनी कुर्सी पर जैसे ही आसीन हुए, हरेक के सामने दो -दो प्याले रखे थे। उनमें पच्चीस- पच्चीस मिली लाल ‘ सोमरस’। मेरे बगल में बैठा बजरंगबली का भक्त एक मित्र घबरा रहा था। “ मय – साकी छुऔ नहीं, कप गह्यौ नहीं हाथ” की झलक उसके चेहरे पर स्पष्ट थी। किसी ने बताया भी, “डरो मत, लाल तो बजरंग का पसंदीदा कलर है”। इससे उस धार्मिक मित्र को थोड़ा बल मिला था।

 वहाँ की सोमरस विशेषज्ञा बाला ने डेमो में बताया कि “ अराराट”  उजले अंगूर का बनता है। इसकी ऐतिहासिक महिमा ऐसी है कि दुनिया के बडे बडे नेता इसे पसंद करते आए हैं। खासकर विंस्टन चर्चिल को यह बहुत पसंद था। वह साल में 400 लीटर अराराट पी जाता था। सुनकर लोग हंस पडे थे। लेकिन मुझे लगा था शायद यहाँ भी कोई चर्चिल पैदा होता तो ये लोग धक्के नहीं खाते। लोग अराराट पीकर ही शायद सारे धक्के पीने में कामयाब हो पाए हैं। यहाँ अराराट सचमुच जीवन का सोमरस है।

मुझे उस समय सचमुच बहुत ताज्जुब हुआ जब अराराट के नशे की चढती ढलान पर लोग झूमते आगे बढने लगे, कुर्सियां हिलने लगीं और तब गाना शुरू हुआ, “ आवारा हूं ..गर्दिश में हूं.., मेरा जूता है जापानी, ये पतलून.., एक के बाद एक हिन्दी गाने, ...गोरों की न कालों की, दुनिया है दिल वालों की..पौने घंटे के इस मनोरंजक दौर में लगा, भारत सचमुच महान देश है, फिल्मी गानों के रूप में ही सही, भारत यहाँ भी इनके कंठों से गाता है । अभी तक सुना – पढ़ा था, आज देखा तो गौरवपूर्ण अचंभा हुआ।

पतझड़ की उदासी जैसे विदा हो गई थी। वहाँ का उत्सवधर्मी रंग अब धीरे - धीरे-धीरे हमारे मन – मस्तिष्क में घुल रहा था।  
एक भारतीय रेस्ट्रां से रात्रि- भोजन कर हमलोग जब बस से होटल लौटते थे, सिगरेट की वही गंध फैली रहती थी हमेशा, रेस्तरां में, बस में, होटल की लाबी , यहाँ तक कि लिफ्ट में और इसके सामने गैलरी में भी।  एक धूमपान विरोधी  मित्र ने व्यंग्यवश कहा था कि यहाँ यह सिगरेट नहीं , अगरबत्ती है समझो, किसी मंदिर में  आठों पहर सुगंधि बिखेरता हुआ। शास्त्रों में शरीर को भी तो मंदिर कहा गया है, इसके भीतर अधिष्ठित देवता या ईश्वर को हमेशा अगरबत्ती दिखाना, इसमें शास्रबाह्य क्या है!


लेकिन मुझे लगता है यहाँ के मौसम और जलवायु के अनुसार धूमपान एक जरुरत है, लत नहीं, पानी और भोजन की तरह। वैसे ही भोजन के मामले में लगा, ये लोग हमारी तरह घास – पात खाकर जीवित नहीं रह सकते। इनके लिए बडे पशुओं का रेड मीट खाना भी एक जरुरत है जिनमें धार्मिक रूप से धुर विरोधी जानवर गाय और सूअर भी बखूबी शामिल हैं। खान – पान में हिन्दू – इस्लाम का इतना अच्छा समन्वय गंगा – जमुनी तहजीब में भी नहीं देखा !

मैरी की आंखों में उस समय मैंने गजब का आत्मविश्वास देखा था जब वह हमें “ मदर आर्मेनिया “ की ऊंची प्रतिमा दिखाते हुए कह रह थी,” यह हमारी जाति की मातृत्व शक्ति और करुणा की प्रतीक है”। मेरे बगल में खड़ा एक सनातनी मित्र उसके सामने हाथ जोड़कर आंखें बंद किए बुदबुदाने लगे, “ या देवी सर्वभूतेषु.....नमः”। यह देखकर मैरी मुझे पूछ रही थी,” यह क्या बोल रहा है ?” मैंने बताया तो वह हंसने लगी और उसने एक बड़ी बात कह दी, “ दैट्स ह्वाय इंडिया इज अलायव इवन टुडे”। मैरी ने वह कहानी भी सुनाई कि किस तरह यहाँ से स्तालिन की प्रतिमा हटाकर मदर आर्मेनिया की स्थापना की गई । यह क्रूरता और दमन पर मातृत्व शक्ति की जीत का प्रतीक बन गई।

मैरी की बातों से लगता था आरमेनियाई लोगों ने मजबूरी में सोवियत संघ का हिस्सा बनना स्वीकार किया था। इसलिए सोवियत से मुक्ति के बाद इस देश में सोवियत की विरासत से किनारा कर लिया । वह जब सोवियत संघ का नाम लेती थी, थोड़ी रुक जाती थी शायद सोचते हुए कि दु: स्वप्न साझा करना उचित है या नहीं, वो भी इस  परदेशी मंडली से।

तीसरा दिन, दिन साफ था। चौडी साफ सुथरी सड़क के दाहिने लेन से हमारी बस दौडी जा रही थी। हम लगातार  त्साघकात्झोर की ओर बढते जा रहे थे। बस से बाहर आने पर पता चला तापमान  -2 डिग्री तक गिर आया था। सामने  त्साघकात्झोर का विशाल पर्वतीय विस्तार अपने सम्पूर्ण वैभव और चरम सौंदर्य के साथ जैसे हमारी प्रतीक्षा में था। हमलोग मानो एक अछूते स्वप्नलोक में थे जहाँ से कोई वापस आना नहीं चाहता।

सर्वाधिक रोमांच और  आनंद का एहसास तब होना शुरू हुआ जब हमलोग सेवान झील की तरफ बढने लगे। टेढी – मेंढी ढलानवाली सड़कें, दोनों तरफ पहाड़ियां, उन पर कहीं- कहीं बर्फ की सफेद चादर और ऊपर रुई – से उजले बादल, पता ही नहीं चलता था कि बादल है या पहाड़। मैं इस सौंदर्य से इतना अभिभूत हो गया कि कैमरा बगल में रख दिया।

झील सेवान पहुँचते ही नज़ारे में और कई पहलू जुड गए। वहाँ स्थित एक अति प्राचीन चर्च देखने के लिए लगभग ढाई सौ सीढियां चढ़नी पड़ी। चर्च के बारे में बताते हुए मैरी थोड़ी भावुक हो गई। वह कह रही थी, “ हमारे देश ने ग्रीक – रोमन से पहले ही जीसस को अपनाया था। आर्मेनियाई चर्च, रोम के चर्च  से पृथक् अस्तित्व रखता है। मैरी ने एक और बात बताई जो हम सब के लिए अबतक अनसुनी थी, वह यह कि यहाँ  क्रिसमस 25 दिसम्बर नहीं बल्कि 6 जनवरी को मनाया जाता है।

आर्मेनियाई चर्च की एक शाखा भारत में मलाबार इलाके में भी है। यह बताते हुए मैरी जितनी खुश हो रही थी, यह सुनते हुए हमलोग उतने ही गौरवान्वित हो रहे थे कि धन्य है यह देश भारत जहाँ इस अति अल्पसंख्यक इसाई शाखा का भी एक चर्च है। तत्क्षण मुझे याद आया कि इस्लाम की पहली मस्जिद भी कहीं और नहीं, बल्कि इसी इलाके में बनी थी। भारत की इसी सर्वग्राही और बरगदी  स्वभाव को प्रसाद ने वाणी दी है, “ जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा “।

...परन्तु यहाँ अभी क्षितिज  को किसी सहारे की खोज नहीं थी। विस्तृत नीले आसमान के नीचे विशाल नीला झील, तीन तरफ से बर्फ से ढंकी नैसर्गिक पहाड़ियां, उनसे टकराते सफेद बादल, “ महामेघ का गरजना यहाँ नहीं था, न ही भिडने के लिए कोई झंझानिल था”। ऊपर उडते श्वेतवर्ण पक्षी को छोड़कर चारों तरफ गहन शांति और निस्तब्ध ठहराव था । मैरी ने बताया था यह पक्षी मूल रूप से यहीं पाया जाता है। लोग यहाँ के अद्भुत और अलौकिक सौंदर्य का नैसर्गिक पसार देखकर जहाँ कैमरे में व्यस्त थे, वहीं मैं इसे सामने से निहारता कहीँ निर्वाक् खोता जा रहा था। चर्च के चारों तरफ का वह विहंगम दृश्य, शब्दों में समा नहीं सकता, और अगर समा भी जाए तो उन्हें कहा नहीं जा सकता। 
यात्रा की अंतिम शाम । शाम  ठंढी और थकी – थकी – सी थी।  लेकिन मंडली के चेहरे पर तृप्ति और संतोष की चमक स्पष्ट थी।


हमारी बस होटल के सामने रुकी।  एक सहचर मित्र ने उद्घोषणा की, “मित्रो,  मैरी और उसकी टीम ने जो अद्भुत सेवा की है, उसके बदले हमारा कुछ तो फ़र्ज बनता है.....”। अगली सीट पर बैठा मैं देख रहा था, ‘ टिप्स’  ‘ गिफ्ट ‘ ‘ द्रम ‘ और ‘ डालर’ सुनकर ड्राईवर उद्घोषणा के हरेक शब्द पर कान लगाए हुए था। शायद वह इसे समझने की कोशिश कर रहा था कि अचानक उसकी आँखें चमक उठीं। शायद वह समझ चुका था। इन चार दिनों से उसे कभी किसी ने हंसते देखा होगा, मैंने तो  नहीं देखा था। परन्तु  अभी वह मुस्कुराते हुए मैरी की तरफ देख रहा था। मैरी भी खुश थी। ड्राइवर की आंखों की चमक बढती ही जा रही थी।

अभी घर पहुँच गया हूं। मैरी की आवाज़ और बस – ड्राइवर की आंखों की चमक अभी भी मेरा पीछा कर रही है। □□□















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