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Showing posts from May, 2020

पत्थर और मछलियाँ / कविता / दिलीप दर्श

पत्थर जब लिख रहे थे   पहाड़ों का इतिहास  पानी का इतिहास लिख रहीं थीं  मछलियाँ उस वक्त  पहाड़ों से टूटकर पत्थर  बहुत पहले ही अलग हो गए थे  मछलियाँ अभी भी तैर रही थीं  पानी में  पहाड़ों का अब कोई दबाव नहीं था  पत्थरों के अस्तित्व पर  कोई छाया नहीं थी पहाड़ों के खौफ की  उनकी स्मृतियों पर भी पत्थर लिख सके  पहाडों के भीतर गुफाओं की  सभी पथरीली सच्चाईयां  जिनसे निर्मित हुई थीं ऊंचाईयां  पहाड़ों की पत्थर लिख सके लोग डरें नहीं पहाड़ की ऊंचाईयों से  न ही पालें चोटियाँ  अपने सपनों में  पत्थर बता सके  ऊंचाई का भूगोल कभी ऊंचाई के इतिहास को माफ नहीं करता वहीं मछलियाँ  पानी के चौतरफा दबाव में नदी, बादल या समुंदर के विरुद्ध  इतिहास में कुछ नहीं लिख सकीं मछलियाँ पानी से बाहर नहीं आ सकीं  किसी भी पन्ने में कभी वे पानी से बाहर आ ही नहीं सकतीं  इसलिये पानी में रहकर पानी का इतिहास नहीं लिख सकतीं  पत्थरों ने यह भी लिखा है पहाड़ों के इतिहास में कहीं    

शोरगुल शोरगुल / कविता

शोरगुल शोरगुल शोरगुल  भोर गुल भोर गुल भोर गुल  कवि कुल कवि कुल कवि कुल खुल खुल बुलबुल बुलबुल  चल चल हलचल चुलबुल मह मह गुल गुल उलफुल तिकड़म शिखरं मकरं मुखरं दलितं अधरमं ज्वलितं उदरं फलितं स्वप्नं गलितं मधुरम्  अंडं पिंडं अखिल ब्रहमांडं चंडं मुडं मल मृद्भांडं  बल छल - छिद्र छपास झकास  केश कुटिल कंघी कपास  भोग योग अनुलोम विलोम  माटी मानुष ममता मोम  घोर जोर चितचोर लोर मारक क्षारक पोर - पोर  वाम राम सब ताम - झाम साथ माथ हर हाथ जाम जनता मनता वोट चोट  लाल लंगोट भर अखरोट  दीन हीन जन धर्म- धुरीन छीन - झपट कपटी कुलीन कब्ज नब्ज फल - सब्जबाग आग नाग दुख - दर्द दाग सत्ता पत्ता बित्ता पाग नवल धवल मुख कोयल काग जात भात नव प्रात रात घात लात नवजात गात साठ - गांठ कर पहर आठ पार - पार कर  सहज साठ पैठ घाट तल बैठ बाट बोल बोल बकलोल भाट चिकन मटन भर प्लेट सेट तोड़  बेंत फिर फोड़ पेट बत्ती गुल छत्ती धुल  कवि कुल कुल कुल कुल कुल ...

क्या आप मुझे सुन पा रहे हैं ? / व्यंग्य- विनोद

मार्च का अंतिम सप्ताह रहा होगा। दिन कौन - सा था याद नहीं हैै मुझे। ऐसे भी कौन सा अच्छा या सुनहरा दिन था उन दिनों जो याद भी रह जाए ? अगर याद भी रह जाए तो मेरी रुचि दिन के सुनहरेपन में रहती है न कि उस सुनहरेपन को चादर की तरह ओढ़े उस दिन में। इसलिए मुझे याद भी सुनहरापन ही रहता है, दिन नहीं । ..तो ऐसा कोई सुनहरापन था नहीं उन दिनों, हाँ, कुछ धूसरापन जरूर था। शाम का धुंधलका जो बालकनी में पसर रहा था वह इस धूसरेपन को और गहरा कर रहा था। इतना गहरा कि धीरे - धीरे अंधेरा छाने लगा था। दिन - भर की उदासी भी इकट्ठी होते - होते मन को बोझिल करने लगी तो स्वाभाविक था कि मन को थोड़ा हल्का करने की जुगत करता। मन भी तो आखिर एक सीमा तक ही बोझिल रह सकता है न ? सीमा से बाहर मन के बोझिल होने का मतलब है मन बिल्कुल बैठ जाएगा, ऐसा भी बैठ जाएगा कि फिर उठ नहीं पाएगा और मन अगर उठ नहीं पाए तो आप समझ सकते हैं कि व्यक्ति कैसे उठ पाएगा ? व्यक्ति भी तो आखिर मन की ही साकार अभिव्यक्ति है न ? और ऊपर उठना ( मेरा मतलब उतना ऊपर से नहीं कि "दिवंगत आत्मा को शांति मिले" वाली कोई बात हो) तो सब व्यक्ति की चरम इच्छा और

भारत यायावर की कविता / ऐसा कुछ भी तय नहीं था

न तूफ़ान का आना तय था न पेड़ का गिरना न मेरे मिट्टी के मकान का पूरी तरह धँस जाना न यह तय था कि उस मकान को छोड़कर हम बाहर आएँगे और उसे इस तरह भूल जाएँगे भूल जाएँगे कि जेठ की दोपहरी में उसकी धरन में रस्सी बाँधकर झूला झूलने वाले हम मिट्टी के मलबे से उस धरन को निकालकर बेच देंगे तय कुछ भी नहीं था फिर भी हमने बचपन के जर्जर उस मकान को छोड़ दिया उस मकान की दीवारों में रह रहे चूहों ने भी उसे छोड़ दिया रोज आँगन में न जाने कहाँ-कहाँ से आ जाने वाले कौओं ने भी आना छोड़ दिया छ्प्पर में घोंसला बना कर रहने वाली गौरैय्यों का भी कहीं अता-पता नहीं आसपास मँडराने वाले जूठन पर पड़ने वाले कुत्तों को भी अब वहाँ कोई नहीं देखता मकान जो पहले हमारा घर था अब बचपन का सिर्फ़ एक बूढ़ा मकान था धूप-बताश-बारिश में अकेला रह गया पिछवाड़े में खड़ा वह आम का पेड़ जिसे हमारे दादा ने लगाया था वही साथी रहा अकेला गर्मियों की एक रात आँधी-तूफ़ान पेड़ और मकान दोनों धराशाई हो गए दोनों ने अपनी बरसों की मित्रता निभाई पर निभा न पाए हम जबकि ऎसा कुछ भी तय नहीं था! (रचनाकाल : 19

मनी -प्लांट / कविता

असमय झड़ने लगे हैं  होठों से हंसी के फूल पृथ्वी के नीले रंग को निगल रही है कोई धूसर उदासी  पसर रही है अजगर - सी आमेजन के जंगलों से सवाना की घास पर बह रही है वही मिसिसिपी में भी  पहुँच रही है वोल्गा से गंगा तक  ह्वांगहो का पानी भी उदास है मुस्कुरा रहा है वह  किनारे खड़ा एक मुनाफा -पुरुष वह नहीं मानता - पृथ्वीवासी के उदास या लहूलुहान पैरों से उदास हो जाती हैं नदियाँ या हंसी के फूल असमय झड़ने लगते हैं मुस्कुराहट बता रही है - सब कुछ ठीक वैसा ही चल रहा है  जैसा वह चाहता था दुनिया रोज बन रही है  मुस्कुराहट का कब्रिस्तान  और अकेले उसकी मुस्कुराहट मोटी हो रही है रोज थोड़ी -थोड़ी  मृदा - विज्ञानियों ने दावा किया है कि इस कब्रिस्तान की मिट्टी  सबसे उपयुक्त और सस्ती हो सकती है  मनी प्लांट उगाने के लिए  मौसम - वैज्ञानिकों का अनुमान है- मुनाफे की पुष्प-वृष्टि के लिए  सबसे उपयुक्त मौसम है यह    उसके विषाणु - विज्ञानियों ने देख लिया है विषाणु के नागरिकता - काॅलम में  देश या रा

बामयान बनाम एक निर्वासित देश

ईश्वर पर तुमने  कुछ क्यों नहीं कहा बुद्ध  ? उस वक्त भी तो ईश्वर ही था  मनुष्यता का सबसे बड़ा मुद्दा लोग ईश्वर के पक्ष में थे या विपक्ष में   ईश्वर पर कोई चुप नहीं थे   सभी मुखर थे उतने ही  जितने मौन थे तुम अकेले  ईश्वर पर जिसने भी कुछ कहा  वह ईश्वर - तुल्य हो गया या देवता  परन्तु मौन रहे तुम  बने रहे मनुष्य, खड़े रहे  मनुष्य के बीच और मनुष्य के साथ तुमने क्यों चुना  ईश्वर या देवता के बदले मनुष्य  स्वर्ग के बदले यह पृथ्वी, यह जगत्  ब्रह्म- ज्योति के बदले तुम  लौ - मुक्त दीए के भेद खोलते रहे रोशनी पर सिर्फ मुस्कुराए और आजीवन अंधेरे पर ही बोलते रहे  तुमने वह सब क्यों चुना जिनसे मनुष्यता की कोई विश - लिस्ट नहीं बन सकती ? दुख था, लोग कहाँ थे दुखी  ? लाखों में सिर्फ तुम एक हुए थे दुखी  शेष सभी तो व्यस्त थे  वे मस्त थे  अपनी - अपनी पनही - पगड़ी में  अपने -अपने देवता या ईश्वर के साथ सभी खुश थे  जो खुश नहीं थे वे  अपनी नाराजगी को नियति समझ देवता या ईश्वर के पैरों पर लोटते थे खुशियों के लिए उनके चरणोदक भी घोंटते थे

मेरी आर्मेनिया यात्रा : एक अन्तर्कथा / दिलीप दर्श

...आज मेरी आर्मेनिया- यात्रा पूरी हुई।  अब लिखने बैठा हूं तो इसका वृतांत भी पूरा हो ही जाएगा। इसमें बस ए क चीज शायद कभी पूरी नहीं होगी, वह है इसकी पृष्ठभूमि से अनवरत उठती एक अंतर्कथा जो मैरी की जुबान से जितनी बयां होती है, उससे कहीं अधिक उसकी नीली आंखों से झांकती है। पूरा अतीत / सारा दर्द/  पन्नों में है दर्ज  / अंधा, गूंगा, बहरा / पड़ा है निष्प्राण /  कब का मरा / पड़ा रहेगा वह ऐसे ही / जबतक छूती नहीं उसे / कोई उंगली जिंदा /  जबतक ढूंढता नहीं उसे / कोई प्यासा परिंदा / बाहर निकलकर  / जिंदा आंखोँ के गरम घोंसले से/ पड़ा रहेगा वह ऐसे ही ! इस चार – दिवसीय यात्रा के प्रथम और अंतिम दिन तो आने – जाने में बीते। बीच के इस  दो दिनी यात्रानुभव में इस अंतर्कथा की भीतरी दीवार से टकराता रहा और टटोलता रहा रूप – आत्मा  उस सभ्यता की, उस सांस्कृतिक जातीय देश की, जो अभी भी अपने अस्तित्व और पहचान के संकट से जूझ रहा है। आप भी सोच रहे होंगे कि मैं जैसे किसी मंगल – यात्रा से लौटा हूं जो बार – बार सब जगह यात्रा- यात्रा जपते फिर रहा हूं या आरमेनिया- आरमेनिया का ढिंढोरा पीट रहा हूं तो यह भी साफ कर

राकेशरेणु की कविता : जीवन के उत्स पर कविता का उत्सव / दिलीप दर्श

'इसी से बचा जीवन' कवि राकेशरेणु का दूसरा कविता - संग्रह है। पच्चीस साल के लंबे अंतराल के बाद तो लोग अपनी उपलब्धि, स्मृति या घटना की सिल्वर जुबली मनाने की ‘योग्यता’ हासिल कर लेते हैं और उसे बड़े गर्व एवं संतोष से ‘सेलीब्रेट’ भी करते हैं लेकिन राकेशरेणु अपने इस नये काव्य - संग्रह को लोकार्पित कर मानों अपनी अनुभूतियों का रजत महोत्सव मना रहे हैं, जिसमें जीवन की अनुभूत सच्चाई है, सीधी- सरल सादगी है, न कि आनुष्ठानिक प्रदर्शन या उपलब्धियों का शोर। प्रसिद्ध कवि – आलोचक भारत यायावर ने इसकी भूमिका “अग्रेषण” के तहत लिखी है। इस भूमिका में उन्होंने राकेशरेणु की काव्य - चेतना की स्थिति, गति और दिशा पर अपनी संक्षिप्त आलोचनात्मक दृष्टि डाली है जिसे पढ़कर इस संग्रह की रचनाओं को बेहतर समझा जा सकता है। इस लिहाज़ से यह भूमिका भी इस संग्रह का एक अपरिहार्य हिस्सा या कहें कि ‘ प्रस्तावना’ बन गई है। लोकमित्र प्रकाशन, दिल्ली ने आकर्षक आवरण और पृष्ठों में इसे प्रकाशित कर इसके पुस्तक -रूप को और भी आकर्षक और प्रस्तुत्य बना दिया है। राकेशरेणु मूलतः उस सार्वभौम चेतना के कवि हैं जिसमें जीवन सिर्फ ‘

रेणु – साहित्य : भाषा और शिल्प के नये सामर्थ्य / दिलीप दर्श

फणीश्वरनाथ रेणु  “अपनी कहानियों में मैं अपने को ही ढूंढता फिरता हूँ । अपने को अर्थात् आदमी को ।” फणीश्वरनाथ रेणु ने यह बात अपनी कहानियों के बारे में जरूर कही है लेकिन यह आत्मकथन दरअसल रचनात्मकता का रहस्य - सूत्र है। मनुष्य जहाँ कहीं और जब कभी कुछ गढ़ता या रचता है वहां दरअसल ‘स्व’ की ही खोज होती है। रचना या सृष्टि में रचनाकार या स्रष्टा की छवि या गंध रहती ही है । यही कारण है कि अपनी हरेक रचना में रेणु स्वयं मौजूद हैं खुद को तलाशते हुए, आम आदमी को ढूंढते हुए, उनके बीच उनके जीवन के सामूहिक यथार्थ का हिस्सा बनकर, उनकी पीड़ा और घुटन सहते हुए उनकी आशाओं- आकांक्षाओं का सहभागी बनकर ! अपनी कथा- भूमि पर वे अपने पात्रों के जीवन- व्यवहार का साक्षी भी हैं और उनके दुख – सुख या संघर्ष का भोगी भी। इसलिए उनके कथा – साहित्य में व्यक्त अनुभव की अपनी प्रामाणिकता है और उसके भाव – जगत् में संवेदनात्मक वास्तविकता और जीवंतता की अनवरत जुगलबंदी है।  रेणु स्वयं या आदमी को ढूंढते हुए जो भी देखते हैं और प्राप्त करते हैं उसे व्यक्त करने की उनकी अपनी विशिष्ट शैली, भाषा और शिल्प है। इस विशिष्टता के साथ जब व

नज़्म सुभाष की तीन ग़ज़लें

समकालीन युवा ग़ज़लकारों में 'एंग्री यंगमैन' के रूप में उभर रहे  नज़्म सुभाष हमेशा जन - सरोकारों से जुड़े सवालों को ग़ज़लों में उठाते हैं।   गजल / 1   इल्तिज़ा   इतनी   है   मेरी   इनदिनों  सरकार  से ढक  दे  सारी  मुफ़लिसी  वो  क़ीमती  दीवार  से नीति- निर्माता  ज़मीं   पर   स्वर्ग जो  लाये उतार कीजिए  तुलना  लिहाज़ा  अब किसी अवतार से जानना था अपनी क़िस्मत  में मुहब्बत का सिला सो  ज़बाँ  जलने  लगी  है  प्यार  के  इज़हार  से तालियाँ  बजने  लगीं  इस बार जब  उसने कहा- 'हम लिखेंगे शान्ति का  अध्याय अब तलवार से' मर  गया  परसों   पड़ोसी   भूख  से  लड़ते  हुए ये  ख़बर  मुझको मिली  है आज के अख़बार से भीड़   में   तब्दील   होना  चाहता  है  लोकतन्त्र असलियत  सहमी  हुई   है  बद्गुमां  जैकार  से बेकली,  आँसू,  घुटन, ग़म,  दर्द  और तन्हाइयाँ कितने अफ़साने मुक़म्मल 'नज़्म' के किरदार से। गजल / 2  इस   जहाँ   से  एकदिन  तू  भी  हवा  हो  जाएगा हादसों   पर  बात   मतकर   हादसा   हो   जाएगा मेरी  चाहत  की  कहानी  में  नया  कु

प्रेम कविता लिखने से पहले

प्रेम कविता लिखने से पहले देखना होगा  अपने  - अपने खेतों में  कितना प्रेम उपजाया है तुमने बंजर होने से कितना बचा पाए हो   उन खेतों को  या वहाँ सिर्फ शब्दों की खेती की है  और काटी हैं फसलें सिर्फ बातों की  देखना होगा भूख पर लिखी जा रही कविता  के अंत में  उभरा है कितना क्रोध  क्रोध में है कुलबुलाती है कितनी घृणा  और उठता है कितना विरोध या प्रतिरोध  कविता का अंत क्या वाकई अंत है  या शुरुआत है भूख पर किसी अगली कविता की ? देखना होगा भूख पर लिखी जा रही कविता  रह जाती है अक्सर क्यों अधूरी ?  और उसे छोड़ आधी या अधूरी क्या लिखी जा सकती है कोई प्रेम कविता  ? कविता होगी फूल पर जब खिलेगा फूल और फूल तब खिलेगा जब जरूरत भर पानी मिलेगा जड़ों को और  हवा या धूप मिलेगी पत्तों को। प्रेम कविता लिखने से पहले  देखना होगा हवश के कितने सर्गों - खंडों में बंटा है जीवन का गद्य और उनमें  कहाँ -कहाँ कैद है उसकी भाषा  बुन लिए हैं उनके शब्दों ने इन सर्गों - खंडों की अभेद्य दीवारों के सहारे कितने मकड़जाल  देखना होगा  जीवन का गद्य  अग

युवा कवि सिद्धार्थ वल्लभ के कविता संग्रह "कुकनुस" की युवालोचक उमा शंकर सिंह परमार द्वारा विस्तृत समीक्षा।

बेचैनी का प्रतिरोधी आख्यान - उमाशंकर सिंह परमार  "कुकनुस" यूनानी चिड़िया है। इसे फिनिक्स भी कहते हैं। एक पाश्चात्य मिथकीय कल्पना है कि यह चिड़िया गाती है, गाने से उसके परों से आग निकलती है, आग में वह भस्म हो जाती है और अपने ही राख से वह पुनः जिन्दा भी हो जाती है। युवा कवि वल्लभ के नवीन कविता संग्रह का नाम "कुकनुस" है। कुकनुस शीर्षक प्रथम दृष्टि में अज़ीबोगरीब प्रतीत होता है। पाठक में जिज्ञासा और कौतूहल पैदा करता है। इस पक्षी को लेकर दन्त कथाएं, पुरा कथाएँ, लोक कथाएं यूरोप में खूब हैं। सभी इससे परिचित हैं, परंतु कविता में, वह भी उत्तरसंरचना के दौर में, विमर्शों और प्रतिरोध के दौर में पुराकथा, पुरा मिथक के दायरे में समय का विवेचन कैसे सम्भव है? यहाँ मैं साफ कर दूँ कि कुकनुस भले ही मिथक है मगर कविता संग्रह "मिथकीय" संरचना नहीं है। कुकनुस शीर्षक की मात्र एक कविता है जो इस संग्रह की पहली कविता है। शेष चौहत्तर कविताओं में कुकनुस की वैचारिक व सांकेतिक निर्मित संकल्पना या आवाजाही नहीं है और इस शीर्षक की दूसरी कोई कविता भी नहीं है । कुल पचहत्तर कविताएँ इस कव