पहलू पूरे पन्द्रह साल बाद आज गाँव लौटा है। आठ - नौ साल का रहा होगा जब उसे गाँव छोड़कर जाना पड़ा था। कहाँ गया किसी को पता नहीं था। कौन था जो पता भी करता ! अम्मी बचपन में गुजर गई थी और अब्बू ...। ननिहाल में भी कोई रहा नहीं था। आज गाँव के मस्जिद - टोला में पीपल के पेड़ के नीचे पहलू को छंगुरीदास के साथ खड़े देखकर लोग अचंभित हैं । सबसे ज्यादा अचंभित है अच्छे मियाँ । पीपल के नीचे प्रतिष्ठित शिवलिंग है। कुछ महिलाएँ नहा - धुलाकर उस पर जल चढ़ाने आई हैं यादव – टोली से। एक बूढ़ी पूछ रही है - “ इ सदरिया का बेटा है ? टूअर - टापर ... च् च् च् ...। वह बिल्कुल करीब आकर उसे थोड़ी देर निहारती है और कुछ कहती हुई उलटकर अपनी राह पकड़ लेती है। परन्तु अच्छे मियाँ को अभी भी भरोसा नहीं हो रहा है । होगा भी कैसे ? “पहला है यह ? सदरी का बेटा ? यह अभी किधर से उग आया छंगुरी ?” अच्छे मियाँ के मुँह से ‘छंगुरी’ सुनकर छंगुरीदास अंदर ही अंदर कुढ़ गया था। “ तुम्हारा फोकनिया - डोकनिया सब ‘बेरथ’ गया अच्छे , उमिर आ गई , तमीज नहीं आई ?” छंगुरीदास अच्छे – अच्छों को नहीं छोड़ता। वो जमाना गया जब लोग उसे छंगुरी भी नहीं
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