फणीश्वरनाथ रेणु: कथा का नया स्वर/ पुस्तक समीक्षा / दिलीप दर्श

‘फणीश्वरनाथ रेणु: कथा का नया स्वर’ भारत यायावर की एक व्याख्यापरक आलोचना - कृति है ।  अनन्य प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, कुल दो  खंडों में विभाजित और लगभग 240 पृष्ठों में रचित इस पुस्तक में रेणु के कथा – रिपोर्ताज को, भाषा, शिल्प, शैली और कथ्य की दृष्टि से रेशेवार खोलने का महत्प्रयास हुआ है। पहले खंड में रेणु के कथा – साहित्य पर 11 आलेख हैं और दूसरे खंड में उनके लिखे उन्नीस रिपोर्ताज पर 12 आलेख हैं ।
आलोचना की प्रचलित पद्धतियों, खासकर समाजशास्त्रीय और रूपवादी पद्धतियों से इतर यायावर ने  रेणु – साहित्य की भीतरी तह तक पहुँचने के लिए एक अपनी ही दृष्टि विकसित की है जिसके मूल में लोकजीवन का राग – बोध है और जिसके बिना रेणु की रचनाओं में भटका तो खूब जा सकता है मगर पहुँचा कहीं नहीं जा सकता। यायावर इस कृति में ऐसे मुकाम पर पहुँचते हैं जहाँ खड़े होकर आम पाठक या सांस्कृतिक रूप से विजातीय पाठक भी रेणु की सर्जनात्मक धड़कनों को प्रत्यक्ष महसूस कर सकते हैं ।   
कई बार आलोचनात्मक  या समीक्षात्मक  कृति की समीक्षा करना शोरबे का शोरबा बनाने जैसा लगता है लेकिन यायावर की इस पुस्तक को पढ़ते हुए कई बार यह भी लगता रहा कि रेणु के शोरबे का चाहे जितनी बार शोरबा बना लें , उसके हरेक घूंट में वही और उतना ही रस – स्वाद  हमेशा बना रहता है। तो मेरे जैसा शोरबाजीवी साहित्यिक इससे कैसे बच सकता था !
‘प्रस्तावना’ में ही भारत यायावर ने रेणु की रचनाओं से गुजरते हुए किसी निर्णय या निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए नया सौंदर्य- बोध विकसित करने की शर्त रख दी है जो एक समर्थ आलोचक या समीक्षक का पहला धर्म भी है – 
“ रेणु की कहानियाँ अपनी बुनावट या संरचना, स्वभाव या प्रकृति,  शिल्प और स्वाद में हिंदी कहानी की परंपरा में एक अलग और नई पहचान लेकर उपस्थित होती है । अंततः एक नई कथा – धारा का आरंभ इनसे होता है । ये कहानियाँ प्रेमचंद की जमीन पर होते हुए भी जितनी प्रेमचंद की कहानियों से भिन्न हैं उतनी ही अपनी समकालीन कथाकारों की कहानियों से । इसलिए रेणु की कहानियों के लिए एक नया सौंदर्यशास्त्र निर्मित करने की आवश्यकता है।”
रेणु के शिल्प और कथ्य को लेकर जिस दुरूहता या जटिलता की बात यायावर  उठाते हैं वह वहाँ अनायास ही नहीं आ गई है बल्कि भारतीय समाज या लोकजीवन के दुरूह या जटिल स्वरूप ही उसके उत्स में  है और उसकी मुकम्मल समझ के लिए जो नई लोक – संवेदना – बोध अथवा दृष्टि  विकसित करने की बात यायावर  करते हैं उसके पीछे उनकी एक चिंता साफ झलकती है,  वह यह है कि रेणु- साहित्य का सही और सम्पूर्ण मूल्यांकन किए बिना प्रेमचंद के बाद  का हिन्दी- साहित्य अधूरा ही रहेगा और साहित्य में लोकजीवन की रागात्मकता की प्रतिष्ठा लगभग असंभव है ।
उन्होंने रेणु को ‘आत्मा के शिल्पी’ कथाकार के रूप में देखा है – “ रेणु हिन्दी के पहले कथाकार हैं जो ‘प्राणों में घुले हुए रंग’ और ‘मन के रंग’ को, यानी मनुष्य के राग – विराग,प्रेम को, दुख और करुणा को, हास- उल्लास और पीड़ा को अपनी कहानियों में एक साथ लेकर ‘आत्मा के शिल्पी ‘ के रूप में उपस्थित होते हैं।”
‘मैला आंचल’ की रचना के पूर्व की कहानियों जैसे ‘बट बाबा’, ‘ पहलवान की ढोलक’, ‘पार्टी का भूत’, ‘प्राणों में घुले हुए रंग’,  ‘न मिटनेवाली भूख’,  ‘रखवाला’, ‘रेखाएँ: वृत्तचक्र’ आदि पर विचार करते हुए यायावर रेणु की विचार धारा, उनके व्यक्तित्व और उनकी जीवन – दृष्टि की रूप – रेखा कुछ इस तरह खींचते हैं- “ समाज में विद्रोहात्मकता के जीवित होने के कारण ही वे आशावादी हैं वरना आजादी के बाद जो खेल पूरे देश में घटित होता दिखाई पड़ता है वह निराशाजनक है.....ठीक मुक्तिबोध की तरह रेणु का मन भी लहू-लुहान है।”
यायावर इन कहानियों में उन सारे पात्रों के भीतर प्रवेश कर रेणु के लेखकीय मन को  टटोलते हैं, उनकी उस सर्वग्राही और समरस चेतना की धड़कनों को भी सुनते हैं जो अंततः ‘मैला आंचल’ में समाहित होकर लोकजीवन के ‘ धूल , फूल, शूल, गुलाब, कीचड़, चंदन, सुंदरता और कुरूपता को सर्व – स्वीकार्य - भाव से अपने आगोश में समेट लेती है । 
रेणु की भाषा बेशक़ आंचलिक है लेकिन इस आंचलिकता में भाषा का एक सर्जनात्मक प्रयोग है। यह प्रयोग रेणु को विशिष्ट रचनाकार बनाता है – हिन्दी कथा – परंपरा में यह सर्वथा नूतन प्रयोग था। ऐसी सर्जनात्मक भाषा का प्रयोग किसी दूसरे कथाकार ने नहीं किया था। ”  इसके कारणों की पड़ताल करते हुए या भाषा – प्रयोग पर रेणु की पोजीशन स्पष्ट करने के लिए वे डॉ. लोठार लुट्से द्वारा लिए गए रेणु के इंटरव्यू से भी उद्धरण देते हैं तथा पूर्णियां अंचल की भाषा या बोली पर पड़ोसी क्षेत्रों की भाषाओं के मिश्रित प्रभाव की रोचक और ज्ञानवर्धक मीमांसा भी करते हैं । ‘ मैला आंचल ‘ में भाषा का यह सर्जनात्मक प्रयोग चरमोत्कर्ष पर है जहाँ अभिव्यक्ति की मौलिकता या अनुभूति की प्रामाणिकता आंचलिकता को गौण – तत्व बना देती है । इस पर वे आगे लिखते हैं- “ इन्हीं प्रयोगों के सहारे उन्होंने हिन्दी कथा – भाषा के मिजाज और तेवर में तथा पूरी अभिव्यंजना- पद्धति में परिवर्तन उपस्थित किया, जिनसे गतानुगतिक हिन्दी कथा – भाषा को अपनी समसामयिकता में एक नया मोड़ मिला.....इससे अभिव्यक्ति के नए द्वार खुले हैं।”
गीतात्मकता, खासकर लोक - गीतात्मकता से रेणु की अधिकतर रचनाओं का अभिन्न संबंध है। ‘रेखाएँ:वृत्तचक्र’, ‘आत्म साक्षी’, ‘पुरानी कहानी नया पाठ’, ‘रसप्रिया’, ‘तीसरी कसम’ आदि कहानियों में प्रयुक्त गीत या लोकगीत के प्रभाव को रेखांकित करते हुए यायावर लिखते हैं- “ .....जिस तरह लोकभाषा के विभिन्न  रूप आकर साहित्यिक कथा भाषा में एक नई रचनात्मकता का उद्रेक करते हैं उसी तरह गीतों के विभिन्न स्तर के टुकड़े कथानक में विन्यस्त होकर कथा के प्रवाह और वातावरण को सांगीतिक लय प्रदान करते हैं। ये ऊपर से जोड़े नहीं गए  हैं, इनका संदर्भ भी है, अर्थ भी है। ”
आम तौर पर कलात्मकता और समाजशास्त्रीय यथार्थ का अनगढ़पन साहित्य में विपरीत ध्रुवी रहे हैं और विरोधी या विरोधाभासी तत्वों  को रचना की इकाई में रचा- पचा देना कभी आसान काम नहीं रहा है। लेकिन रेणु के संबंध में यायावर लिखते हैं- “ रेणु की कहानियों में उपस्थित कलात्मक रचाव और समाजशास्त्रीय महत्व ....ये विपरीत छोर हैं जिन्हें ये कहानियाँ एक साथ साधती हैं। ”
‘पंचलाइट’, ‘सिरपंचमी का सगुन’,’बट बाबा’, ‘रसूल मिसतिरी’, ‘रसप्रिया’, ‘तीसरी कसम’, ‘तीर्थोदक’ आदि कहानियों का, यायावर ने सामाजिक जीवन और मूल्य के बदलते मानदंडों पर, विस्तृत विश्लेषण कर  रेणु की सामाजिक संबद्धता और उनकी  प्रगतिशीलता की एक तरह से पुनर्पुष्टि कर दी है – “ यही सामाजिक संबद्धता रेणु के कथाकार को विशिष्ट बनाती थी...पुरानी चीजें मिट रहीं हैं , मिटती जा रहीं हैं, उनकी जगह नयी चीजों ने ले ली है। इसके कारण सामाजिक मूल्य भी बदल रहे हैं। रेणु इसका चित्रण करते हुए नोस्टेल्जिक नहीं होते। वे अतीतजीवी नहीं हैं। उनके कथा साहित्य में नए की अगवानी है। ”
रेणु आजीवन आर्थिक विपन्नता से जूझते रहे और आर्थिक रूप से विपन्न समाज में जीते रहे। मैला आंचल और परती परिकथा में ग्रामीण जीवन की आर्थिक दुरअवस्था का जो भयावह और जीवंत रूप देखने को मिलता है और बट बाबा, पहलवान की ढोलक, रसप्रिया,  लाल पान की बेगम आदि कहानियों में मनुष्य की रागात्मक चेतना से जो ‘अर्थ ‘ का संघर्ष होता है, यायावर ने उसे व्यापक फलक पर सोद्धरण विश्लेषित किया है।
रेणु राजनीतिक रूप से अति सक्रिय साहित्यकार थे। जनता के व्यापक हित के लिए जनता के साथ खड़ा होना उनके लिए नई या असहज बात नहीं थी। बदलते सामाजिक -आर्थिक परिवेश के अलावा राजनीतिक घटनाक्रम  पर उनकी पैनी नज़र रहती थी। ‘पार्टी का भूत’,  ‘तबे एकला चलो रे’,’जलवा’, ‘संकट’, ‘आत्मसाक्षी’ आदि कहानियों में तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था या दलगत राजनीति से रेणु का जो मोहभंग झलकता है उसकी पड़ताल करते हुए यायावर लिखते हैं- “अत्याचार,  अन्याय,  भ्रष्टाचार,  शोषण,  प्रवंचना,  लूटपाट,  गोलबंदी, विघटन,  वैमनस्य से रचे – बसे भारतीय जन जीवन को रेणु ने बहुत गहराई से देखा है और इन सबके पीछे राजनीति के कुरुप चेहरे को उजागर किया है।”
लोकजीवन का राग और लोक – संस्कृति तो रेणु की कथा में गुणसूत्रों की भांति बिखरे हुए हैं। कृषि आधारित समाज या जीवन- व्यवस्था  में लोक -पर्व – त्योहार,  मेला, पूजा-पाठ, नाच- नौटंकी, जत्रा, कीर्तन- भजन, मंदिर- मस्जिद आदि जीवन के अभिन्न अंग होते हैं। ‘भित्तिचित्र की मयूरी’, ‘रसप्रिया’,  ‘लाल पान की बेगम’,  ‘इतिहास, मजहब और आदमी’,  ‘तीर्थोदक’, ‘तीसरी कसम’ आदि से लेकर मैला आंचल तक में लोक संस्कृति के इन अवयवों की जो अभिव्यक्ति हुई है उसके आधार पर यायावर लिखते हैं- “रेणु लोक जीवन के संस्कारों में रचे – बसे कथाकार थे। उनकी  कई कहानियों में इस प्रकार की आस्था और विश्वास का चित्रण हुआ है।” 
यायावर ने इस बात पर बार-बार बल दिया है कि रेणु अपनी सारी सर्जना में आदमी को ही तलाशते रहते हैं । पात्र हो या कथा का प्लाट, वे इस खोज से कभी भटकते नहीं । पंचकौडी मिरदंगिया, हिरामन, हीराबाई, सिरचन, बिरजू की मां, हरगोबिन, करमा, किशन महाराज, फातिमा जैसे पात्र  भी हैं, यायावर की दृष्टि में , जिनमें रेणु ने मानवीय मूल्यों की तलाश की है – “ यही वे आदमी हैं व्यवस्था द्वारा सताए हुए, उपेक्षित,  दलित पर बेहद मानवीय,  जमीन से जुड़े हुए,  सांस्कृतिक चेतना से सम्पन्न, प्रेम और राग से पगे लोग!...मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठित करने वाले लोकजीवन के फटेहाल लोगों को अपनी कहानियों को रेणु ने इतने अपनत्व या ममत्व से रचा है कि वे आज भी हमें अपने दिल के आसपास दिखाई पड़ते हैं ।”
यायावर की तरह मेरा भी मानना है कि  लोक – संवेदना की दृष्टि से रेणु की कहानियों का मूल्यांकन या उन पर विचार उनके जीवनकाल में नहीं हो पाया जो कि हिन्दी कथा – साहित्य की विकास-यात्रा में अधूरापन जैसा है लेकिन भारत यायावर ने यह पुस्तक लिखकर इसे बहुत हद तक पूरा किया है। 
कहानी या उपन्यास ही नहीं, रेणु ने रिपोर्ताज भी अलग अंदाज में लिखे हैं । उनके कुल 19 रिपोर्ताज उपलब्ध बताए जाते हैं । उनके संकलन और संपादन में भी यायावर का योगदान अविस्मरणीय है। 
रेणु के प्रमुख रिपोर्ताज जिनपर यायावर ने प्रमुख रूप से अपनी दृष्टि डाली है, वे हैं- विदापत नाच, जै गंगा, डायन कोसी, हड्डियों का पुल, हिल रहा हिमालय, घोड़े की टाप पर लोहे का रामधुन, ॠणजल धनजल, नेपाली क्रांति कथा, जीत का स्वाद, एकलव्य के नोट्स आदि। अधिकतर रिपोर्ताज ‘समय की शिला पर’ में संग्रहीत हैं। 
रेणु के पास कहने – लिखने के लिए जीवन का विराट अनुभव था और सामाजिक- राजनीतिक जीवन का अपरिमित यथार्थ भी। कथा या उपन्यास जैसी विधाओं में जो अभिव्यक्ति के योग्य नहीं रहा उसे रिपोर्ताज में पिरो दिया। बिहार में बाढ़ या अकाल जैसी भयावह आपदाओं से जूझती मानव और पशु-पक्षियों की आबादी के साथ जिए बिना और  उसका दुख- दर्द बयां किये बिना रेणु मिट्टी के साहित्यकार नहीं हो सकते थे।
रिपोर्ताज जैसी विवरणात्मक और यथार्थपरक विधा में भी रेणु ने जो कथा- रस बहाया है उससे ये रिपोर्ताज वास्तविक होते हुए भी बिल्कुल सरस, रुचिकर और मर्मस्पर्शी हो गए हैं। 
यायावर ने इन रिपोर्ताज में रेणु की सर्जना के इन विलक्षण तत्वों की खोज की है। उनका यह मन्तव्य बहुत कम शब्दों में पूरे रिपोर्ताज की मूल आत्मा को सामने रख जाता है – “ रेणु के रिपोर्ताजों में यथार्थ का यथातथ्य चित्रण ही सिर्फ नहीं है, इसमें तीखा आलोचनात्मक स्वर है । यह आलोचना कभी-कभी व्यंग्य के रूप में प्रकट होती है,  साथ ही उसमें आत्मालोचन की भी प्रवृत्ति है। वे दुनिया से बहस करते हुए कहीं न कहीं अपने से भी बहस करते हुए दिखाई पड़ते हैं । यह प्रक्रिया यथार्थ के दारुण स्वरूप को देखकर मनोव्यथा और बेचैनी के रूप में भी प्रकट हुई है।”
एक बात और जो भारत यायावर ने उठाई है वह यह है कि इससे पहले नामवर सिंह जैसे आलोचक ने अपनी कृति ‘नयी कहानी’ में रेणु की चर्चा तक नहीं की है।  ऐसे में भारत यायावर की यह एक जरूरी पुस्तक है जो सिर्फ रेणु पर उठे सवालों पर ही सवाल नहीं उठाती बल्कि रेणु का आईना दिखाकर उनका जबाव भी देती है। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि रेणु की  हृद्तंत्री और उनके साहित्य के मूल स्वर तक पहुँचने का सामान्य पाठकीय प्रयास पूरी तरह सफल नहीं होगा अगर भारत यायावर की इस किताब की अनदेखी कर रेणु और उनके लेखन को जानने की कोशिश की जाए । 
‘फणीश्वरनाथ रेणु: कथा का नया स्वर’ एक  कुंजी है रेणु साहित्य की, और भारत यायावर की आलोचनात्मक पूंजी भी है। इस पुस्तक के रूप में उन्होंने यह कुंजी और अपनी पूंजी दोनों हम हिन्दी पाठकों को सौंप दी है इसके लिए हिन्दी जगत् उन्हें सदा याद रखेगा । □□□

पुस्तक: फणीश्वरनाथ रेणु: कथा का नया स्वर 
लेखक: भारत यायावर 
प्रकाशन: अनन्य प्रकाशन 
ई -17, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा
दिल्ली- 110032
फोन सं. - 011- 22825606, 22824606
इमेल ( प्रकाशक) : prakashanananya@gmail.com
इमेल ( लेखक) : bharatyayawar@gmail.com 
मूल्य: 450/- रुपये ( हार्डकवर)
पृष्ठ: 240
 

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