August 13, 2020

प्रतिबद्धताओं का अनूठा स्वर हैं प्रेम नन्दन की कविताएं / प्रद्युम्न कुमार सिंह / समीक्षा

प्रतिबद्धताओं का अनूठा स्वर हैं प्रेम नन्दन की कविताएं / प्रद्युम्न कुमार सिंह


प्रेम नन्दन ग्राम्य जीवन से जुड़ा हुआ एक ऐसा नाम है जो पूरी प्रतिबद्धता के साथ सृजन कार्य में लगा हुआ है। यद्यपि वे मेरे गृह जनपद के हैं किन्तु मेरी उनसे पहली मुलाकात बांदा जलेस के कार्यक्रम के दौरान हुई । पहली मुलाकात संक्षिप्त किन्तु सार्थक रही और यही से मैं उनके भीतर छिपे कवि को जान और समझ सका। उनकी बहुत सी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपती रहती हैं। हाल ही में लोकोदय प्रकाशन लखनऊ से प्रकाशित कविता संग्रह 'यही तो चाहते हैं वे' काफी चर्चित हुआ।

उनका रचनात्मक जीवन लगभग मेरे साथ ही प्रारम्भ हुआ। यह महज एक संयोग है कि वे मेरे ही जनपद से आते हैं। उनकी कविताई ठेठ गवई अंदाज की है। वे जो महसूसते हैं वही लिखते हैं । जब उन्हे पढ़ा तो पाया कि इस युवा कवि की कविताएं चेतना रूपवादी, कलाकृतियों, व रोमैन्टिक भावावेग की आभासी तुलनाओं से निसृत सूक्तियां मात्र नहीं हैं बल्कि कवि के उत्तप्त अनुभवों की भट्ठी में अंगार सदृश्य लोहे की प्रतिक्रियावादी विचारों को भयाक्रान्त करती हैं। उनकी कविताओं की बुनावट आज के परिवेश के चतुर्दिक फैले हुए वैचारिक तंतुओं से की गई है। जिसमें एक सलीका है, शोरगुल की उठापटक से दूर छोटे से शहर छोटे से गाँव में रहकर प्रेम नन्दन ने समय,समाज और जीवन को बेहतर ढंग से समझने का प्रयास किया है।

प्रेम नन्दन सामान्य वाक्यों और शब्दों को भी सूत्र वाक्य की तरह प्रयोग करने में सक्षम हैं। जैसे अफवाहें बनती बातें,  गाँव की पगडण्डियां, आदि । उनकी एक कविता 'अफवाहे बनती बातें'  में उन्होंने बड़ी ही खूबसूरती से जनसामान्य के बीच फैले भ्रम को उज़गार करने का जो कार्य सहज ढंग से किया है वह शायद ही दूसरे रचनाकारों के यहाँ मिले। इसी प्रकार गाँव की पगडण्डिया प्रत्येक ग्राम्य वासी की रगों में दौड़ते रुधिर में समाई रहती हैं वे उसके जीवन का अभिन्न हिस्सा होती है जिससे किसी भी सूरत में उसे अलग नहीं किया जा सकता है।

प्रेमनन्दन की 'गाँव की पगडण्डियां' कविता उसी को उद्‌घाटित करती है। कवि शहर को एक छलावा मानता है जहाँ पर रिश्ते-नाते, मित्रता, यहाँ तक अपना वजूद भी खो जाता है। जिस प्रकार से वर्तमान समय में लोगों का सपने लेकर गाँव से शहरों की ओर पलायन हो रहा है वह खतरनाक प्रवृत्ति का द्योतक है। मेरी अनौपचारिक वार्ता के दौरान कवि प्रेमनन्दन ने जिस सच को उद्धाटित किया उसे सुनकर किसी की भी सहृदय की रूह काँप जाये। भट्टा मालिकों के अत्याचार, पुलिसिया अत्याचार, घाट के ठेकेदारों द्वारा मल्लाहों पर हो रहे अत्याचार के साथ ही सभ्य कहलाने का दम्भ भरते शहरी लोगों का दोयम व्यवहार ग्राम्य जीवन को तवाह कर रहा है। इस पीड़ा को उन्होने अपनी कविता 'गाँव की पगडण्डियां' में स्पष्टतः देखा जा सकता है। जहाँ पर उनके गुमने का आसन्न खतरा मड़रा रहा है। उन्ही के शब्दों में -

'सच यही है/ कि बातें वहीं से शुरू हुईं/ जहाँ से शुरू होनी चाहिए थीं/ लेकिन खत्म हुई वहाँ/ जहाँ नहीं होनी चाहिए।'

उनका यह संग्रह मात्र कविताओं का संग्रह ही नहीं अपितु उनकी अन्तर्वेदना का प्रतिविम्ब भी है जो कविता बन फूटा और अजस्र धारा बन अनवरत प्रवाहित हो रहा है। जब मुसीबतें और चुनौतियां तेजी से हमारी ओर बढ रही होती हैं और बचाव के दो रास्ते हो जिनमें से एक रास्ता परिस्थियों के आगे घुटने टेकना और दूसरा उसका डटकर मुकाबला करना हो। ऐसे समय में जब पैर पीछे हटा लेने और उनसे पीछा छुड़ाकर भाग जाने से समस्याओं का हल नहीं निकलता क्योंकि भागना किसी भी समस्या का समाधान नहीं होता वरन् दृढ मन, विवेक सम्मत उपाय एवं धैर्यपूर्ण सोच से आई मुसीबतों का मुँहतोड़ जवाब दिया जा सकता है ।

मुसीबतें और चुनौतियां हमें कुछ अलग सीखने का अवसर प्रदान करती हैं। जब पुराना कौशल और नया अनुभव मिलता है तो एक नये जहान की निर्माण होता है। प्रेम नन्दन ग्राम्य परिवेश से आते हैं जहां पर समस्याओं का अम्बार होता है जिनसे उलझाव रोजमर्रा का काम है। उनके धनिया, मूली, गाजर, आलू, टमाटर, प्याज, दूध,दही और मक्खन मात्र निर्जीव वस्तुएं नही हैं बल्कि सजीवों जैसा बर्ताव करते हैं। जैसे आम व्यक्ति की पहुँच बाजार तक नहीं होती या यूं कहें कि पूंजीवादी बाजार व्यवस्था में सहज सी दिखने वाली वस्तुएं भी सहजता से उपलब्ध नहीं हो पाती हैं।

आज पूंजी का मकड़जाल जनमानस को इतना अधिक अपने में जकड़ लिया है कि उससे सहज छूट पाना सम्भव नही है ऐसे में कवि का चिंतित होना एक संजीदगी का जीवित बचे रहना है। अक्सर पूंजी की वैश्विक चमक-धमक के आगे सारी व्यवस्थाएं घुटने टेक चुकी हैं।  ऐसे समय प्रतिरोध की एक छोटी सी चिनगारी भी निश्चित रूप से स्वागत योग्य होती है । प्रेम नन्दन ऐसी ही सम्भावनाओं को जीवित रखने की मुहिम है-

'बाहर न निकल जायें / चादर से / इस कोशिश में /कई कई बार / काटना पड़ा पैरों को / चादर में अटने के लिए / अब और कटने को तैयार नहीं / पैरो की खुली चुनौती है / चादर अब छोटी होकर तो देखे / पैर भी कम जिद्दी नहीं हैं।'

भाव या विचार किसी भी कविता का प्राण तत्व होता है कविता कोई भी हो वह न तो विचार रहित होती है ना ही भाव रहित होती है मगर इन सबसे जुदा और जेनुइन मुद्दा भाव एवं विचारों की जमीन और उसका मूल स्रोत होता है। प्रेम नन्दन की रचनाएं गुम्मित चेतन व्यापार की ठोस जमीन के आधार पर टिकी होती हैं जिन्हें वहां से हटाने का प्रयास मानों ठोस जमीन को भसकाने के असफल प्रयास जैसा होगा। वे डंके की चोट पर औचित्यहीन किन्तु आवश्यक बताये जाने वाले उपायों के विरोध में खड़े मिलते हैं -

    'जबकि ठगे जा चुके हैं वे/ कई कई बार/ कुछ शातिर लोगों द्वारा / उसी ईश्वर के नाम पर'

वे संघर्ष को जीवन के लिए आवश्यक मानते है किन्तु यह संघर्ष सार्थक दिशा में हो ना कि कुत्तों की तरह स्वार्थी होकर मुख्य कार्य को परित्यागकर अल्पलाभ के दृष्टिभ्रम का शिकार होकर आपसी एकजुटता को खत्म करने की दिशा में कदम बढ़ाये -

'लड़ना था हमे / भय ,भूख , और भ्रष्टाचार के खिलाफ / हम हो रहे थे एकजुट / आम आदमी के पक्ष में / पर कुछ लोगों को / नहीं था मंजूर यह / उन्होंने फेंके कुछ ऐंठे हुए शब्द / हमारे आस पास/ और लड़ने लगे हम/ आपस में ही '

प्रेम नन्दन की बहुत सी कविताएं उन लोगों की चर्चा करती हैं जो व्यवस्था और उसके तौर तरीकों के प्रतिरोध का शंखनाद करते हैं।  उनकी सहज दिखने वाली कविताएं भी संवेदनशून्य होते समाज के प्रति संवेदना जगाने का कार्य करती हैं। जैसा चुनाव से सम्बधित उनकी कविता देखी जा सकती है -
'चुनावी साल में/ मुद्दो के अकाल में/ क्यों न हम/ किसी मुजफ्फरनगर के/ जिन्दा लोगों को मुर्दा करके/ उन्हे ही मुद्दा बना लें/ और उनकी लाशों को/ चुनावी झण्डों की तरह लहराकर/ जलती बस्तियों/ रक्तरंजित रास्तो पर'

प्रेम नन्दन का प्रतिरोध किसी के प्रति व्यक्तिगत नहीं है वरन हिंसा और उसके कारणों से है वे हिंसा के विरुद्ध प्रतिहिंसा का समर्थन कतई नहीं करते हैं उनका मानना है कि प्रति हिंसा भी उतनी ही घातक होती है जितनी कि हिंसा।  उनका मानना है कि बाजार सब कुछ बड़े शातिराना अंदाज में रहस्यलोक में तब्दील करता जा रहा है जहां पर ख्वाहिशें तो हैं पर उनका मुकम्मल समाधान नहीं है। ग्राम्यबोध और श्रम बोध उनकी कविता का प्राणतत्व है जिसे वे हर हाल में बचाये रखने में सफल हुए हैं क्योंकि वे इसे शौकिया नहीं बल्कि आत्मसात किये हुए आगे बढ़ते हैं। आज जब मुद्दों से भटकाव एक सहज अभिरुचि बन चुकी है ऐसे समय में प्रेम नन्दन जैसी प्रतिबद्धता विरले रचनाकारों में मिलती है प्रेम नन्दन की स्त्री प्रकृति के साथ तदात्म स्थापित करने का हर सम्भव प्रयास करती नज़र आती है -

'बादलों को ओढे हुए/ कीचड़ में धंसी हुई/ देह मोड़े कमान सी/ उल्लासित तन मन से/ लोकगीत गाते हुए/ रोप रहीं धान/ खेतों में औरतें'

उनका प्रतिरोध उन्हें अनूठा कवि घोषित करता है। संघर्ष की उद्‌घोषणा वे खुद करते है या यूं कहें संघर्ष को अन्तिम सम्भावना घोषित करते है -

'लड़ो/क्योंकि लड़ना ही/ जिन्दगी की अन्तिम सम्भावना है।'

वे सामाजिक व्यवस्था में हो रहे भेदभाव से असहमत दिखते हैं। उनकी कविता 'कौन हैं वे लोग' में इस बात को स्पष्ट देखा जा सकता है -

 'निचोड़कर पसीने की/ एक एक बूंद/ हमने उगाईं/ फसले अनेक/ लेकिन हमारे पेट/ भूखे ही सोये'

आज के समय की विडम्बना यह है कि अपने स्वार्थ की प्रतिपूर्ति के लिए सभी कुछ मे तदात्म स्थापित किया जाता है और उसी के अनुरूप ही हम उसकी उपयोगिता एवं अनुपयोगिता सिद्ध करते हैं प्रेम नन्दन इसे समाज के लिए घातक मानते हैं। वे कहते हैं - 

'ऐसे कठिन समय में/बातों का अफवाहें बनना ठीक नहीं है।'

प्रेम नन्दन की कविताएं मानव की जिजीविषा को समर्पित हैं जिसका मूल मन्त्र है संघर्ष और चुनौती। चुनौतियों को स्वीकार कर संघर्ष के लिए तत्पर रहना। यह चुनौती ही होती है जो किसी भी व्यक्तित्व को संघर्ष के माध्यम से संवारती है। अब और कटने को तैयार नही पैरों की खुली चुनौती है -

'चादर अब छोटी होकर तो देखे/ पैर भी कम जिद्दी नहीं हैं।'

कवि का संघर्षबोध मांसलता के खिलाफ है। वह सदैव चुनौतियों के पक्ष में खड़ा दिखता है इसके लिए वह स्पष्ट कहता है कि वही उसके पास आये जो संघर्ष, श्रम और माटी से जुड़ना चाहता है -

'जिन्हे देखना हो संघर्ष / सुनना हो श्रमजीवी गीत / चखना हो स्वाद पसीने का / माटी की गन्ध सूंघनी हो / कष्टों को गले लगाना हो / वे ही मेरे पास आयें।'

कवि गाँव और उसके पर्यावरण को सुरक्षित रखने के प्रति संजीदा है। वह मानता है शहरी आबोहवा गाँव के सोंधेपन को नष्ट कर रही है क्योंकि शहरीपन अपने साथ कई तरह की लाइलाज बीमारियां ला रहा है जिससे सम्पूर्ण ग्रामीण परिवेश दूषित होता जा रहा है जिसे बचाने की आवश्यकता है-

'अभी अभी किशोर हुई/ मेरे गाँव की ताजी सांसें हो रही हैं दूषित/ सूरत मुम्बई लुधियाना में/ लौट रहीं हैं वे/ लथपथ / बीमारियों से/ ग्रस्त/ दूषित दुर्गन्धित / उनके सम्पर्क से/ दूषित हो रही हैं/ साफ ताजी हवाएं/ मेरे गाँव की।'

कवि संसार को अनन्त संभावनाओं से युक्त मानता है और वह उन्ही सम्भावनाओं के प्रति लोगों को जाग्रत करना अपना कर्तव्य मानता है। वह इस बात को जोर देकर कहता है -

'अब भी / बहुत सारी सम्भावनाएं शेष हैं।'

आज के समय में जब व्यक्ति का स्वार्थ ही सर्वोपरि हो और प्रत्येक स्थान पर दिन प्रति दिन अपना प्रभाव जमाता जा रहा हो ऐसे समय में प्रेम नन्दन की कविताएं उम्मीद की एक किरण लेकर हमारे समक्ष उपस्थित होती हैं। उनके चेहरों से स्वार्थ के मुखौटों को नोंच फेंकती हैं जो उजले वस्त्रों की सफेदी के पीछे छुपे रहते हैं वे उन्हे उनकी मांदों से निकलने के लिए विवश करते हैं -

 'मदारियों के/ आधुनिक संस्करण हैं वे/ आग और पानी को/ कागज पर बाँधकर/ जेब में रखना जानते हैं।'

ईश्वर के नाम पर लोगों को गुमराह करने वालों एवं उनके मानने वालों के प्रति प्रेम नन्दन का नज़रिया बिल्कुल स्पष्ट है वे उन्हे डरपोक कहकर सम्बोधित करते हैं। उनका मानना है जिसमें पुरुषार्थ करने का साहस नहीं होता है वे ही लोग ऐसे अज्ञात ईश्वर को ढाल बनाते हैं और समाज को कर्म से विमुख कर अकर्मण्य बनाने का कुत्सित प्रयास करते है उनके द्वारा उपदेशित वही समाज अपनी नाकामियों को अज्ञात ईश्वर पर आरोपित कर अपने निठल्लेपन को सदा सदा के लिए छिपा लेता है वे कहते है -
'खुद पर भरोसा/ न करने वाले/ डरपोक लोग ही/ करते है विश्वास/ अंधे/गूंगे/बहरे/ मानसिक व शारीरिक रूप से/ पूरी तरह अपाहिज/पूजागृहों में कैद/ अज्ञात ईश्वर पर।'

शीर्षक कविता 'यही तो वे चाहतें हैं' में कवि प्रेम नन्दन उद्घोष करते हैं कि हमें जिन मुद्दों पर एकजुट होना चाहिए था उन्ही मुद्दों पर हम बिखरे हुए नज़र आते हैं और जिन मुद्दो पर अलग अलग नज़र आना चाहिए था उन मुद्दों के साथ तन्मयत के साथ जुड़े हुए दिखते हैं। हम वहीं कार्य कर रहें हैं जो हमसे सत्ता प्रतिष्ठान और आवारा पूंजी करवाना चाहती है। यद्यपि हम उससे बार बार विमुख होने की घोषणाएं करते हैं। इस सच को उन्होंने बड़ी ही सहजता से उकेरा है। इस समझने के लिए उनकी कविता दृष्टव्य है -

'वे मुस्कुरा रहें हैं दूर खड़े होकर/ और हम लड़ रहें हैं लगातार/ एक दूसरे से/ बिना समझे हुए/ कि यही तो चाहते हैं वे।'

वहीं खामोश आँखों की भाषा नामक कविता में मेहनतकश श्रमिकों की पीड़ा झलकती है। जब मेहनत करने के बावजूद उसे न ताे उसका वाजिब दाम मिलता है न ही समय पर ही मिल पाता है। किन्तु उनकी उम्मीद उन्हे जीवटता प्रदान किये रहती है प्रेम नन्दन इसी उम्मीद को ही दुनिया की सर्वश्रेष्ठ अनुभूति कहते हैं -

'बहुत अच्छी हैं/ अपने मेहनताने की आस में/ टुकुर टुकुर झरती / खामोश आँखों की भाषा।'

प्रेम नन्दन हाशिये पर ढकेल दिये गये लोगों को उत्साहित करते हैं। क्योंकि हासिये में स्थिति लोगों के मन में एक अनाम डर, खौफ के रूप में घर कर जाता है और उनके शब्द हुंकार की जगह दिन प्रति दिन ठण्डे पड़ते जाते हैं। कवि प्रेम नन्दन ऐसे ही शब्दों में आक्रोश भरते नज़र आते हैं।

 गाँवों से शहरों की ओर हो रहे पलायन के प्रति कवि चिन्तित है वह पलायन के विरुद्ध विरूदावलियां गाने के स्थान पर हुंकार भरता है। उसका मानना है कि लोगों का यह पलायन मात्र कुछ लोगों या वस्तुओं का पलायन मात्र नहीं है वरन् यह पलायन एक सभ्यता का पलायन है जिसके कारण उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ता जा रहा है-

'गाँव में/ जीने की खत्म होती/ सम्भावनाओं से त्रस्त/ खेतिहर नौजवान पीढ़ी/खच्चरों की तरह पिसती है/ रात दिन शहरों में/ गालियों के चाबुक सहते हुए/ गाँव की जिन्दगी/ नीलाम होती जा रही है/ शहर के हाथों/ और धीरे धीरे/ निर्जीव होते जा रहें हैं गाँव।'

कवि प्रेम नन्दन संघर्ष को ही जीवन का उद्देश्य मानता है। उसके अनुसार संघर्ष ही सफलता की प्रदाता है। संघर्ष के बगैर संसार की कोई भी वस्तु सुरक्षित नही है संघर्ष ही संसार नियम का व्याख्याता है अतः किसी वस्तु के सुरक्षित रहने के लिए संघर्ष ही एकमात्र विकल्प है। प्रेमनन्दन को संघर्ष में ही अन्तिम सम्भावना दिखाई पड़ती है इसीलिए वे कहते हैं -

'लड़ो/ क्योंकि लड़ना ही /जिन्दगी की अन्तिम सम्भावना है।'

प्रेम नन्दन समाज के दोहरे चरित्र की ओर भी लोगों का ध्यान आकृष्ट करते है। अक्सर देखा जाता है लोगो के दुभंतिया व्यवहार। उनकी कथनी और करनी में फर्क होता है। इस बात को वे अपनी कविता में स्पष्ट रूप से उकेरते हैं -

'सोमवार की पवित्रता/शनिवार को कैसे हो जाती है अपवित्र।'

              कवि  पर हाशिये पर ढकेल दिये गये लोगों के सपनों के जिन्दा होने की बात करता है क्योंकि किसी भी व्यक्ति की जीवटता उसकी दृढ़ इच्छाशक्ति व विश्वास से होती है और दृढ़ इच्छाशक्ति देखे गये स्वप्नों के पूरा करने की इच्छा पर निर्भर करती हैं और वही इच्छाशक्ति उसमे दृढ़विश्वास एवं जीवन की आशाओं का संचार करती है। उन्होंने इस तथ्य को अपनी कविता सपने अभी जिन्दा हैं में उद्घाटित किया है -

'मर नही गये सब सपने / कुछ जिन्दा हैं अब भी।'

                    प्रत्येक वस्तु का अपना एक स्वर्णिम युग होता है और वह अपने युग की स्मृतियों को अपने भीतर सहेजे रहता है किन्तु आगे आने वाले समय में उसकी उपयोगिता कैसे और कितनी रह जाती है रह भी जाती है या समाप्त ही हो जाती है इस बात की तश्दीक करती उनकी कविता" बीता समय" देखी जा सकती है। बरगद, कुंए,पनघट पर लोगों का इकट्ठा होना, बाल्टी और घड़े की तू तू मैं औरतों और लड़कियों की स्वाभाविक खिलखिलाहट, राख की आग का ठण्डा होना वृद्धावस्था की परेशानियां किस प्रकार सभी के जीवन में उदासी होती है को कवि प्रेम नन्दन ने बहुत ही नज़दीक से महसूस किया है और के सापेक्ष उन्होने उसे व्यक्त किया है -

'क्योंकि लोग उनके पास/राय मशविरा करने/ उनके सुख दुःख सुनने/ अब नहीं आते हैं।'

कवि हकीकत को नज़रअंदाज नहीं करता बल्कि उनसे अपनी उम्मीदों को जोड़कर उन्हे बदलने को प्रयास भी करता है । वह कहता है -

'मै जानता हूँ/ फिर भी कोशिश करता रहता हूँ लगातार/ इस विश्वास के साथ/ कि मेरा प्रयास/बदल देगा एक दिन/लहरों के कैनवास में/रेत को शिलाओं में/सोच की हकीकत में।'

प्रेम नंदन 

इस प्रकार कहा जा सकता है प्रेम नन्दन की कविताएं रंगीन कागजों से बने पुष्प नहीं है जो कृत्रिम गमलों में अतिथियों के स्वागत में रोप दिये जाते हैं और फोटू-सोटू की औपचारिकताएं निभाकर अगले अतिथि के आने की प्रतीक्षा में समेटकर सुरक्षित रख दी जाती हैं बल्कि उनकी रचनाएं वे हैं जो श्रम के खुरदुरेपन को अपने में समेटे हुए अपनी खुशबू से सम्पूर्ण मानवता को सुवासित करने की इच्छा रखती है। □□□

प्रद्युम्न कुमार सिंह
बबेरू-बाँदा उ०प्र०
मोबाइल-08858172741
ईमेल-pksingh1895@gmail.com

1 comment:

  1. अच्छी समीक्षा। प्रेम नन्दन हमारे दौर के महत्त्वपूर्ण युवा कवि हैं। उनके पास अपने समय व समाज की समझ है और उसे व्यक्त करने की काव्यकला और कौशल भी। पीके ने इसे ही अपनी समीक्षा का आधार बनाया है। कवि व समीक्षक दोनों को हार्दिक बधाई।

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