खिलना भूल जाने से पहले / कविता/ दिलीप दर्श
कि कहां है वह, किधर
ढूँढना है उसे
शायद अभी नहीं है वह
परन्तु अभी
शायद अभी नहीं है वह
जमीन पर, आकाश में
पानी या हवा - बतास में नहीं है वह
आग में या इडेन के बाग में
पहाड़ी जंगलों के सिकुड़ते आगोश में
बर्फ के ऊंचे विजन विस्तार में भी
नहीं है वह
पानी या हवा - बतास में नहीं है वह
आग में या इडेन के बाग में
पहाड़ी जंगलों के सिकुड़ते आगोश में
बर्फ के ऊंचे विजन विस्तार में भी
नहीं है वह
सडकों पर, सपनों में, उड़ानों में
जरुरत के उठ रहे मकानोंं में
जरुरत के उठ रहे मकानोंं में
सवालों के बेचैन कक्ष में
समय के धड़कते वक्ष में
बहस के पक्ष में, विपक्ष में
तुम्हारी हंसी में, रुदन में
क्रांति के पहले और क्रांति के बाद में
हमारे युद्ध या जेहाद में
न ही शांति – प्रस्ताव में
न संधि – समझौते के रिसते घाव में
पूजा में, नमाज में
व्यक्ति में, समाज में
नहीं है वह कहीं
बहस के पक्ष में, विपक्ष में
तुम्हारी हंसी में, रुदन में
क्रांति के पहले और क्रांति के बाद में
हमारे युद्ध या जेहाद में
न ही शांति – प्रस्ताव में
न संधि – समझौते के रिसते घाव में
पूजा में, नमाज में
व्यक्ति में, समाज में
नहीं है वह कहीं
पहले देखना है
कहाँ - कहाँ से गायब है वह
कहाँ - कहाँ से गायब है वह
या उसे उठाकर रख दिया गया है
किसी अंधेरे कोने में
नहीं मालूम
किसी अंधेरे कोने में
नहीं मालूम
मुड़कर देखना है पीछे
कि कितनी कठिन अनजान सदियों से
सुनसान भीषण
कितने जंगलों से, पहाड़ों – घाटियों से
सुनसान भीषण
कितने जंगलों से, पहाड़ों – घाटियों से
नदियों से
भटकते, चढ़ते- लुढ़कते
भटकते, चढ़ते- लुढ़कते
डूबते - उतराते
पहुँचे थे हम साथ- साथ
खेत के इन मैदानों तक
फिर चिमनियों, कारखानों तक
अभी पहुँचे हैैं वैकल्पिक मनुष्यता के
पहुँचे थे हम साथ- साथ
खेत के इन मैदानों तक
फिर चिमनियों, कारखानों तक
अभी पहुँचे हैैं वैकल्पिक मनुष्यता के
कुुुछ नए ठिकानों तक
याद करने हैं वे जंगली जानवर
उनके हिंस्र पंजे - दांत थे
उनके हिंस्र पंजे - दांत थे
कितने खतरनाक
वे क्रूर- नंगे दिन, रातें खौफनाक
हमें घेरे
वे हत्यारे अंधेरे
वे हत्यारे अंधेरे
उस पर गड़ - गड़ गरजते मेघ
निर्मम वज्रपात कतिपय
बेचैन – बेबस हम सभी मिल ढूंढते थे
गुफा , कोटर, खोह
बेचैन – बेबस हम सभी मिल ढूंढते थे
गुफा , कोटर, खोह
नींद में भय की अवांछित आहटें
भूख में पेट के उस जानवर का
तब्दील होना दांत- नाखून में
आंखों में खून का उतर आना एकाएक
अस्तित्व का संघर्ष हर क्षण
हम सभी थक चूर होते थे
अस्तित्व का संघर्ष हर क्षण
हम सभी थक चूर होते थे
होते थे निराश
कभी घेर लेती थी उदासी भी
सैकड़ों सदियाँ अंधेरी बह गईं
परन्तु कैसे उठी वह प्रार्थना समवेत्
“हे प्रभो, हमें ले चलो अब प्रकाश की ओर”
पृथ्वी के प्रत्येक कोने से
पहली बार उठी थी प्रार्थना सबके लिए
कौन था वह ? कौन - सा मन था ?
जो निकल आया था
नाखून - दांत के मजबूत घेरे तोड़कर
फिर तो चल पड़ा था सिलसिला
खिलखिला कर उतरने लगा था
खिलखिला कर उतरने लगा था
मन वह विश्वमित्र
नदी – घाटियों में, मरु में, पहाडों पर
उतरता रहा
उतरता रहा
वह मन उद्दात्त और पवित्र
प्रार्थना के फूल खिल उठे तत्काल
झरता रहा
मौन बनकर गंध सारी दिशाओं में
परन्तु अभी
किस पर उतरेंगे वे विश्वमित्र
उत्तर आधुनिक मन क्या ढो सकेगा
प्रार्थना के मौन ?
क्या उगा पाएगा कभी सूरज समय पर
कि सुबह - सुबह खिल उठे
प्रार्थना का बस एक प्यारा फूल
कहाँ है वह विश्वामित्र मन ?
ढूँढना है उसे
इस रेतीले समय में
उसके खिलना भूल जाने से पहले !
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