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Showing posts from April, 2022

डर

डर  “तो क्या ‘पहलवान’ जी गिरफ़्तार...?” लोग एक – दूसरे से दबी जुबान से पूछ रहे थे। किसी को पक्का पता नहीं था कि पहलवान जी गिरफ़्तार हुए या फरार ! पर एक बात तो पक्की थी कि वे इस गाँव या इलाके में कल से नहीं हैं। वे जब गाँव या आस – पास के इलाके में रहते हैं तो कुछ और ही रौनक रहती है और लोगों को हवा में एक खास तरह की वज़न- सी महसूस होती है। आज सुबह से ही न तो कोई रौनक है न ही हवा में कोई ऐसी वज़न है जो यहाँ उनकी मौजूदगी की आहट देती हो।  यद्यपि वह वो पहलवान नहीं थे जो जन्माष्टमी अथवा दशहरा आदि के मेले की कुश्ती या बाहर किसी ओलंपिक जैसे खेल- महाकुंभ में जाकर जोर – आजमाइश करते हैं। उनकी पहलवानी कुछ अलग किस्म की थी। पुलिस अथवा विरोधी गैंग को धूल चटाने में जो उनकी ताकत और पैंतरे थे, वे किसी पहलवान से कम नहीं थे। अपराजेयता के तमाम लोक – स्वीकृत पैमाने पर वे खरे उतरते थे इसलिए लोग उन्हें ‘पहलवान’ कहा करते थे। स्थानीय पुलिस और मीडिया भी उन्हें  ‘पहलवान’ नाम से ही जानते थे। उनकी ताकत की महिमा ही थी कि दर्जनों आपराधिक मामलों के दर्ज होने के बावजूद पुलिस उन्हें हाथ लगाने से कतराती थी। उनके ऊपर किसी

घाट - घाट का पानी

यह उन दिनों की बात है जब मैं महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के एक तालुका में पदस्थापित था। रायगढ़ का मराठा साम्राज्य के इतिहास में अति महत्वपूर्ण स्थान रहा है। रायगढ़ का किला जहाँ शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ था, एक जमाने में मराठा साम्राज्य की राजनीतिक शक्तिपीठ हुआ करता था। आज यह एक जिले के रूप में है और इसकी राजनीतिक महत्ता सीमित होकर रह गई है। हाँ, चुनावी या दलगत राजनीति में आम लोगों की सक्रियता और भागीदारी अच्छी - खासी है।  द्रुत गति से नगरीकरण होने के बावजूद यह इलाका आज भी  प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर है और  हरे - भरे पहाड़ी वन  से यहाँ की धरती पटी पड़ी है। स्थानीय लोग आम तौर पर उतने ही मिलनसार और आत्मीयता से भरे मिलते हैं जितने देश के अन्य भागों में मिलते हैं। मैं इस इलाके में करीब तीन साल रहा, ऐसा बहुत कम हुआ कि मुझे लगा हो कि मैं किसी अनजानी जगह पर आया हूँ। केवल आरंभिक दिनों में मुझे कुछेक अप्रिय स्थिति का सामना करना पड़ा था वह भी वहाँ के आम लोगों के कारण नहीं बल्कि किसी दल - विशेष की वज़ह से। उन  दिनों वहाँ मराठी- गैर मराठी के नाम पर एक  दल विशेष काफी हंगामा मचा रहा था।  उस दल

रेणु के रिपोर्ताज

रेणु के रिपोर्ताज से गुजरते हुए “अपनी बची - खुची आंखें / और आंखों का बचा-खुचा पानी / छोड़ गया वह/ समय की शिला पर / पाषाणी कान में फुसफुसाकर / कितना कुछ बता गया ...शिला पर ठहरी एक - एक बूँद पर / चमक रहा है अभी भी/  उसके समय का मिज़ाज / अभी भी टकरा रही है शिलाखंड से/  उसकी आवाज़ / वहाँ रखी उसकी आंखें / अभी भी ढूंढ रही हैं कोई बात या घटना / वह लौटेगा शायद और लिखेगा अभी / इस समय का रिपोर्ताज !” रेणु के रिपोर्ताज पढ़ते हुए मन में लोक- रागात्मकता भरने लगती है। इस रागात्मकता के भीतर से कभी करुण भाव उभरता है तो कभी विद्रोह या संघर्ष की भाव – भूमि निर्मित होने लगती है। ऐसा लगता है – ये महज  रिपोर्ताज नहीं बल्कि रेणु का आत्म- परिचय भी है। उनके संघर्षधर्मी व्यक्तित्व और रागात्मक दृष्टि की झलक यहाँ भी  है । इस विधा में भी उनका स्वर बहुत संयत है। विद्रोही तेवर अथवा  प्रतिरोधी आवेग में उनकी लेखकीय चेतना मानवीय संवेदना से कभी विपथ नहीं होती, न ही करूणा से कटकर कहीं भटकती है। मनुष्य के भीतर और बाहर की सड़ी- गली व्यवस्था के विरुद्ध उठ खड़े होने का जो साहस ऊपजता है उसे इन रिपोर्ताज में मानवीय संवेदना और