सुनो कौशिकी: समकालीन जीवन में संवेदना ढूंढती कविताएँ / समीक्षा / डॉ. नीलोत्पल रमेश


‘सुनो कौशिकी’ दिलीप कुमार अर्श कापहला कविता -संग्रह है । इसमें 32 कविताएँ 8 ग़ज़लें हैं । इसमें कवि ने अपने अन्तर्मन को ही वाणी दी है। कविता कवि के अन्तर्मन की वाणी या पुकार तो होती ही है इस वाणी या पुकार में अक्सर  व्यष्टि में समष्टि का भाव – प्रसार होता है। इसलिए एक अर्थ में “सुनो कौशिकी” व्यष्टि में समष्टि का काव्य है। दूसरा, बचपन की अनेक स्मृतियाँ चलचित्र की भांति कवि के मानस पटल पर चलती रहती हैं और वही कविता का रूप लेती गई हैं। यही  नहीं इस कृति में कवि ने पग पग पर दिखाई पड़ती समकालीन जीवन-व्यवस्था, मूल्य हीनता, संवेदना शून्यता और एक हद तक पांव पसारती अनैतिकता को मुखरित – रूपायित करने की कोशिश की है। मनुष्य की स्मृति में बहुत सारी बातें या चीजें सुषुप्तावस्था में पड़ी रहती हैं, लेकिन सजग सचेत कवि ही उसे उकेरने में सफल होता है। इस दृष्टि से कवि दिलीप कुमार अर्श भी निस्संदेह सफल हुए हैं। 
डाॅ. नीलोत्पल रमेश 

आत्मकथ्य में कवि ने स्वयं स्वीकार किया है -सारी कविताएँ जैसे पहले से ही भीतर में थी और उन्हें सालों से मैं जी रहा था, बस अभिव्यक्ति की अकुलाहट या बेचैन को अवसर के क्षण और शब्दों के कण मिलते गए और कविता छूटती गई । रही बात कोशी की यह मेरे लिए सिर्फ नदी नहीं है बल्कि जीवन का एक सम्पूर्ण बहाव है जिसमें संहार का क्रूर तांडव भी है और जीवनोन्मेष की मनोरम लीला भी, मोह का बंधन भी है और मुक्ति की आकांक्षा भी। मोह से मुक्ति तक आत्म- विस्तार की इस लंबी यात्रा में ये कविताएँ मील के पत्थर हैं या उस लंबे उबड़-खाबड़ मार्ग में बिखरे अदना कंकड़ पत्थर, मैं नहीं कह सकता”। 

कवि ने बड़ी इमानदारी और विनम्रता से इसके निर्णय की जिम्मेदारी  पाठकों पर छोड़ दी है जो बहुत हद तक पाठकीय क्षमता का सम्मान भी है। 

मैं शुरुआत पहली कविता “सुनो कौशिकी” से करूँगा । यह संग्रह की सबसे लंबी कविता है जो अपने पूरे रचाव में अद्भुत भावावेग को समेटे है। कोशी के संहारक और पालक दोनों रूपों पर संतुलित भाव – सत्ता की सृष्टि इस कविता को मुकम्मल बनाती है। यही नहीं, मूल से कटकर जीने की जो विवशता मध्यवर्ग की नई पीढ़ी झेल रही है वह कोशी के बहाने कवि ने बड़े ही मर्मस्पर्शी अंदाज़ में  व्यक्त किया है । कोशी के किनारे बीते बचपन और कोशी के संग – साथ के वे क्षण कवि के लिए समकालीन जीवन को समझने और व्यक्त करने के जैसे टूल बन गए हैं- 

पानी बहुत है यहाँ भी
हरेक इमारत के सिर आरूढ़ टंकी
खुली धूप में छोटी – बड़ी 
नल की धार घर में 
झरनों की कोमल फुहारें
खूब नहाता हूँ यहाँ भी
मगर कुछ तो भीतर 
खूब भीतर अनभींगा रह ही जाता”  

मतलब ये कि कवि नहाता तो खूब है लेकिन इससे थकान नहीं जाती, मन की बेचैनी बनी ही रहती है। 
जीवनदायिनी कोशी सावन – भादो में जब तांडव मचाती है तो बेबस पीड़ित हजारों लोगों की पुकार और संघर्षशीलता को बड़े मार्मिक ढंग से वाणी दी गई है –

“हर साल जातीं अनसुनी 
प्रार्थनाएं,  मनुहार 
निस्सहाय कंठों से फूटते 
वे करुण – विगलित गीत हर साल
शोकांभरी तेरी तांडवी मुद्रा बनाकर छोड़ जाती
शाकंभरी उस गोद को वीरान या बेहाल
फिर से हरी – आबाद करने
निकल ही आती हठी संघर्ष- शिशुओं की पुनः पीढ़ी”

‘कम होता शहर’ में कवि अर्श ने शहर में सुख – सुविधा के विस्तार से मानवीय संवेदना को जोड़कर देखा है। शहरी रफ्तार और विस्तार ने मनुष्य के भीतर का आयतन को संकुचित ही किया है, संवेदना की चिड़िया उदास है और बिजली के तार से उड़ गई है। जरा देखिये- 

वह  उदास है 
कि शहर का क्षेत्रफल जितना बढ़ता है रोज
उतना ही कम हो जाता है शहर
और सिकुड़ जाता है उतना ही यहाँ 
लोगों का भीतरी आयतन”

‘कुछ पता नहीं चलता’ कविता में कवि ने समकालीन कामकाजी जीवन की व्यस्तता और उबाऊ निरंतरता को अभिव्यक्ति दी है। चैन और सुकून नहीं है, बस काम ही काम और इसी कार्य – दबाव में नई पीढ़ी के व्यक्तिगत जीवन के इत्मीनान के पल टूट रहे हैं, मध्यवर्गीय परिवार में कहीं न कहीं विघटन हो रहे हैं । इस कविता का अंत थोड़ा दार्शनिक हो गया है – 

“कुछ पता नहीं चलता
अक्सर असत्य ही होता मजबूत
बहुत बार तो हारता है सत्य ही
भले ही अंत में एक बार जीत जाता है” 

‘पहली बार’ कविता में कवि ने लोकतंत्र की भयावह हो रही स्थितियों पर व्यंग्यात्मक लहजे में नज़र डाली है। लोकतंत्र के कर्णधार इसे गर्त में धकेलने को हमेशा तैयार रहते हैं। इन्हें अपनी चिंता ही सताती है जनता की इन्हें कोई फिक्र नहीं । जनता भांड में जाए या गर्त में, उनका अपना स्वार्थ सिद्ध होते रहना चाहिए । गरीबी-भुखमरी की मार में आत्महत्या कर रहे किसानों की हालत देखिए – 

“तय करनी है
अनाज के दाम की न्यूनतम सीमा
किसानों का
उनकी फसलों का बीमा 
सुनिश्चित करना है 
खुदखुशी मुक्त भारत”

‘एक और निर्भया’ कविता में मासूम बच्चियों के साथ हो रहे बलात्कार के कारणों की पड़ताल की है। हम कैसा समाज बना रहे हैं जहाँ हवस एक बीमारी के रूप में फैल रही है जिससे ग्रसित होकर मनुष्य विवेकहीनता में गिरता जा रहा है।   इसे किस तरह मीडिया मसाला बनाया जाता है। कवि ने बड़ी शिद्दत से इस संवेदनहीन कृत्य का अंतिम रूप से इलाज ढूंढने की प्रस्तावना की है – 

“इसलिए जरूरी है इस बार
अंतिम रूप से ढूंढना है
इस घोर कलजुग को
जिसमें रह रहकर टिमटिमाता है
वो ट्यूमर
जो बुद्धि को बना देता है भैंस 
और विवेक को बैल
फिर नैतिकता की सारी नसें निचोड़कर
वो ट्यूमर बनाता है मन को
विकृत, विक्षिप्त और नपुंसक 
नैतिक रूप से बीमार
अर्थात् कमजोर ही कर सकता है बलात्कार”

इस कविता- संग्रह में 28 ग़ज़लें भी हैं, दो – चार ग़ज़लों को छोड़कर सभी गज़ल की कसौटी पर खरी हैं लेकिन भाव- पक्ष से देखें तो अर्श की ग़ज़लें बिल्कुल वक्त से रू बरू कराती हैं- 

“ठूंठ पर चिडिया बनाती घोंसले
काल की ये मार भी तो देखते ।

आंत का भूगोल जब भी खींचते 
भूख का विस्तार भी तो देखते”।

यही नहीं, विघटन के इस समय में जो मनुष्य में एक नई प्यास उतरी है और रिश्तों की दुनिया में सन्नाटा छा रहा है उसकी बानगी देखिए- 
“सिर्फ पानी से भला अब प्यास भी बुझती कहाँ है,
इक नई ही प्यास उतरी है, नया कुछ घोलके रख।
बहुत सन्नाटा बिछा है आज रिश्तों के शहर में 
पास अपने इसलिए कुछ दर्द की भी ढोलकें रख”। 
इस तरह ‘सुनो कौशिकी’ के माध्यम से कवि अर्श अपने कथ्य को प्रस्तुत करने में पूरी तरह सफल हुए हैं। इसमें समकालीन जीवन के लगभग हर पहलू पर कवि की दृष्टि ठहरी है और इसकी कविताओं में एक नए  समाज के निर्माण की ओर इशारा भी किया गया है। भाव, भाषा और शिल्प के हिसाब से ‘ सुनो कौशिकी ‘ एक मुकम्मल कृति बन पाई है। इस संग्रह का स्वागत किया जाना चाहिए,  इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। आशा है कवि दिलीप कुमार अर्श  इस रचना तक ही संतुष्ट नहीं रहेंगे, आगे भी ऐसी या इससे बेहतर रचनाएँ करते रहेंगे, मेरी यही शुभकामना है।

कृति- सुनो कौशिकी 
कवि – दिलीप कुमार अर्श 
प्रकाशक – प्रज्ञा प्रकाशन, रायबरेली ( उ प्र) – 229001
मूल्य- 180 रुपये ( पेपरबैक)
पृष्ठ- 120
प्रथम संस्करण- जनवरी 2019

समीक्षक : डॉ. नीलोत्पल रमेश 
पता : पुराना शिव मंदिर, 
बुध बाजार, गिद्दी - ए
जिला - हजारीबाग 
झारखंड -829108
मो नं - 9931117537

यह समीक्षा ' समहुत' में भी छपी थी। 






No comments:

Post a Comment

नवीनतम प्रस्तुति

ग़ज़ल- पाठ