अपने खेतों से उखड़करदूसरे खेतों में रोपे जाने का दर्दजानती हैंधान रोपती स्त्रियाँइसलिए गाती हैंबिचडों के लिए गीतजैसे अनुभवी स्त्रियों ने मिलकर गाए थेउनके पांवों कोजनमडीह से उखाड़ते हुएरोपते हुए पिया के देश मेंवहाँ के आंगन मेंगीतों के अवरोह से उतरती थीउखड़े पांव के लिए सान्त्वनाआरोह में चढ़ता था आशीषउनके लिएगीत ने एहसास दिलाया थाकि वे दुनिया में अकेली नहीं हैंयही एहसास गीत की असली ताकत हैइसे जान चुकी हैंधान रोपती स्त्रियाँजी चुकी हैंबिचड़ों का दुख पहले हीइसलिए गा - गाकर भर रही हैंबिचडों में भीयह एहसास कि वे अकेले नहीं हैंदर्द की पनीली पहरों मेंकोई हो न होउनके साथ हैं धान रोपती स्त्रियाँऔर उनके गीत !
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June 21, 2020
धान रोपती स्त्रियाँ / कविता / दिलीप दर्श
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