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Showing posts from July, 2020

गणेश गनी की कविता / पृथ्वी का लोकनृत्य

    गणेश गनी समकालीन हिन्दी कविता में एक अलग जायके की कविता लिखते हैं । इनकी कविता उन अनेक छोटी-छोटी चीजों और बातों का पता देती है जो जिन्दगी के रोजमर्रे या आपाधापी में पकड़ से छूट जाती हैं या बिलकुल खो जाती हैं । इसमें पर्याप्त लोकचिंता भी है और यथार्थ की विद्रूपताओं को सामने लाकर दिखाने की बेचैनी भी है । उनका कवि पूरी पृथ्वी के समकाल और भविष्यत् की चिंता करता है । प्रस्तुत है उनकी एक ऐसी ही कविता ।  पृथ्वी का लोकनृत्य   तुम्हारा खेल चलता रहेगा तब तक केवल जब तक अंधेरा  तुम्हारे ख़िलाफ़ नहीं हो जाता। यह भी सुन लो - तुम्हारा मंच  तुम्हारे नाटक तुम्हारा किरदार तुम्हारे मुखौटे बचे रहेंगे तब तक केवल जब तक अंधेरा नहीं लिखता आत्मकथा। अभी तो कर दिए स्थगित सारे शोध सुर और संगीत साधकों ने क्योंकि खानगीर पत्थर पर घन मारते मारते घन की आवाज में एक नया सुर साध रहा है चिरानी स्लीपर चीरते चीरते  आरी की आवाज में एक नई हरकत डाल रहा है। फिर भी दीवार पर चिपकी घड़ी बता रही है कि समय जैसी कोई चीज नहीं होती पृथ्वी का लोकनृत्य करना ही  वास्तव में एक खगोलीय घटना है। एक साजिश रची जा रही है निरंतर  डर के मारे लोग

भरी आंखों से / ग़ज़ल

भरी आंखों से कोई इस तरह देखा नहीं करते। किसी का हाल तो ऐसे कभी पूछा नहीं करते ।  जुगों के बाद उतरी है अभी ही धूप यह मुझपे  अभी ही आके ज़ुल्फ़ों का इधर साया नहीं करते ।  गुलों ने सोचके दी है हवा को फिर हिदायत ये अभी खुशबू जरा कम है तो बिखराया नहीं करते । रहे बेहोश जो ताउम्र वे ही कह रहे हैं ये जमाने होश लेकर तो कभी आया नहीं करते। बड़े हैं वे तो है उनकी बड़ी नाकामयाबी भी  मगर क्या है कि उस पे अब कोई चर्चा नहीं करते। तेरे ये देवता भी तो किसी बुत से नहीं हैं कम  खुली रहती तो आँखें हैं मगर देखा नहीं करते । 

बुद्धि वापसी के लिए आवेदन / व्यंग्य/ अख्तर अली

आदरणीय भगवान् जी,   विषय – बुद्धि - वापसी बाबत आवेदन  महोदय , सनम्र निवेदन है कि आपने मेरे को जो बुद्धि दी है उससे जीवन में बहुत असुविधा हो रही है | मेरे आस - पास के वो सभी लोग जिनके पास बुद्धि नहीं है वे बिना किसी तनाव के बिंदास जी रहे हैं जैसे बुद्धिमान शिक्षक वहीं का वहीं है और बुद्धिहीन छात्र कहां से कहां पहुँच गए | इस तरह के बहुत से प्रकरण रोजाना सामने आ रहे है | गधे खीर और बुद्धिमान गालियाँ खा रहे हैं | बुद्धिमान का समाज में रहना दूभर हो गया है | प्रभु बुद्धि का बोझ अब और न उठेगा | प्रभु छोटा मुंह बड़ी बात कर रहा  हूं पर आप अपने मानव उत्पादन विभाग में ज़रा अतिरिक्त ध्यान दीजिये , वहाँ बहुत गड़बड़ियाँ नज़र आ रही हैं | लगता है वहाँ आरक्षण के तहत नियुक्तियां हुई हैं , तभी काम तो तबियत से हो रहा है पर परिणाम विपरीत निकल रहे हैं | उत्पादन में तकनीकी समस्या है , अकुशल कारीगरों के कारण आपका उच्च क्वालिटी का राॅ मटेरियल बर्बाद हो रहा है और पृथ्वी पर आपका नाम अलग ख़राब हो रहा है | आपके मानव - निर्माण विभाग में घोर लापरवाही हो रही है , सुपरविज़न कमज़ोर है और मैनेजमेंट इस ओर ध्यान ही नहीं दे रहा है

पसीने की प्रयोगशाला में

पसीने की प्रयोगशाला में इकट्ठे किए गए नमूनों पर समाज  - विज्ञानियों का कहना है - बहुत हद तक जाना जा सकता है  सिर्फ दो नमूनों से ही  पसीने का सामाजशास्त्रीय  रहस्य  आधा रहस्य खोलती है  पसीने की गंध और आधा खुलता है पसीनों के रंग से उनका कहना है कि जिस नमूने में खुशबू है किसी डियो की या इत्र की और जिसका रंग है किसी  महंगी शराब के जैसा  थोड़ा सुनहला या चटक वह जरूर किसी  जिमखाने से लिया गया है जहाँ कुछ लोग आते हैं  कि वे बहा सकें पसीना  क्योंकि उन्हें मालूम है कि वे खाते - पीते लोग नहीं बल्कि अधिक खाते - पीते लोग हैं  जानते हैं ज़रूरत से ज़्यादा कैलोरी सेहत के लिए ठीक नहीं है फिर दफ्तर के नियंत्रित  20 डिग्री तापमान पर  पसीने भी कहाँ छूटते हैं ! तो बेहतर है कि  जितना खर्च हुआ है फास्ट फूड पर उसका कोई पच्चीस फीसदी खर्च किया जाए  यहाँ जिमखाने में पसीने चुआने पर  और रहा जाए स्वस्थ  जरूरत से ज्यादा खाते - पीते हुए  जीते हुए आत्मस्थ वक्त के साथ बेखौफ बहा जाए दूसरा नमूना है ऐसा कि समाज विज्ञानियों को रखने पड़े हैं  रूमाल अपनी - अपनी नाक पर  रखने पड़े हैं आंखों पर चश्मे क्योंकि इसके मटमैले रंग को 

वे कैटवाक नहीं करतीं /2

वे कैटवाक नहीं करतीं  न ही होता है कोई रैंप  उनके सामने  होती हैं बस पतली पगडंडियाँ  सिकुड़ती हुईं  जाती हुईं खेतों की ओर अपनी भुजाओं में गंदले  कीचड़ और पानी समेटे हुए खेत  लेटे हुए देखते हैं ऊपर  बादलों में दिखती हैं  पतली पगडंडियाँ  पगडंडियों पर आ रहीं वे  सिर पर बिचड़ों के बोझ लिए  कदियाए खेत में  वे जब रोपती हैं बिचड़े तब सभ्यता का  सुंदरतम क्षण होता है वह  सुंदरतम लगती है पृथ्वी भी धान रोपती स्त्रियाँ  कैटवाक नहीं करतीं  कैटवाक करती लड़कियाँ  धान नहीं रोपती कभी और हर साल कोई एक  बन जाती है ब्रह्माण्ड- सुंदरी भी धान रोपती स्त्रियाँ  धान रोपती रह जाती हैं  साल - दर - साल  अपने खुरदरे पंकुआए हाथों से पृथ्वी को  ब्रह्माण्ड- सुंदरी बनाने के लिए  रोपती रह जाती हैं धान धान रोपती स्त्रियाँ 

अखिलेश श्रीवास्तव की कविताएँ

  पेशे से केमिकल इंजीनियर कवि अखिलेश श्रीवास्तव समकालीन हिन्दी कविता में अनुभूति का अलग रसायन घोलते हैं जिसमें  पाठकों के स्वाद- बोध को निखारने की पूरी क्षमता है। उनकी कविता चमत्कृत नहीं करती बल्कि चमत्कृत लगती चीजों की असलियत खोलती है । यहाँ प्रस्तुत उनकी कविताओं में समकालीन मानवीय  संवेदना के संवेदनशील इलाके की शिनाख्त की जा सकती है ।  गेहूँ  का अस्थि विसर्जन :  खेतों में बालियों का महीनों  सूर्य की ओर मुंह कर खड़ा रहना  तपस्या करने जैसा है  उसका धीरे धीरे पक जाना है  तप कर सोना बन जाने जैसा  चोकर का गेहूँ से अलग हो जाना  किसी ऋषि का अपनी त्वचा को दान कर देने जैसा है  जलते चूल्हे में रोटी का सिंकना  गेहूँ की अंत्येष्टि जैसा है  रोटी के टुकड़े को अपने मुंह में एकसार कर  उसे उदर तक तैरा देना  गेहूँ का गंगा में अस्थि विसर्जन जैसा है  इस तरह  तुम्हारे भूख को मिटा देने की ताकत  वह वरदान है  जिसे गेहूँ ने एक पांव पर  छ: महीने धूप में खडे़ होकर  तप से अर्जित किया था सूर्य से  भूख से  तुम्हारी बिलबिलाहट का खत्म हो जाना  गेहूँ का मोक्ष है  इस पूरी प्रक्रिया में कोई शोर नहीं हैं कोई आवाज नहीं है