दिलीप दर्श को कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार- 2019 / डाॅ. कविता नंदन
डाॅ. कविता नंदन |
युवा साहित्यकार दिलीप दर्श पिछले लगभग डेढ़ दशक से हिन्दी साहित्य में काव्य, कथा, निबंध और समीक्षा जैसी विधाओं में गंभीर साहित्यिक लेखन के जरिए सक्रियता बनाए हुए हैं। जनवरी 2018 में उनका काव्य संग्रह 'सुनो कौशिकी' प्रकाशित हुआ था और 2019 में उनका कथा संग्रह 'ऊँचास का पचास' प्रकाशित हुआ। युवा साहित्यकार के लेखन में गाँव से लेकर शहर की पृष्ठभूमि पर संघर्षरत आम जन की संघर्षशील यात्रा को पढ़ने-समझने का भरपूर अवसर मिलता है।
"फिर वही सड़क" कहानी जिस पर दिलीप दर्श को कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, गाँव की पृष्ठभूमि पर शब्द-तंतुओं से रची वह चादर है जिसमें किसी आम जन के सपने देखने और टूटने की मार्मिक वेदना सिसकती रही है। इस कहानी का नायक किस तरह रोजी-रोटी के लिए गरीबी का टमटम खींचता हुआ संघर्ष करते-करते वर्तमान व्यवस्था के आगे कमजोर पड़ता है और वह टमटम एक दिन बेचकर बस का कंडक्टर बन जाता है। इस संघर्ष को बड़े ही संवेदनशील तरीके से कथाकार ने कथा को क्लाइमेक्स के लिए तैयार किया है। नायक मकुंदी भगत के जीवन में स्वाभाविक प्रेम की चाह ने कैसे उसे सपने देखने का अवसर दिया यह भी नाटकीय होने के साथ ही कम आकर्षक नहीं है। मकुंदी कंडक्टरी छोड़ कर जब छोटे व्यापारी से बड़ा व्यापारी बनने का सपना देखता है और उसे पूरा करने के लिए जोख़िम उठाता है तो जीवन और संयोग की बाज़ीगरी किस तरह उसके साथ आँख-मिचौली खेलते हुए उसे बरबाद करने पर तुल जाती है, बड़ी ही मार्मिकता के साथ कथा में पेश किया गया है।
फिर वही सड़क" कहानी में कथाकार ने नायक मकुंदी के दोस्त का एक संवेदनशील पात्र गढ़ा है जुलमी। जुलमी और मकुंदी के आपसी संवाद थोड़े ही हैं लेकिन इन थोड़े से संवादों के जरिए कथाकार ने मैत्रीपूर्ण संबंधों को गाँव की पृष्ठभूमि पर जिस तरह उभारा है वह क़ाबिले तारीफ़ है। वर्तमान राजनीतिक षडयंत्रों को दरकिनार करती हुई यह कहानी धार्मिक वैमनस्यता से दूर एक-दूसरे के सहयोग में तत्पर दो मित्रों की मैत्री-भावना को प्रतिष्ठित करती है। जहाँ सपने टूटते-बिखरते हैं और एक-दूसरे का हाथ थाम हम फिर हम एक साथ बढ़ते हैं। "फिर वही सड़क" व्यवस्था पर एक करारा व्यंग्य है। इस व्यवस्था की प्रतीक सड़क जो सपनों को तोड़ देती है जिस पर हर आने-जाने वाला आँखों में सजाए सपनों को टूटते देखता। सरकारों को पता है कि टूटी सड़कें विकास गति को बाधित करती हैं। इनके बेहतर होने से आम जन की आँखों के बहुत सारे सपने टूटने से बच सकते हैं।
"फिर वही सड़क" कहानी जिस पर दिलीप दर्श को कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, गाँव की पृष्ठभूमि पर शब्द-तंतुओं से रची वह चादर है जिसमें किसी आम जन के सपने देखने और टूटने की मार्मिक वेदना सिसकती रही है। इस कहानी का नायक किस तरह रोजी-रोटी के लिए गरीबी का टमटम खींचता हुआ संघर्ष करते-करते वर्तमान व्यवस्था के आगे कमजोर पड़ता है और वह टमटम एक दिन बेचकर बस का कंडक्टर बन जाता है। इस संघर्ष को बड़े ही संवेदनशील तरीके से कथाकार ने कथा को क्लाइमेक्स के लिए तैयार किया है। नायक मकुंदी भगत के जीवन में स्वाभाविक प्रेम की चाह ने कैसे उसे सपने देखने का अवसर दिया यह भी नाटकीय होने के साथ ही कम आकर्षक नहीं है। मकुंदी कंडक्टरी छोड़ कर जब छोटे व्यापारी से बड़ा व्यापारी बनने का सपना देखता है और उसे पूरा करने के लिए जोख़िम उठाता है तो जीवन और संयोग की बाज़ीगरी किस तरह उसके साथ आँख-मिचौली खेलते हुए उसे बरबाद करने पर तुल जाती है, बड़ी ही मार्मिकता के साथ कथा में पेश किया गया है।
फिर वही सड़क" कहानी में कथाकार ने नायक मकुंदी के दोस्त का एक संवेदनशील पात्र गढ़ा है जुलमी। जुलमी और मकुंदी के आपसी संवाद थोड़े ही हैं लेकिन इन थोड़े से संवादों के जरिए कथाकार ने मैत्रीपूर्ण संबंधों को गाँव की पृष्ठभूमि पर जिस तरह उभारा है वह क़ाबिले तारीफ़ है। वर्तमान राजनीतिक षडयंत्रों को दरकिनार करती हुई यह कहानी धार्मिक वैमनस्यता से दूर एक-दूसरे के सहयोग में तत्पर दो मित्रों की मैत्री-भावना को प्रतिष्ठित करती है। जहाँ सपने टूटते-बिखरते हैं और एक-दूसरे का हाथ थाम हम फिर हम एक साथ बढ़ते हैं। "फिर वही सड़क" व्यवस्था पर एक करारा व्यंग्य है। इस व्यवस्था की प्रतीक सड़क जो सपनों को तोड़ देती है जिस पर हर आने-जाने वाला आँखों में सजाए सपनों को टूटते देखता। सरकारों को पता है कि टूटी सड़कें विकास गति को बाधित करती हैं। इनके बेहतर होने से आम जन की आँखों के बहुत सारे सपने टूटने से बच सकते हैं।
इस कहानी को आज के दौर में पुरस्कृत होना यह प्रमाणित करता है कि हमारा देश राजनीति से संचालित न होकर आपसी सहयोग, सद्भाव और भाईचारे से चलता है जिसे आपराधिक प्रवृत्ति वाली कोई राजनीति खंडित नहीं कर सकती। यह कहानी यह भी संदेश देने में सक्षम है कि जब तक यह भ्रष्ट व्यवस्था बनी रहेगी आम आदमी के हाथ उदासी ही आएगी। इसलिए इससे बचने के लिए हमें ऐसी व्यवस्था लानी ही होगी जिसमें हमारे श्रम-स्वेद को टूटी सड़कों के पँक में घुलने से रोका जा सके और प्रत्येक नागरिक को उसकी आँखों के सपने सच होते देखने का सुअवसर प्राप्त हो।
दिलीप दर्श हमारी युवा पीढ़ी के सशक्त कथाकार हैं। उनके जैसे संवेदनशील कथाकार का सम्मानित होना हिन्दी साहित्य और साहित्यकारों के लिए आत्मगौरव की बात है।
डॉ. कविता नंदन
□□□
Comments
Post a Comment