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Showing posts from March, 2021

'विदापत नाच' में लोक - शास्त्र के द्वंद्व का समाजशास्त्रीय पक्ष

रेणु की रचनाशीलता में तीन तत्व एक साथ हमेशा मौजूद दिखाई पड़ते हैं - तीव्र अनुभूति , पैनी दृष्टि और अभिव्यक्ति की आतुरता। उसमें अनुभूति की जो तीव्रता है वह कवि की है, दृष्टि का जो पैनापन है वह चिंतक का है और  जो अभिव्यक्ति की कशमकश है वह कथाकार की है।  यही   वज़ह   है   कि   वे   अपने लिए जो लेखन -   क्षेत्र   या   विषय चुनते हैं, उनके   लिए   अलग   शिल्प   गढ़ते   हैं    या   कहें   कि अलग   शिल्प   में रचना को   गढ़ते   हैं ताकि उस अनुभूति, दृष्टि और अभिव्यक्ति को एक साथ साधा जा सके। वे जब रिपोर्ताज   भी   लिखते   हैं   तो   उनकी नैसर्गिक किस्सागोई वहाँ   भी   मौजूद   रहती है।   इससे   उनके   रिपोर्ताज   भी अपनी रोचकता में एक   बहुवर्णी   क्षितिज   लेकर बिल्कुल नए अंदाज और अलग कलेवर में प्रकट होते हैं और अपनी शैली तथा   शिल्प   में भी सबसे भिन्न उत्कर्ष रचते हैं । इन   रिपोर्ताज   में रेणु   की   कहानियों   के   बीज भी यत्र- तत्र   बिखरे   देखे जा   सकते   हैं । रेणु के  सभी अठारह - उन्नीस रिपोर्ताज जो उपलब्ध हैं, वे विषय, प्रस्तुति और शैली के हिसाब से एक से बढ़कर एक हैं और रेणु

मैं कविता नहीं लिखता/ कविता

मैं कविता नहीं  जिंदगी की महीन - महीन बातें लिखता हूँ  वे महीन बातें  जिनकी बारीकियों में बुने जाते हैं  हमारे दिन  और हमारी रातें  मैं उन्हीं दिनों उन्हीं रातों की बातें लिखता हूँ  मैं कविता नहीं लिखता 

कुरंग की सुरंग से

कुरंग की सुरंग से सुरंगें सामान्यतया पहाड़ी इलाकों में बनाई जाती हैं। पहाड़ की ऊंचाई और उसकी असम - कठोर संरचना के ऊपर सीधी सपाट सड़कें बनाना आसान नहीं। ऊंचाई से गिरने का खतरा भी अलग से बना ही रहता है । इस ऊंचाई के सिर से होकर गुजरना बिल्कुल चुनौतीपूर्ण है। तो आदमी ने सोचा कि बेहतर है कि पहाड़ में छेद किया जाए। छेद करके पहाड़ के पेट से एक आरामदेह रास्ता बनाना थोड़ा कम कठिन है और ज्यादा आश्वस्तिकारी भी। आश्वस्ति इस बात की कि ऊंचाई पर चलने का जोखिम तब बिल्कुल नहीं रहता। इसी से अभिप्रेत होकर सुरंग बनाने का विचार मनुष्य के मन में आया होगा ऐसा मुझे लगता है ।  परन्तु पहाड़ में छेद करके सुरंग बनाना और आदमी में छिद्रान्वेषण करना एक ही प्रवृत्ति के दो पहलू हैं । मगर मनुष्य और पहाड़ दो अलग-अलग बातें हैं । पहाड़ में छेद नहीं होता लेकिन मनुष्य में कोई न कोई छेद अवश्य होता है । छिद्र के बिना मनुष्य की कल्पना मुश्किल है ।  यह छिद्र शारीरिक स्तर पर ही नहीं होता बल्कि मानसिक या चारित्रिक ढांचे में भी हुआ करता है। शारीरिक स्तर के छिद्र ढूंढने नहीं पड़ते। जो छिद्र ढूंढने पड़ते हैं वे सूक्ष्म से सूक्ष्मतर