" मेरे गाँव का पोखरा" / स्मृतियों का पुनर्पाठ/ समीक्षा / दिलीप दर्श

पेशे से शिक्षक कवि नीलोत्पल रमेश एक बेहद सरल और संजीदा इंसान हैं । उनकी सरलता और संजीदगी उनकी कविता में भी झलकती है। वे वास्तविक जीवन में जो हैं, अपनी रचनाओं में भी वही हैं । यह उनके पहले कविता- संग्रह 'मेरे गाँव का पोखरा' में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है । इसमें उनका व्यक्तित्व ही उनके कृतित्व में पूरी सहजता से ढल गया लगता है । यही कारण है कि यह संग्रह अपनी पठनीयता में कवि के आत्म- विस्तार या आत्म- विकास की भी यात्रा लगती हैै।

आज का कवि विरोधाभासों की कई तहों में एक साथ जीता है। वह इन विरोधाभासो को बखूबी समझता भी है परन्तु बात जब कहने या लिखने की आती है तो सामने एक अस्पष्टता - सी आ जाती है। यही नहीं, थोड़ी स्पष्टता आती भी है तो उसकी छवि  किसी व्यक्ति, विचारधारा या विमर्श से बँधकर उसके प्रवक्ता की बनने लगती है । ऐसे में खुद को मुक्तदृष्टि रख पाना एक चुनौती तो है ही और कविता को भी कविता रख पाना बिल्कुल मुश्किल काम है क्योंकि ऐसे में कविता किसी विचार या विमर्श विशेष के मुखपत्र से कभी भी सुरक्षित दूरी पर नहीं रहती। 

आज कवियों को मुख्यतया वामपंथी और दक्षिणपंथी इन्हीं दो खांचों में बांटकर देखा जा रहा है। देखनेे वालों का कहना है कि तीसरा कोई खांचा ही नहीं है । या तो आप खूनी क्रांति का झंडा लेकर बढ़ रहे हैं या आप लोकतंत्र के मंदिर में पूँजीवादी कीर्तन करने में मशगूल हैं। मजे की बात यह है कि दोनों जगह मनुष्यता की ही दुहाई दी जाती है लेकिन उनकी मनुष्यता में या तो सिर्फ मशीन है या कोई ईश्वर। एक मनुष्य को संघर्ष और टकराव की यांत्रिक ईकाई समझता है तो दूसरा इसे सड़ी- गली व्यवस्था के आगे नतमस्तक उपभोक्ता ईकाई जो जीवन को लाभालाभ के कारोबार के रूप में देखती है। उसमें मनुष्य बिल्कुल सिरे से गायब है। मनुष्य थोड़ा- बहुत है भी तो वहाँ खंड - रूप में है। वह या तो बुर्जुआ है, सर्वहारा है, राष्ट्रवादी है, भक्त है, जन है, बहुजन है, लोक है, वैश्विक है तो उत्तर आधुनिक नास्तिक या आस्तिक है। वहाँ ये चोले - चोंचले मनुष्य से ज्यादा महत्वपूर्ण या जरूरी जान पड़ते हैं। इसलिए हमारी आलोचकीय दृष्टि इन्हीं चोलों- चोंचलों से शुरू होती है और इन्हीं पर जाकर खत्म भी। हिन्दी कविता में भी ऐसे चोले - चोंचले की कमी नहीं है, न ही ऐसी खंडित दृष्टि का भी कोई अभाव है। 
नीलोत्पल रमेश की कविता न तो खूनी क्रांति का झंडा ढोती है न ही पूंजीवादी कीर्तन करती है। वह सिर्फ मनुष्य को बचाने, मनुष्यता को प्रतिष्ठित करने की कवायद करती दिखाई देती है। एक अर्थ में वे अतिवादी जनवाद और संवेदनारिक्त पूँजीवाद के बीचो-बीच अपनी कविता के लिए अपना रास्ता तैयार करते दिखते हैं जिसपर चलकर आम आदमी की पीड़ा को मुक्त मन से महसूस किया जा सके और अपनी स्मृतियों को भी बचाया जा सके। 

'मेरे गाँव का पोखरा' कविता स्मृतियों को बचाने की कोशिश ही है। गाँव का पोखरा एक स्वतंत्र जैविक ईकाई है जिसकी पारिस्थितिकी में गाँव का जीवन फलता- फूलता है । परन्तु विकास की हवा इसके पानी को उड़ा रही है। कवि की चिंता है कि यह पानी अधिकांशतः खत्म ही हो गया है। पोखरा अब पोखरी में तब्दील हो गया है । इस परिवर्तन में सिकुड़ते हृदय- प्रदेश की छवि उभरती है। गाँव की समेकित जीवन - संस्कृति के ढहने की आवाज़ समेटे यह बिंब कविता में  मानवीय संवेदना के बिखराव के कई अधोबिंदु (नेडिर्) रचता है। कवि आरंभ में ही अपनी टीस रख देता है- 

"मेरे गाँव का पोखरा/ अपने पुराने दिनों/ कभी नहीं लौट पाएगा"।

इस कविता में कवि पोखरे के सम्पूर्ण जैविक तंत्र को , उसमें आए बदलाव को सजल संवेदना के साथ उभारता है ।  कविता अपनी भाषा - प्रवाह, भाव - सामर्थ्य और शिल्प की दृष्टि से पूरी तरह खरी उतरी है क्योंकि वह कवि के अंदर अपने उत्स को खोने के हाहाकार को ढोने में सक्षम साबित हुई है । 

संग्रह के आरंभ की दो कविताएँ बच्चों को लेकर लिखी गई हैं । 'बच्चे मर रहे हैं' कविता में कवि ने देश की व्यवस्थागत संवेदनहीनता को उजागर किया है जिसके शिकार होकर बच्चे असमय मर रहे हैं और शासन- व्यवस्था अंधी बनी बैठी है। कवि लिखता है -  

'बच्चे मर रहे हैं/ एक के बाद एक / मरने का यह सिलसिला जारी है/ उसी तरह हमारा भविष्य मर रहा है/ और मर रही है सदियों की परंपरा/ और मर रहा है देश "।

ये पंक्तियाँ मुक्तिबोध की 'अंधेरे में 'की पंक्तियाँ याद दिला देती हैं - "मर गया देश / और जीवित रह गए तुम "

बच्चे स्कूल जा रहे हैं कविता में कवि ने वैचारिक पूर्वाग्रह के उस बोझ को सामने लाया है जो बच्चे स्कूली दिनों से ही अपनी पीठ पर लादे एक खास रूपाकार में बढ़ रहे हैं। संकीर्णता की विभाजक मानसिकता के बीज इन्हीं दिनों रोपे जाते हैं। कवि ने अपनी पीड़ा कुछ इस तरह लिखी है  - 

" बच्चे स्कूल जा रहे हैं/ उनकी पीठ पर बैठा हुआ है पहाड़/ पृथ्वी उसके बोझ से / असहज महसूस कर रही है/ दिखाएँ खोती जा रही हैं/ अपना संतुलन/ और चिड़िया चहचहा रही है  

यहाँ पीठ पर पहाड़ के तले दबे जा रहे विकसमान मनुष्य के जीवन के बरक्स एक चिड़िया का चहचहाना वाकई एक ऐसी स्थिति निर्मित करता है जिसमें व्यवस्था पर सवाल और व्यंग्य दोनों एक साथ सध जाते हैं।

'तुम्हें मुक्त करता हूँ' कविता में कवि अपने असली व्यक्तित्व की झलक देता है जिसकी मैंने आरंभ में ही चर्चा भी की है। वह बंधे - बंधाए लोगों को उनकी खूँटी से मुक्त करना चाहता है। कवि की आकांक्षा देखिए - कितनी सार्वभौमिक सदिच्छा है - 
"तुम सब आओ / तुम्हें मैं मुक्त करता हूँ/ अनंत आकाश में विचरने के लिए/ अपनी संभावनाओं को तलाशने के लिए "

कविता में जो सर्वग्राही, सर्वस्वीकार्य भाव -बोध रचा जाता है वही उसे श्रेष्ठ कविता बनाता है । इस लिहाज़ से यह कविता संग्रह की श्रेष्ठतम कविता भी कही जा सकती है जहाँ कवि का मन बिल्कुल स्फटिक - सा उद्भासित होता है। 
"भिखारिन की बच्ची" में कवि ऐसी स्थिति उभारता है जहाँ मनुष्य और पशु की संवेदना एक स्तर पर बोल उठती है बिल्कुल प्रेमचंद की 'पूस की रात' की तरह जहाँ हल्कू और उसके कुत्ते के बीच का योनिगत भेद लगभग खत्म हो जाता है । ऐसी स्थिति मनुष्य के जीवन की क्रूर विसंगतियां उजागर करती है। आजादी के पहले का हल्कू अभी भी जिंदा है जो भिखारिन की बच्ची के रूप में एक नहीं, बल्कि कई कुत्तों के पेट में मुँह डालकर सोने के लिए मजबूर है। 'मनातू का आदमखोर' अब सिर्फ़ पलामू के घने जंगलों तक सीमित नहीं है बल्कि उसके बहुगुणित वारिस वहाँ से निकलकर अब समाज के दूसरे हिस्सों में अलग - अलग रूपों में प्रकट हो रहे हैं। 
संग्रह की कुछ कविताएँ हैं जिनमें झारखंड में क्रांति के नाम पर चल रहे सशस्त्र संघर्ष प्रतिध्वनित होते हैं। एमसीसी के आतंक से डरी - सहमी स्थानीय आबादी के लिए चुनाव दरअसल आपदा के एक दौर की तरह आता है । 'वोट बहिष्कार' कविता में कवि ने बिना किसी पक्षधरता के सामान्य जनता की मजबूरी और भयभीत मनोदशा को सामने रखा है ।
 'आप तो महान हैं श्रीमान' कविता में कवि ने जातीय और वर्गीय चेतना या संस्कार के ढांचे में स्वयं को अनफिट बताया है  - 
"मुझे पता है श्रीमान/ क्योंकि आपके जातीय या वर्गीय खाने में/ कहीं से भी फिट नहीं बैठता हूँ मैं" 

इस संग्रह की एक अनूठी कविता है -'दशरथ मांझी'। दरअसल यह व्यक्तित्व ही इतना अनूठा है कि इनपर कवि भारत यायावर और राकेशरेणु ने भी बहुत भाव - प्रवण  कविताएँ लिखी हैं ।  फिर झारखंड में रहते हुए कवि रमेश भी इनकी अनदेखी करने का दुस्साहस कैसे कर सकते हैं  ! इसलिए  उनका कवि भी  'दशरथ मांझी' कविता में  उनके श्रम - साहस और संकल्प की महिमा गाते हुए लिखता है- 

"दशरथ मांझी/ अब भी पहाड़/ तुझे सपने में देखकर / डर जाता है/ और खड़े कर देता है/ अपने हाथों को "

मैंने देखा है मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ या झारखंड के वे कवि जो जन - चेतना की कविताएँ लिखते हैं, पलाश को कभी नहीं भूलते । खासकर जहाँ लाल रंग की बात हो या जंगल के लगी आग का कोई बिंब हो। कवि रमेश पलाश के 'लाल रंग' को किसी और अर्थ में नहीं देखते। जंगल में लगी आग उनके लिए जीवन - राग है । 'जंगल की आग कविता' में कवि लिखता है- 

" यह है धरा का वासंती वसन/ धरती की लाल गुलाबी चूनर/  है अरण्य का जीवन - राग / अरण्य की यह आग"

'कुर्सी' स्मृतियों को समेटती कविता है परन्तु यह उस अर्थ या ढंग में स्मृतियों को नहीं समेटती जिस तरह 'मेरे गाँव का पोखरा' में स्मृतियों को समेटने की कोशिश हुई है । 'कुर्सी' की स्मृतियों में दर्द और मलाल के साथ एक व्यंग्य है लेकिन 'मेरे गाँव का पोखरा' में सब कुछ गँवाकर जीने की पीड़ा है और फिर से न पाने की असफलता का निराशाजनक बोध भी।

'धरती' और 'गोरी तेरे ठाँव' दोंनो रागात्मकता से भरी कविताएँ हैं । 'जनी शिकार' आदिवासी की शिकार- संस्कृति को वर्णनात्मक लहजे में समझाती कविता है जो कहीं - कहीं सपाटबयानी लगती है लेकिन कथ्य का नयापन पाठक को बाँधे रखता है । 'कविता की पहचान' में कवि ने जिस तरीके से कविता को अलग-अलग कोणों से समझने की कोशिश की है। इसकी भाषा की प्रांजलता में गुम्फित भाव का प्रसार देखिए -

" समय को सीने में साधे/ शीत धवल हिम चादर ओढ़े / देवदार की छतरी लगाए / हिमवान् ने पूछा /....../ हिमाद्रि की सहज मुस्कान बोली / अटूट आतप की मार / झरने की फुहार / देवदार - चीनार/ रत्न- भंडार/ गहरी खाइयाँ/ श्रृंग की ऊँचाइयाँ/ एक साथ साधो/ तभी कविता को अवराधो "

संग्रह की सारी कविताएँ अपनी भाषा, भाव और शिल्प में पूरी हैं। कहीं- कहीं गँवई शब्दों जैसे 'घुरचिआह', 'अवराधो' आदि के प्रयोग से कविता में देशी मिठास और अपनापन संचरित होता है। यह कविता का सौंदर्य- पक्ष भी है, बड़े - बड़े लेखकों- कवियों ने भी भाषा के भदेस रूप को जस का तस स्वीकार किया है और लेखन को शब्द- समृध्द बनाया है ।

सरसरी तौर पर देखें तो कवि रमेश की काव्य - चेतना कहीं भी या कभी भी किसी अतिवादी विचार या संवेदना की शिकार नहीं होती। उनकी  जनपक्षधरता एक समावेशी या इन्क्लूसिव प्रक्रिया है जहाँ किसी का एक्सक्लूजन या अपवर्जन नहीं है। संवाद कभी एक्सक्लूजन से पैदा नहीं होता है। एक्सक्लूजन से सिर्फ सामाजिक टकराव या विघटन पैदा होता है। कवि रमेश टकराव या विघटन के कवि नहीं हैं। उनके कवि या कविता का सारा संघर्ष  मानवीय करुणा, स्मृति और प्रतिरोधी चेतना को बचाने का है, मनुष्यता की पीड़ा को समकालीनता का स्वर देने का है। संग्रह की कविताओं से लगता है कि यह कवि वाद और विवाद की खींच - तान से निकला दरअसल संवाद का कवि है जो दक्षिण और वाम के दो अतियों के बाहर या बीच से खुद को बचाते हुए एक तीसरे मोर्चे की तलाश में आगे बढ़ता दिख रहा है।

कविता- संग्रह- मेरे गाँव का पोखरा 
कवि - नीलोत्पल रमेश 
प्रकाशन - प्रलेक प्रकाशन, मुंबई 

         -- दिलीप दर्श
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