August 20, 2020

मेनसियस और आधुनिक चीन

मेनसियस चीन में एक बड़े दार्शनिक हुए। वे 372 (ईसा पूर्व ) में पैदा हुए थे। वे कनफ्यूशियस के लगभग सौ साल बाद आए थे और प्लेटो एवं अरस्तू के समकालीन थे।
मेनसियस मूलतः लोकतांत्रिक विचारक थे। यद्यपि चीन में भी उस वक्त राजा का ही शासन था। ऐसे में लोकतांत्रिक मूल्यों- आदर्शों की बात करनी, चर्चा करना, उसकी वकालत करना एक बड़ा साहसिक कार्य था।
कहते हैं, मेनसियस एक दिन लियांग के राजा ह्यूएइ के पास गया। राजा ने बहुत आदरपूर्वक उन्हें बिठाया, हाल - चाल पूछा और कहा, " हे पूज्य पुरुष! एक हजार "ली" तय कर आप यहाँ पधारे हैं, मुझे लगता है इससे मेरे राज्य को अवश्य कोई लाभ (मुनाफा/ profit) होगा।"
मेनसियस ने जबाब दिया," क्या मैं जान सकता हूँ, महाराज ने यहाँ "लाभ" शब्द का प्रयोग क्यों किया? जबकि मैं यहाँ कोई लाभ के विषय पर चर्चा करने या कोई मुनाफे का संदेश लेकर नहीं आया।"
राजा थोड़ा सकपकाया । वह मुनाफे और तिजोरी को ही राज्य की खुशहाली के लिए सबसे जरूरी मानता होगा।
मेनसियस ने आगे कहा," महाराज ने पूछा है कि राज्य के "लाभ" के लिए क्या किया जाए ? तो स्वाभाविक है कि उनके बड़े अधिकारी पूछेंगे कि उनके परिवार के 'लाभ' के लिए क्या किया जाए? उनसे छोटे पदाधिकारी पूछेंगे कि उनके आदमी के "लाभ" के लिए क्या किया जाए? ऐसे में तो पूरा देश खतरे में पड़ जाएगा। दस हजार रथवाले इस राज्य में एक हजार रथवाले परिवार का मुखिया तो ऐसे में अपने राजा का ही हत्यारा हो जाएगा।एक हजार रथवाले राज्य में उसके प्रमुख को तो वहाँ सौ रथवाले परिवार का मुखिया मार डालेंगे। यद्यपि दस हजार में एक हजार और एक हजार में एक सौ कोई बड़ी बात नहीं, कोई बड़ी संख्या नहीं है, कुछ ज्यादा नहीं बिगड़ेगा लेकिन धर्म ( righteousness, धार्मिकता, सच्चाई) को अंत में और "लाभ" को पहले रखा जाए तो ये सब लोग एक दूसरे को लूटे - मारे बिना पूरी तरह संतुष्ट हो ही नहीं पाएंगे।
ऐसा कभी नहीं हुआ कि परोपकार जाननेवाले व्यक्ति ने कभी अपने माता-पिता की अवहेलना की और कभी ऐसा भी नहीं हुआ कि "धार्मिकता" के जानने वालों ने अपने  राजा की अनदेखी की या उन्होंने पहले उनसे पूछा नहीं। इसलिए महाराज ! धार्मिकता और परोपकार ही अभीष्ट और जानने योग्य है न कि लाभ या मुनाफे के नुस्खे ।"
मेनसियस की इस बात पर आज इस इक्कीसवीं सदी में बैठ विचारता हूँ तो लगता है मेनसियस या तो कोई बड़ा मूल्यवादी दार्शनिक था या कोई चतुर चालाक राजतंत्र का पुजारी व्यक्ति जिसकी दार्शनिकता में राजा और राज्य को बचाने की चिंता थी न कि लाभ आधारित राज्य को हतोत्साहित करने की। यद्यपि मेनसियस का यह "लाभ" पूँजीगत नहीं बल्कि "व्यक्तिगत" लगता है लेकिन उनका बोध बिल्कुल साफ लगता है कि लाभ या मुनाफा आधारित समाज में गले ही काटे जाते हैं चाहे वह राजतंत्र हो या पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था ।
मैंने मेनसियस के इन वचनों को कितना सही समझा मुझे नहीं मालूम परन्तु यह तो अवश्य मालूम पड़ता है कि चीन का समाज ऐतिहासिक- पारंपरिक रूप से वह समाज नहीं है जिस रूप में वह दिख रहा है या दिखाया जा रहा है । मेनसियस जिस मूल्य पर जोर देता है और जिसे हतोत्साहित या च्युत करता है वह देखने लायक है और उनका चिंतन - दर्शन किसी प्राचीन भारतीय या ग्रीक मनीषा से कम नहीं है । चीन के आधुनिक शासन - अवतारों ने लाभ के लिए मेनसियस को सहस्राब्दियों पीछे छोड़ दिया है। नई मूल्य - व्यवस्था ( value system) में मेनसियस कहीं नहीं है क्योंकि मेनसियस में नई मूल्य- व्यवस्था कहीं नहीं है । □□□

             

No comments:

Post a Comment

नवीनतम प्रस्तुति देखें

अवधू, चहुँ दिसि बरसत नोट

अवधू चहुँ दिसि बरसत नोट।  सब झोरी सिलवाय रहै अब खोल - खोल लंगोट। खूब बजावहु ढोल विकासी दिन भर दै दै चोट। रात बैठ नेपथ्य मचावहु गुप - चुप लूट...