मेनसियस और एक टेढ़ी उँगली / प्राचीन चीनी चिंतन

मेनसियस 
स्वयं की कमियों को समझने के लिए  मेनसियस ने मनुष्यता को एक दृष्टि दी है । यह दृष्टि दो हजार साल से भी अधिक पुरानी है, हम कह सकते हैं लेकिन दृष्टि तो दृष्टि है। वह हमेशा जिन्दा रहती है और कभी भी हमारी आँखें खोलने में सक्षम होती है। 
दूसरी बात, मनुष्य की मूलभूत समस्या अभी भी वही है जो दो - तीन हजार साल पहले थी। यह समस्या किसी भौतिक सुख - सुविधा से जुड़ी नहीं है बल्कि यह समस्या मनोवैज्ञानिक है। स्वयं को बेहतर व्यक्त करना अभी भी मनुष्य की मूलभूत चिंता है और व्यक्त न कर पाने की हालत में अपनी कमियों- दोषों पर विचारना, उन्हें दूर करने के उपायों पर सोचना तथा अपने जीवन को कमियों- दोषों से पूरी तरह मुक्त कर लेना अभी भी एक बड़ी समस्या है। आधुनिक मनुष्य इस अर्थ में बुद्ध से जितना सीख सकता है उतना ही मेनसियस से भी सीख सकता है ।
मनुष्य में जो कमियाँ हैं उनके बारे में मेनसियस कहते हैं," एक आदमी है जिसकी चौथी उँगली टेढ़ी है। यह सीधी नहीं खिंच पाती। यह दुखती भी नहीं है न ही किसी कार्य में कोई व्यवधान करती है।"
उसके टेढ़ी रहने से उस आदमी की हथेली की क्षमता कभी प्रभावित नहीं होती। अक्सर वह भूल ही जाता है कि उसकी एक उँगली  टेढ़ी भी है। परन्तु जब वह दूसरे की उँगलियाँ देखता है तो उसे अपनी कमी का एहसास होने लगता है। जबतक वह आदमी दूसरों की तरफ नहीं देख रहा था तबतक वह उँगली अपनी तमाम कमियों के बावजूद या सर्वदोषसहित भी खटक नहीं रही थी और उसकी कार्यशीलता पर भी कोई असर नहीं था। परन्तु वह खटकने लगती है  जब वह दूसरों की तरफ देखता है,  उनकी सीधी उँगलियाँ देखकर अपनी उँगली के टेढ़ापन को महसूस करने लगता है । कभी - कभी तो यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि उसे अपनी उँगली का टेढापन अधिक खटकता है या दूसरों की सीधी उँगलियाँ ज्यादा चुभती हैं !
मेनसियस सही कहते हैं," टेढ़ी उँगली से जीवन में भले ही कुछ कमी पैदा नहीं होती परन्तु तुम्हें अगर पता चल जाए कि कहीं कोई उँगलियाँ सीधी करने वाला भी है तो तुम 'चि - उ' से लेकर 'चि - इ' तक का लंबा रास्ता पैदल भी जाने को तैयार हो जाओगे क्योंकि तुम्हारी असली असंतुष्टि यह है कि तुम्हारी उँगली दूसरों की उँगलियों की तरह नहीं है। परन्तु तुम इस बात से असंतुष्ट कहाँ होते हो कि तुम्हारा मन दूसरों के मन जैसा नहीं है ? यह तुम्हारा अज्ञान है और यह अज्ञान दरअसल वस्तुओं के आपेक्षिक महत्व के प्रति अज्ञान ( इग्नोरंस आॅफ रिलेटिव इम्पोर्टेंस ) है ।"
मेनसियस के यह वचन अद्भुत हैं। उसकी बात में दम है। जो हमारे पास नहीं है उसका महत्व हमें कैसे मालूम ? हमें तो उसी का महत्व मालूम होगा जो हमारे पास है। लेकिन वास्तविक जीवन में हम करते क्या हैं ? जो हमारे पास नहीं है उसके अपने पास न होने से क्या फर्क पड़ता है हम वह नहीं देखते। हम यह देखते हैं कि दूसरे के पास जो भी है वह हमारे पास भी हो, भले ही उसके अपने पास होने का कोई तर्कसंगत कारण हो या नहीं हो। वहीं बात जब दूसरों के मन की आती है तो हम अपने मन की कमियाँ कहाँ महसूस करते हैं ? हम ये इसलिए महसूस नहीं करते क्योंकि हमें दूसरों का मन दिखता ही नहीं है जिस तरह हमें दूसरों की उँगलियाँ दिखती हैं। सारी कमियाँ जो दिखती हैं वे कितनी वास्तविक हैं, हम यह नहीं देखते। 
काश ! हम समझ पाते कि कमियाँ हमेशा आपेक्षिक होती हैं और अगर अभाव भी है तो अपने अभाव का संबंध सिर्फ स्वयं से है दूसरों से नहीं। मेनसियस की यह जीवन - दृष्टि अभी भी कितने काम की है ! 

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