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Showing posts from December, 2018

हैप्पी मील

अनहैप्पी ही रह जाता है मेरा बेटा खाकर हैप्पी मील उसे नहीं पता हमें आना पड़ता है छोड़कर अपना गाँव- देस अपने - अपने मम्मी-  पापा इतना दूर कई हजार मील ताकि उसे मिलते रहे हैप्पी मील उसे नहीं मालूम शहर के भीतर और शहर के पार कितने बच्चे नहीं जानते हैं यह हैप्पी मील उन्हें मालूम है सिर्फ मिड डे मील माल का फूडकोर्ट नहीं उसके लिये वे जाते हैं स्कूल

झाड़ू / कविता / दिलीप दर्श

चुनावी छाप बनने के बाद झाड़ू भूलने लगता है बुहारना सीखने लगता है उछालना कीचड़ उड़ाने लगता है धूल जीतने के बाद डूब जाता है जश्न में आगे खड़ा वह खुले जीप में पीछे हजारों जिंदाबाद आत्ममुग्ध झाड़ू विनम्र होने की कोशिश में झुकता है विजय – जुलूस जाकर सीधा लोकतंत्र के मंदिर पर ही रुकता है पद और गोपनीयता की शपथ के बाद अन्य स्थापित खानदानी छापों की तरह वह भी बनने लगता है लाठी और आंसू गैस फोड़ने लगता है सर तोड़ने लगता है कंधे करने लगता है बेहोश और अंधे पता नहीं चलता कब और कैसे घोषणा- पत्र बन जाता है स्मारक इधर मां सुबह – सुबह ढूंढ़ती है झाड़ू बुहारना है बासी घर - आंगन पिता को भेजना है खेत बेटे को दफ्तर  बहू को आंगन – बाड़ी छोटे बच्चों को स्कूल करनी है दिन की शुरूआत झाड़ू कहीं नहीं मिलता है अब न घर में, न ही दुकान में जमीन पर कहीं नहीं वह अब लटका है आसमान में !            29/12/2018

उदास घर

कभी नहीं रहता था यह घर इतना उदास न ही दीवार भी इतनी कभी नहीं रोती थीं खिड़कियाँ दरवाजे नहीं सुबकते थे कभी गमलों में खिले फूल नहीं हुए थे उदास बालकनी में लटकती टंगनी और लटक गई है। उस पर झूलते कपड़े और गीले हो गए हैं सोफे पर धंसना दलदल में धंसने जैसा कभी नहीं लगा था। इतनी गुमसुम कभी नहीं होती थी टी वी उसमें बह रही नदी चुपचाप बह रही थी धूल उड़ रही थी वहाँ पेड़ जड़वत् थे खड़े उजड़ गए घोंसले को देख परेशान थे पक्षी।   बेड की चादर पर उकेरे गुलाबी फूल हरे पत्ते झड़ गए थे और फैली हुई थी वहाँ उदासी और नुकीला पतझड़ चुभ रहा था पूजा -  घर से शायद उठकर चले गये हैं कुलदेवता गायब हो गई सुगंध अगरबत्ती - धूप की दीप  की लौ अस्थिर क्यों है इतनी ? ज्योति क्यों आभा विहीन है ? आखिर क्या हो गया क्या खो गया इस घर का

एक गधे की आत्महत्या

बडी भीड़ उमड़ी है शहर के बीचो-बीच सुना है मर गया इस शहर का एकमात्र गधा अपनी प्रजाति का अंतिम प्राणी था शायद बड़ा ही कर्मठ और इमानदार था अपने भविष्य को लेकर इतना खबरदार था कि मर गया चुपचाप आधी रात को निर्वंश ! और शहर हो गया गधाविहीन सुबह - सुबह सभी कह रहे थे - उसकी उम्र मरने की नहीं थी अभी तो उसे सीखना था जीना बनानी थीं सीढियां चढ़ना था ऊपर जहाँ पहुँच नहीं पाई थीं कई कई पीढ़ियां जहाँ से सिर्फ देखा ही जा सकता है नीचे और जहाँ से उतरना या लौटकर आना कभी संभव नहीं होता कई इच्छाएं, ऊंचे सपने, जोड़ने थे कितने बिखरे तंतु  ! अभी तो बनना था सफल और स्मार्ट जन्तु ऊंची पहाड़ियों  पर बनाने थे बंगले बड़ी - बड़ी गाड़ियां, नौकर - चाकर, दरबान, बाउंसर बाहों में रोज नई लड़कियां ऐश्वर्य- भोग के नित नए द्वार या खिड़कियाँ सभी कह रहे थे - अभी नहीं मरना था उसे बहुत कुछ करना था उसे बनना था मीडिया डार्लिंग सरकारी हिमालय से लेकर बेबस जनता के घाटीनुमा पेट तक सब जगह गाड़ने थे अपने पौरुष के शिव - लिंग और खुश होना था अपनी कामयाबी पर लेना था पद्म भूषण भरी जवानी में और बुढापे में लाइफ

कभी नहीं सूखती है

कभी नहीं सूखती है नदी सूख जाता है बस पानी पानी के लौट आने की आस में वह खड़ी नहीं रहती वह बहती है फिर भी नदी सिर्फ पानी नहीं है पानी सिर्फ दिखाता है नदी का भराव उसका बहाव पानी से नहीं बनती है नदी नदी से बनता है पानी नदी ही जारी करती है पानी का पहचान- पत्र नदी बनती है पहाड़ की जमी हुई आदिम बेचैनी के पिघलने से बेचैनी कभी

ये अराराट पहाड़

ये अराराट पहाड़ ही बताएंगे कितने ऊंचे हैं उनके सपने चट्टानों से महसूस होगा  उनका साहस या संकल्प  इन पर उगी वो अनजान दूब – घास  उमग- उमग कहेगी कितना हरा है अभी भी उनका आत्मविश्वास  चलकर कहेगी  हवा – बतास  उनमें कितना है जीवन या सांसें हैं शेष आकाश नहीं यह झील सेवान बोल उठेगा  कैसे हैं यहाँ के लोग और कैसा है यह देश  और यह फैली - पसरी बर्फ मीलों तक  बताएगी अवश्य  उनके लिए क्या है जरूरी उजला या सफेद होना हृदय का या ठंडा होना आत्मा का !

इधर ही कहीं

मुझे परवाह नहीं  कि उधर नहीं गया मैं ऊपर  खूब ऊपर  मुझे तो अपनी माँ के पास रहना है,  बैठ  इसी गोद में  देखना है नीला आकाश  पैठ इसीके अतल जल में  ढूंढना है मुझे उस आकाश की नीली परछाई  जो खो गई है असमय शायद   इधर ही कहीं !

पड़ा रहेगा वह ऐसे ही

पूरा अतीत सारा दर्द पन्नों में है दर्ज अंधा, गूंगा, बहरा पड़ा है निष्प्राण कब का मरा पड़ा रहेगा वह ऐसे ही जबतक छूती नहीं उसे कोई उंगली जिंदा जबतक ढूंढता नहीं उसे कोई प्यासा परिंदा बाहर निकलकर  जिंदा आंखोँ के गरम घोंसले से पड़ा रहेगा वह ऐसे ही !

जब तुम नहीं रहोगे

जब तुम नहीं रहोगे ( भारत यायावर के प्रति) कभी-कभी सोचता हूं जब तुम नहीं रहोगे कहाँ रहूंगा मैं शायद तब बेमतलब ही बहूंगा मैं समय की धार में और तुम खड़े - खोये उस पार में प्रस्थान पीढ़ी के साथ कहीं फिर व्यस्त हो जाओगे मिल जाएंगे तुम्हें वहाँ तुम्हारे हजारों बिछड़े हुए और भूल जाओगे शायद मुझे छोड़कर अकेला मेरे भरोसे इतना बड़ा मेला जहाँ सभी पूछेंगे “ कहां गया वो तुम्हारा ...?” कुछ तो बताना पडेगा मुझे पर झूठ तो बोलना सिखाया नहीं तूने जीते -  जी दिखाया नहीं तूने झूठ की कमाई का भी कोई रास्ता जैसा रहा वास्ता तुम्हारा सादगी से रहा लगाव मनुष्यता की बेचारगी से मुश्किल होगा मुझसे यह सब निभाना जब नहीं रहोगे तुम हो जाएंगे सामने से गुम मेरे रास्ते दूर किसी मील के पत्थर पर बस लिखा पाऊंगा तुम्हारा नाम लेकिन वहाँ नहीं होगा लिखा तेरा पता तो लोग कहेंगे “ छाती फाड़कर तू दिखा “ पर कैसे पाऊंगा बता तबतक तुम हो चुके होगे मेरी सांस का हिस्सा जिसका एहसास उसे महसूसने में होगा। □□□

अपना अपना भाग

देख लिया हमने चुआकर पसीना, बहाकर खून आंसू पी – पीकर देख लिया हमने जीकर अलग-अलग व्यवस्था में बदली गई व्यवस्था हमारे नाम पर हमारे लिए बाद में व्यवस्था हमें बदलती रही युगों तक हर समय में हम बनते रहे व्यवस्था की मशीन का उत्पाद सर पर शामियाने तनते रहे अलग-अलग रंगों के छांह में रहकर भूलते रहे धूप का स्वाद हम भूल ही गए कि धूप का स्रोत सूरज है सूरज और कुछ नहीं, बस आग है वही आग जिसमें पकी थी पहली रोटी रोटी से ही आया था सभ्यता का पहला स्वाद स्वाद के पीछे दौड – भाग में गोल रोटी – से बने गोल पहिए पहिए चलते रहे चलती रही व्यवस्था पहिए बदलते रहे बदलती रही व्यवस्था नए -  नए मार्ग हरेक मार्ग पर  फिर ढूंढ़ते रहे वही छांह , जहाँ सुस्ताते हम भूल ही जाते हैं धूप, सूरज और आग और याद रह जाता है सिर्फ छांह का अपना – अपना भाग !

घर

घर मत पूछो कब लौटता हूं घर कोई उत्तर नहीं है मेरे पास लेकिन चलता हूं रोज घर की ओर सोचकर कि कभी तो पा जाऊंगा इस रास्ते का वह छोर जहाँ होगा मेरा घर खड़ा मेरी प्रतीक्षा में खोल अपने द्वार – दरवाजे और खिड़कियाँ ढूंढता होगा मुझे बगल से गुजरते राहगीरों में पूछता होगा सबसे मेरे बारे में सिर पर लिए वह छत बरसों से नीचे बिछाकर छांह शीतल पानी लिए वह खडा होगा मेरी प्यास और थकान हरने के लिए क्योंकि घर को ही मालूम रहता है छांह और पानी सबसे पहली जरूरत है धूप में चलते आदमी के लिए  सोचता हूं कभी-कभी कितना थका होगा वह घर भी किंचित् मुझसे भी ज्यादा क्योंकि प्रतीक्षा में खड़ा रहना कहीं ज्यादा थकाऊ और उबाऊ है शायद लगातार चलते रहने से ! लेकिन वह चल नहीं सकता क्योंकि वह घर है और घर कभी चलता नहीं वह तो चलना खत्म होने का ही नाम  है और चलना, बस चलते रहना तो अपना काम है कभी तो खत्म होगा यह चलना और जब भी खत्म होगा तब नहीं पूछ पाओगे कब लौटता हूँ घर क्योंकि तब नहीं होगे तुम, न ही मैं भी वहाँ होगा सिर्फ वही घर जहाँ अभी तक मैं पहुँच नहीं पाया ! □□■

मुक्ति पर्व

जो फूल तोड़ते हैं वे तोड़ते हैं सपने मरोड़ते हैं संभावनाएं मारते हैं जीवन हत्यारे हैं वे मनुष्यता के असंख्य बीज के ! वे जानते हैं फिर भी तोड़ते हैं फूल और चढ़ाते हैं समाधि पर कि खुश होगा इसके भीतर का देवता और देगा आशीर्वाद “फूलो- फलो” दूर खड़ा पौधा डरा – डरा खिला लेता है फूल और कई गुने हजार वे कितना भी तोड़ें नहीं खत्म होंगे फूल शेष ही रहेंगे बीज कभी तो थकेंगी उंगलियां हत्यारिन कभी तो जागेगा वह देवता टूटते फूलों की चीख - पुकार चीर ही देगी एक दिन समाधि पर जमे पथरीले सन्नाटे को और उस दिन आकाश भी बरसाएगा फूल धरती के इन फूलों के मुक्ति – पर्व पर ! □□□

कभी न छूटे

इलाका रेतीला और पथरीला चल रही होगी सिसकी ठंढी हवा की दिवस बंज़र बांझ रातें गुमसुम सुबह उतरने नहीं देती होगी गीत किसी की आवाज़ में कहीं चिड़िया - चुरमुन नहीं न ही कोई चादर बिछी हरियाली की  उस सर्द मौसम में उग रही होगी  भेड़ की आंखों में उदासी बड़ी- बड़ी वे भूल गए होंगे झुंड में एक साथ घर का रास्ता उड़ रही होगी उनके बालों से भी जीवन की ऊष्मा  चरवाहे ढूंंढ रहे होंंगे पर मिल नहीँ रही होगी कहीं आग दूर - दूर तक उस वीरान मरु में क्षण उड़ते होंगे जैसे रेत - कण निरर्थक दिशाहीन  भरोसा नहीं रहा होगा लोगों में बिखर रहे होंगे शब्द  प्रार्थना के होठ तक आकर कबीले के बनाए हुए कानून चूूूस रहे होंगे खून भेड़ों और चरवाहों के रहा होगा दिसंंबर देह में आत्मा में तो होगा  वही तपता जून भीड़ के सूने – शिथिल कंठ में अटकी हुई होगी वह बात- कोई तो आए बनकर एक भोर का तारा और एक नन्हा सूरज सुबह का गुनगुनी धूप दिसंबर के इस सर्द मौसम में एक कुंवारी का मां बनना ऐसे अनुर्वर मौसम में कितना बड़ा उत्सव रहा होगा जब वह नन्हा सूरज उतरा होगा पृथ्वी पर लेकर प्यार की गरम थपकी करुणा का शीतल मरहम

मुद्दा अब अंधेरा नहीं

मुद्दा अब अंधेरा नहीं कहीं नहीं है अंधेरा डूबता नहीं है सूरज अब कभी कहीं रात आती होगी शायद नींद में और शाम तो जैसे सदी का सबसे बड़ा झूठ अन्यथा हुआ ही रहता है सबेरा चढ़ी ही रहती है धूप। सूखा आसमान सूखे कंठ में अटका हुआ है गान। मुद्दा अब अंधेरा नहीं बल्कि सुखाड़ है इस समय मेरी धरती का असली धोखा - नकली बाढ़ है रेत के बिछौने पर लेटी नदियों की ! □□□