कविताएँ पढ़ते हुए

कविता का पाठक होना आसान नहीं है। कविता अब वह नहीं है जो स्मृति- श्रुति की परंपरा ढो सके। स्मृति - श्रुति - परंपरा की कविता में उतरना आसान है क्योंकि वहाँ छंद - सुलभ लय की लहर है, एक धारारेखित प्रवाह भी है जो पाठक को खींचता है और अंत तक बाँधे भी रखता है।
अभी इस दौर में कविता में लय खोजनी पड़ती है, प्रवाह को पहचानना पड़ता है। इसमें सीधे - सीधे उतरना कभी - कभी अरुचिकर भी लगता है। परन्तु एक बार लय और प्रवाह की पकड़ मिल जाए तो कविता अब एक साथ कई अनुभूतियों से भर देती है। ये अनुभूतियाँ एकरस या एकरूप नहीं होतीं । इनमें एक साथ कई तरह के रंग, रूप और रस अवतरित होते महसूस किए जा सकते हैं । इनमें जीवन के अनेक फलक खुलते देखे जा सकते हैं । ये कभी - कभी पाठक की दृष्टि को अचंभित भी करते हैं तो कभी चमत्कृत भी।

किसी भी कविता से गुजर कर आप वही नहीं रह जाते जो आप कविता में उतरने से पहले होते हैं। यही अनुभूति कविता की सफलता है। इसी में कवि कर्म की सार्थकता भी है। जो कविता हमारी संवेदना को झंकृत नहीं कर पाती, हमारी आत्मा को छू नहीं पाती वह सिर्फ रूप (फाॅर्म) या ढांचे में कविता - सी दिख सकती है, लेकिन वह कविता नहीं हो सकती। कविता सिर्फ शब्दों का संयोजन नहीं है। शब्द अपने आप में भले ही स्वतंत्र अर्थ रखते हों लेकिन उनकी अर्थवत्ता तभी सार्थक होती है जब उन्हें अनुभूति का वाहक और कल्पना का गाहक बनाया जा सके। ऐसा करने में जो कवि माहिर है उनकी कविता में संवेदना का उत्कर्ष पैदा हो सकता है अन्यथा संवेदना सिर्फ एक सपाट अनुभव दे जाती है।

मेरी राय में कविता में हरेक जगह और हरेक क्षण कविता नहीं होती। कविता के सम्पूर्ण प्रसार में कुछ ही ऐसे बिन्दु या स्थितियाँ होती हैं जहाँ कविता साकार हो उठती है या कहें कि जहाँ पाठक कवि की के भीतर का वह सब कुछ देख लेता है जो कवि अपनी कविता में दिखाना चाहता है ।  संवेदना की झनझनाहट कविता में कहीं कहीं ही महसूस की जाती है। ऐसे बिन्दु या ऐसी स्थितियाँ ही कविता के बाकी फैलाव या अवयव को उसके अंग - उपांग के रूप में प्रतिष्ठापित करती हैं अन्यथा कविता के फैलाव में सारे अवयव बस रूप की निर्मिति तक ही सीमित रह जाते हैं, उनमें ऐसी कोई चेतना नहीं रह जाती जो सबको एकसूत्र में झंकृत कर कविता में आत्मवत्ता का सबूत दे सके अथवा उसमें जीवन का भान करा सके।

संवेदना अगर कविता की असली थाती है तो आधुनिक कविता की यह समस्या भी है। यह एक चुनौती भी प्रस्तुत करती है। संवेदना में विचारशीलता की स्थिति या स्पेस को युक्तिसंगत  (रैशनलाइज)  करना एक बड़ी चुनौती है । संवेदना में विचार के बढ़ते स्पेस की चिंता केन्द्रीय तो है लेकिन उसपर दरअसल चिंता से अधिक आत्म - चिंतन की आवश्यकता है । संवेदना हमेशा से द्विगुणसूत्रात्मक रही है। एक गुणसूत्र अनुभूति का है तो दूसरा विचार का। ये दोनों गुणसूत्र जबतक सह - अस्तित्व में रहते हैं तबतक संवेदना संतुलित रहती है। विचार की प्रवृत्ति जहाँ हावी होने या प्रभुता पाने की रहती है वहीं अनुभूति मन की विशेष भाव - स्थिति को तरंगायित - इंगित करने की प्रवृत्ति रखती है । विचार स्वयं की एक तार्किक व्याख्या है, सुचिंतित अभिव्यक्ति है जो दूसरे की तार्किक अभिव्यक्ति को बहुधा नकारता है और प्रत्येक विरोधी विचार को हमेशा चुनौती के रूप में स्वीकारता है।

कोई भी दो भिन्न विचार कितना भी समानधर्मा लगें, एक दूसरे का कितना भी समर्थन करते क्यों न दिखें, बुनियादी तौर पर वे एक दूसरे से टकराव या विरोध की ही प्रवृत्ति रखते हैं। यही प्रवृत्ति विचारशीलता को जीवित भी रखती है। यह ठीक वैसा ही है जैसे किसी एक जीव का अहंकार या अहम् - बोध (ईगो) दूसरे के विरुद्ध उसके अस्तित्व को सिद्ध करने में लगा रहता है । व्यक्ति का विचार भी प्रत्येक क्षण उसकी संवेदना के भीतर ऐसे ही संघर्षों से गुजरता है। विचार हमेशा युद्धरत ही रहता है। विचार की यह युद्ध- रतता ही हमारी विचारशीलता या विचारधर्मिता है। 

स्पष्ट है कि विचार अपनी प्रवृति में ही पौरुषेय है। पुरुष- प्रवृत्ति ही दरअसल बदलाव या गति की प्रवृत्ति है। मधुकरी और यायावरी प्रवृत्ति भी पुरुष - प्रवृत्ति के ही अन्य आयाम हैं।  जिनके केन्द्र में कहीं न कहीं नये को पाने की इच्छा रहती है या बदलाव पर ज़ोर रहता है चाहे वह बदलाव व्यक्ति के स्तर पर हो या व्यवस्था के स्तर पर। बदलाव की आकांक्षा जब बहुसंख्य के पक्ष में खड़ी होती है तो क्रांति घटित होती है अथवा सत्ता - परिवर्तन होता है। इस जीवन या जगत् में जो भी मानव - प्रेरित परिवर्तन है उसके मूल में कोई न कोई विचार है जो परिवर्तन का सूत्रधार हुआ करता है ।  

दूसरी ओर अनुभूति एक अलग संसार है। यह विचार से पृथक् मनोजगत् है। यह हमारी संवेदना का एक अद्भुत पक्ष है। यह विचार से बिल्कुल भिन्न गतिकी पर चलती है। इसकी गतिकी ऐसी है कि बाहर से कभी - कभी लगता है कि इसकी कोई गतिकी ही नहीं है जबकि वह भीतर से बिल्कुल चेतनासम्पन्न होती है। हाँ, इसकी गति अवश्य अंदर बिल्कुल गहरे की तरफ़ होती है। जैसा कि मैंने पहले कहा है कि अनुभूति के गुणसूत्र में मन के भाव और स्थिति के प्रकटन की प्रवृत्ति रहती है । परन्तु यह प्रकटन आंतरिक होता है। यह दिखती नहीं, बस अनुभव में आती है और अनुभव को अतीत बनाकर उसे स्मृति में छोड़ती आगे बढ़ती जाती है। अनुभूति की यात्रा गोल - पथ की यात्रा है जबकि विचारों की यात्रा सरल रेखीय है। अनुभूति में नये के लिए कोई आग्रह या आकर्षण नहीं रहता, वह नये - पुराने का फर्क भी नहीं करती या नहीं कर पाती। इसमें  अनुभूति के कमजोर या मजबूत होने जैसा कुछ भी नहीं है। यह अनुभूति की प्रकृति में है और प्रकृति बिल्कुल वैसी ही रहती है जैसी इसे रहनी चाहिए, न कि वैसी जैसी हमें चाहिए ।

हम सभी चीजों को भले ही उनकी  ताकत -कमजोरी के हिसाब से देखने के आदी हैं लेकिन अनुभूति कभी ऐसा नहीं करती। वह अपनी प्रकृति के अनुसार ही चलती है। उसकी यात्रा में कहीं नया पड़ाव नहीं आता। उसका सफर एक पुनरावृत्ति ही प्रतीत होता है। परन्तु इस पुनरावृत्ति में अनुभूति की गहराई बढ़ती चली जाती है। इससे जीवन का नया आयाम खुलता है। यह प्रवृत्ति अगर समयानुसार विकसित नहीं हुई होती तो मनुष्य कभी भी परंपरा निर्मित नहीं कर पाता, न ही सभ्यता की ही कहीं नींव भी पड़ी होती। स्मृतियों को संजोने, उनका परिष्कार या परिमार्जन कर युगानुकूल बनाने की जो जिम्मेदारी है उसे कोई स्त्रैण शक्ति ही निभा सकती है। इसलिए अनुभूति एक अर्थ में स्त्रैण शक्ति है। इसमें चित्त को बाँधे रखने की क्षमता है और उसका परिष्कार करने की भी।

वहीं विचार, इसके विपरीत चित्त को चंचल करते हैं, मन में एक हलचल पैदा करते हैं । संवेदना में इन दोनों गुणसूत्रों की अपनी अपनी भूमिका और उपयोगिता है। कविता में समाहित संवेदना में कौन - सा पक्ष उभरेगा -  अनुभूति पक्ष या विचार पक्ष, यह इस बात पर निर्भर करता है कि कवि की निजी संवेदना में इन दोनों गुणसूत्रों के बीच यानी संवेदना के पौरुषेय और उसके स्त्रैण प्रवृत्तियों के बीच की जैविक दूरी ( आॅरगेनिक डिस्टेंस ) कितनी है क्या है।  

Comments