एक मित्र ने कहा है धर्म व्यक्तिगत भी है और सामूहिक भी और इसकी खिचड़ी न पके तो अच्छा। दरअसल धर्म स्वयं में न तो व्यक्तिगत है न ही सामूहिक। धर्म बस धर्म है। वह बस है अथवा है ही नहीं। इसे व्यक्तिगत या सामूहिक हम बनाते हैं। धर्म दरअसल एक ही है और इसके नाम पर जो भी अलग - अलग रूपों में प्रकट और प्रचलित हैं वे दरअसल धर्म की अलग अलग धाराएँ हैं। गंगा न तो व्यक्तिगत है न ही सामूहिक और इसकी धाराएँ कितनी भी अलग क्यों न हों सभी धाराओं में वही पानी प्रवहमान है। मुहाने पर भी गंगा में उसी उत्स की तरंग है, उसी हिमालय की पवित्रता है और उत्स एक है, हिमालय एक है। यहाँ सिर्फ लड़ाई इस बात की है कि मेरी धारा का पानी तुम्हारी धारा के पानी से ज्यादा पवित्र है ज्यादा उपयोगी है। कोई कहता है मेरी धारा शाश्वत है, सनातन है, इसकी संजीवनी शक्ति अनुपम है तो कोई अन्य यह कहता है उसकी धारा सबसे ताजा और इसलिए पवित्रता और प्रभावकारिता के हिसाब से उसका पानी ज्यादा असरदार और परिवर्तनकारी है और उनकी ही धारा मनुष्य को स्वर्ग तक बहा ले जाएगी। कोई यह नहीं देख रहा कि सबमें वही प्रांजल जल - प्रवाह है जिसमें श्वेत हिम के सजल हृ
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