यायावर बाबा

यायावर बाबा आजकल भले ही मौनी बाबा हो गए हों परन्तु एक समय था जब वे कभी चुप नहीं रहते थे । दिन भर जागते हुए बोलते ही रहते थे, बोलते - बोलते कुछ छूट गया तो रात को सोते हुए बोलते थे। नींद का भी भरपूर उपयोग करते थे। सुना है कि एक बार वे नींद में बोलते- बोलते चलने भी लगे थे। घर में किसी को ताज्जुब भी नहीं हुआ था क्योंकि सब जानते थे यायावर के लिए नींद क्या जाग्रत क्या ! उन्हें तो बस चलना है..."अभी कहाँ आराम बदा, यह नींद निमंत्रण छलना है, अरे अभी तो मीलों मुझको मीलों मुझको चलना है..." वे नींद में भी गाते रहते थे। जब से शरीर थोड़ा अशक्त हुआ, नींद में पांव से की जानेवाली यायावरी तो थम गई लेकिन जिह्वा दिन - रात चालू ही रही। 

यह उन्हीं दिनों की बात है जब उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एक बयान दिया था। उन्होंने बस इतना ही कहा था, “ महिलाएं, पुरुष की बराबरी नहीं कर सकतीं”बस क्या था कि अखबार, टीवी चैनल, सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक मानो आग लग गई। जैसे हजारों - लाखों रावण देश में एक साथ जल उठते हैं, बाबा के पुतले भी धू- धू कर जलने लगे, एक दिन के लिए लगा देश में असमय दीवाली सा समां बंध गया। 

लेकिन उन्होंने कहा था, “ थैंक गाड,  पुतले ही जले, यायावर नहीं, मैं तो ठीक वैसे ही बच गया जैसे हरेक साल पुतला जलाने के बाद भी रावण बच ही जाता है”। 

“तो बाबा आप कहीं रावण - प्रजाति की कोई आधुनिकतम कड़ी तो नहीं ?”

वे चिढ़कर बोले, “ भक् बुड़बक, कड़ी – वड़ी क्या कहते हो, हम तो रावण की छड़ी के भी लायक नहीं”। 
रावण के बारे में आम आदमी की धारणा के विपरीत उनके ऐसे वक्तव्य से उनका मन्तव्य स्पष्ट हो गया। लेकिन आदतन मैं पूछ ही बैठा, “ मगर रावण के लिए इतने ऊंचे ख्याल ? बिल्कुल  अपच...।" 
वे झट से सर्वज्ञानी मुद्रा में आकर बोले, “ देख, रावण की इच्छा नाजायज थी,  इरादा गलत था लेकिन हासिल करने का तरीका बहुत ही लोकतांत्रिक था। सहमति के बिना जब संसद नहीं चल सकती, तो इसके बिना प्रेम – प्रसंग कैसे चल सकता है ? फिर संसद से तो प्रेम कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष हुआ करता है”।
“लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष तो समझ गया बाबा, प्रेम समाजवादी कैसे हो गया ?” 
वे चुटकी बजाकर बोले, “ वेरी सिम्पल, समाजवाद का मतलब ही है बराबरी पर आधारित व्यवस्था तो बताओ प्रेम क्या गैर – बराबरी में संभव है ? प्रेम तो समाजवाद का भावनात्मक प्रतिनिधि ही है भई ?” 
बौद्धिक व्यायाम तो बाबा कर रहे थे, पसीना मेरा छूट रहा था। 
मैं थोड़ा और घबरा गया जब उन्होंने एक और बात कही, “ पूरे रामायण में सबसे पावरफुल कौन है ?” 
मैं चुप रहा तो उन्होंने  कहा, “ सीता” । मैंने पूछा, “राम, रावण, हनुमान बालि, सुग्रीव अंगद...?” 
“ सब झूठ, सीता के सामने सब बेकार ।”
मैंने  उनको सावधान करते हुए कहा, “ आप चीजों की गलत व्याख्या कर रहे हैं, ऐसा कहकर आप न सिर्फ आस्था पर चोट कर रहे हैं बल्कि एक खास प्रांत के पक्ष में राजनीतिक हवा भी बना रहे हैं”।
इतना सुनते ही उन्होंने मानो प्रश्नों का मशीनगन ही चला दिया, “ क्यों,  सीता क्या बिहार की बपौती है ? राम – कृष्ण पर क्या यूपी की रजिस्ट्री है ? दुर्गा क्या सिर्फ बंगाल की माता है ? गणपति क्या मराठी मानुष है ? और शिव,  कार्तिक – मुरुगन क्या...?”  

मैंने उनके आक्रमण के सामने आत्मसमर्पण करते हुए विनती की, “ बाबा, वो तो ठीक है, लेकिन सीता के सामने सब कमजोर कैसे ?” 
“ अरे बुड़बक, जिसे तुम हर हाल में हासिल करना चाहते हो तुम्हें पुरुष के रूप में लगता है कि वह तुमसे कमजोर है। परन्तु ऐसा नहीं है वह व्यक्ति या वस्तु कमजोर नहीं होती वरन् उसकी आभा उसकी गरिमा उसका सौन्दर्य जो भी कह लो यह उसकी ताकत है, शक्ति है जो तुम्हें अपनी ओर खींचती है और तुम खिंचते चले आते हो  बिल्कुल पतंग की तरह और तुम पुरुषों को भ्रम रहता है तुम उसे हासिल कर रहे हो । मैं कहता हूँ - यह हासिल करने की बात बिल्कुल पौरुष बात है। और सुनो, धर्म, अर्थ,  काम, मोक्ष आदि जब स्त्रियाँ भी हासिल करती हैं तो उसे पुरुषार्थ ही क्यों कहते हो ? स्त्रियार्थ भी तो बोल सकते थे ? अब तू बता मैंने क्या गलत कहा ?" मेरी आँखें आधी खुल चुकी थीं।
फिर भी जिज्ञासा थमी नहीं, “ मतलब इसीलिए आपने कहा – स्त्री कभी भी पुरुष के बराबर नहीं हो सकती ?” 
उन्होंने कहा, “ बिल्कुल नहीं, परन्तु यह आधा सच है। और सुनो जो आधा सच पर अटक जाता है, वह अपनी ही गली में भटक जाता है। ये पुतले जलानेवाले लोग भी आधी खोपड़ी के हैं,  उसमें सच भी सिर्फ आधा ही अंटता है, इसलिए आधी बात ही सुनते भी हैं। दूसरा आधा सच यह है कि पुरुष भी स्त्री की बराबरी नहीं कर सकता।  स्त्री  - पुरुष की बराबरी क्यों ? प्रकृति ने दोनों को अलग – अलग उद्देश्य से बनाया है, दोनों की भूमिका भिन्न-भिन्न है, होने के तरीके भिन्न हैं, उनके नहीं होने भी ढंग भिन्न हैं । दोनों के शरीर और  मन की संरचनाएं अलग – अलग हैं। दोनों की शक्ति अलग – अलग ढंग से परिभाषित है। माँ, पुत्री, बहन, प्रेमिका, पत्नी या कोई रूप हो, स्त्री उसी रूप में सुपरिभाषित या सुशोभनीय है। देखना यह है कि प्रकृति ने स्त्री को वैसा क्यों नहीं बनाया जैसा पुरुष को बनाया है ? प्रकृति ने यह जो भिन्नता पैदा की है उसके पीछे संदेश क्या है ? जानना यह है कि आखिर प्रकृति पुरुष से कौन - से काम लेना चाहती है और स्त्री से कौन - से ? तो किसी के कमजोर या गैर – बराबर होने का प्रश्न ही कहां है ?”  
तो मैंने पैंतरा बदला, “ ये लोग जो महिला सशक्तीकरण के पक्ष में हैं ?” 
“ अरे बुड़बक,  मैं क्या महिला 'आसक्तीकरण' के पक्ष में हूं ? मुझे मालूम है लेकिन तू बता इसकी कोई सीमा भी है या यहां भी ‘स्काई इज द लिमिट’ वाली बात है ? सशक्तीकरण का मतलब यह तो नहीं लिया जा रहा कि महिलाओं का अब एक ही लक्ष्य है पुरुष- पद या कद की प्राप्ति ? सशक्त महिला के नाम पर पुरुष महिला की तैयारी तो नहीं चल रही ? मसल वूमन सुना है न ?   दिन न देखने पड़े कि आनेवाली पीढ़ी को पुरुष – सशक्तीकरण की बात करनी पड़े नहीं तो प्रेमी – युगल नहीं, प्रतिद्वंद्वी – युगल घर – घर में जोर आजमाइश करते मिलेंगे”। उन्होंने भविष्य की और भी भयावह  तस्वीर खींचते कहा, “ बस समझ लो कि तब प्यार में भी युद्ध जायज हो जाएगा बिल्कुल वैसे ही जैसे प्यार और युद्ध में हर एक चीज जायज हो जाती है”। तर्क निष्णात यायावर बाबा की बेबाकी पर मैं अभिभूत था। 
फिर भी हिम्मत करके मैंने अपनी आशंका जता ही दी, “ तब तो लोग कहेंगे कि आप मध्यकालीन सामंती विचारधारा के राष्ट्रीय प्रचारक हैं या अंतरराष्ट्रीय प्रवक्ता। ” 
जोगीजी बोले, “ तो बताओ दुर्गा के आठ हाथ क्या तुम उत्तरआधुनिकों ने जोड़े ? शिव की छाती पर काली के पैर, क्या डाॅक्टर्ड मिथ है ? पांच पतियों को आगे – पीछे घुमानेवाली द्रौपदी क्या यूरोप से आई थी ?”
“ लेकिन इसी समाज में एक पति के पास सोलह हजार पत्नियों का पूरा एक समुदाय भी तो था। उससे पहले कैशोर्य में रास – लीला कहें या सामूहिक रोमांस, वो अलग से। व्यास ने तो इसे कहीं भी स्त्री – विमर्श या यौन – शोषण  से जोड़कर देखा ही नहीं और आप कह रहे हैं कि भारतीय परंपरा में महिलाएं पहले से ही जगह पर हैं और सशक्त हैं,” मैंने आपत्ति प्रकट की। 
बस क्या था बाबा अगिया- बैताल हो गए, “बुड़बक सप्रसंग देख और सोच। कहीं का रोड़ा और कहीं का पत्थर उठाकर तू भी मत मार , टी एस इलियट तो कोई और बनके गया अब तुझे क्या टी एस इडियट बनना है ? टी एस इडियट मतलब थर्ड स्टेज इडियट।" मैं थोड़ा आत्ममंथन – मोड में आ गया था। 
पर वे जारी ही रहे, “देख, भारत कोई देश या समाज नहीं है, न ही कोई भूगोल है या इतिहास। यह एक सोच है, दर्शन है, एक जीवन - शैली है और इसलिए देश और काल से बाहर है, यहां प्रत्येक मनुष्य स्त्री और पुरुष  दोनों हैं”। 
मैं घबरा गया, ये तो ट्रांसजेंडर या कोई चौथा जेंडर तो नहीं ? 
“ बुड़बक, तुम लोग लिंग – पूजा तक ही अपनी उछल -कूद सीमित रखो,  लिंग – निर्णय की गंभीर धींगामुश्ती हम जैसों के लिए रहने दो, ट्रांसजेंडर न तो स्त्री  है न पुरुष यानि दोनों नहीं है, मैं जो कह रहा हूँ वह दोनों है अर्थात् अर्द्धनारीश्वर।  पूर्ण पुरुष और पूर्ण स्त्री के एकीकृत रूप को हमने हजारों साल पहले ही खोज लिया था और मान्यता दे दी थी। तुम उत्तर आधुनिकों की तो अभी नींद खुली है और तीसरे लिंग की घोषणा कर ‘यूरेका यूरेका’ चिल्ला रहे हो, बस लिंग की संख्या ही बढा रहे हो और क्या कर रहे हो ? दूसरी तरफ कह रहे हो लिंग  - भेद नहीं होना चाहिए। अरे बुड़बक !  जाति रहेगी तो जाति – भेद होगा, वर्ग रहेगा तो वर्ग – भेद होने से कोई रोक नहीं सकता तो लिंग के जीते – जी कभी भी लिंग  - भेद खत्म होगा ? लेकिन हमने लिंग -  भेद मिटाने का उपाय तो उसी जमाने में  ढूंढ लिया था, अर्द्धनारीश्वर क्या है ?  दो विपरीत ध्रुवों की सम – साधना ही तो  है , जिसमें भेद है  परन्तु  भेद का भाव नहीं  है या कह लो भेद में अभेद का भाव या उसकी स्थिति  है।”
मैं समझ तो नहीं पाया, पर समझने के लिए उनकी बातों में सिर्फ छोर ही टटोलता रहा कि वे सवाल की शक्ल में निष्कर्ष परोसने लगे,  “ तो अब बताओ महिला सशक्तीकरण की आवश्यकता सच्ची है या झूठी, हमारे लिए समीचीन है या आउटडेटेड ?” मैं तत्काल कुछ भी बोल नहीं पाया । 

          --२३| १०|२०१८

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