कौन बनेगा कविकुलपति !

...टीवी खोलते ही स्क्रीन पर एक ताड़- सा खड़ा इंसान हाथ जोड़े प्रकट हुआ।   "देवियों - सज्जनों, नमस्कार,  आदाब,  सत श्री अकाल... 'कौन बनेगा कविकुलपति'  के इस कार्यक्रम में मैं यायावर मुनि आप सबका स्वागत करता हूँ । उम्मीद करता हूँ कि आप सब ख़ैरियत से हैं, छह फुट की आपसी दूरी बनाए हुए हैं, बनाए भी रखें, नहीं तो आजकल छह फुट जमीन भी नसीब...खैर, यह बताते हुए खुशी हो रही है कि मेरे बाबूजी जो हिन्दी के बड़े कवियों में से एक हैं, आज 
का दिन उनके लिए कुछ खास है।"
"बधाई हो मुनि जी, उनको बर्थ डे की ढेर सारी शुभकामनाएं"- सामने बैठे आडिएंस ने एक साथ  शुभकामनाओं की बारिश की। एंकर ने इस बारिश में भींगते हुए कहा, "अरे भाई,  आज उनकी पुण्यतिथि है, जन्म दिन नहीं" 
आडिएंस की मुद्रा बदली। थोड़ी सकपकाहट भी फैल गई। चेहरे पर क्षण - भर के लिए उदासी और शोक की मुद्रा हावी हो गई। 
एंकर ने अपनी नम आंखें पोछते हुए कार्यक्रम को आगे बढ़ाया। 
"खैर, देवियों सज्जनों,  अभ्यर्थियों की बढ़ती संख्या देखते हुए खेल के फार्मेट में इस बार तब्दीली की गई है । अब एक नहीं, पांच हाट सीटें होंगी, और 'कौन बनेगा कविकुलपति' का यह नाम सिर्फ इसी दिन के कार्यक्रम के लिए है। बाबूजी को श्रद्धांजलि देने के लिए इससे अच्छा क्या होता कि कुछ कवियों को आमंत्रित किया जाए, बीस हजार की रकम कविजन के लिए अभी भी बड़ी रकम है। मेरी शुभकामना है कि वे इसे जीतकर ही घर जाएँ...तो दर्शकों,  एक बार फिर से जोरदार थालियाँ,...माफ करें तालियाँ...हें, हें, दरअसल आजकल थालियाँ बजाकर...।"
एंकर की आवाज़ तालियों के शोर में तत्काल खो गई। 
"तो आइए , एक - एक कर कवियों मेरा मतलब अभ्यर्थियों से परिचय कराते हैं।"
एंकर के मुखमंडल पर टिकी कवियों की नजरें अब दर्शकों की तरफ मुखातिब हो गईं। 
"आपकी तारीफ़...?"
"जी, पहले तो बहुत-बहुत आभार कि आपने हम कवियों को इस लायक समझा। मैं जनेऊ प्रसाद सनातनी हूँ।काशी से हूँ ।"
"अच्छा तनातनीजी..."
"जी मैं सनातनी जी हूँ"
"क्षमा करें, सनातनी जी, दरअसल आजकल सनातनी और तनातनी में बहुत कम का फर्क रह गया है इसलिए भूल हो गई, लेकिन अपने कृतित्व पर थोड़ा... ।"
"जी, मुझे ऐसे सवर्ण कवि कहते हैं, सबका कहना है कि मेरी कविता में जो भी संवेदना है उसके पैरों में सवर्ण- हित के घुंघरू बजते हैं।"
एंकर थोड़ा अतीत में खो गए। "घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूँ मैं" वाला गाना कान में गूंजने लगा। 
"कोई बात नहीं सनातनी जी, घुंघरू हैं तो बजेंगे ही।  हमारे आडिएंस  इस घुंघरू की आवाज़ सुनने के लिए नहीं आए हैं,  वे तो आपसे बस सही जवाब सुनने आए हैं।"

एंकर दूसरे अभ्यर्थी की ओर मुड़े। 
"जी, मैं कन्हैया लाल चरवाहा, मथुरा से हूँ, लोग मुझे पिछड़ा कवि कहते हैं।"
आडिएंस के चेहरे पर मुस्कराहट दौड़ गई लेकिन एंकर परेशान हो गए। 
" पिछड़ा कवि क्यों चरवाहा जी ?"
" क्या है कि जब समाज में विकास का मैराथन शुरू हुआ, कुछ लोग आगे निकलने के चक्कर में दौड़ते - दौड़ते पिछड़ गए और तभी से पिछड़कर रस्ते में ही पड़े रहे, मुकाम तक नहीं पहुँचे। अब उठकर खड़े भी होते हैं तो लोग पिछड़ा ही कहते हैं, खड़ा कोई नहीं कहता। " 
 "कुछ तो लोग कहेंगे.." ' एंकर को गाना याद आ गया। 
"लेकिन आपकी कविता का विषय क्या है ?"
"जी, हम सिर्फ आरक्षित विषय पर लिखते हैं, कभी-कभार कुछ अनारक्षित में भी कुछ आरक्षित- सा प्रतीत हुआ तो हम उस पर भी लिखना नहीं छोड़ते।"
" लेकिन पिछड़ा कवि जी, ये चरवाहा तखल्लुस क्यों ?"
"जी, इसे जातीय या वर्गीय चेतना कह लीजिए। वृन्दावन बिहारी लाल भी चरवाहा ही थे। उनकी गीता से बड़ा काव्य जरा बता दीजिये जो मुर्दों में भी जान फूंक सकता हो ? "
"बिल्कुल सही चरवाहा जी, मेरा मतलब पिछड़ा कवि जी ।"
एंकर की नज़र अब उसके ठीक बगल में विराजमान तीसरे कवि पर गई । 
"अरे भाई साहब, आप सोशल डिस्टेंसिंग का थोड़ा ख्याल तो रखिए, पूरा देश देख रहा है और आप पिछड़ा कवि जी से बिल्कुल चिपककर बैठे हैं। कहीं आप अत्यंत पिछड़ा कवि तो नहीं हैं ?"
"जी, बिल्कुल सही पकड़ा है आपने। हम दोनों में फर्क बहुत-बहुत झीना है, दूरी तो पहले से ही कम है। यह तो  'सोशल डिस्टेंसिंग एण्ड सोशल इंजीनियरिंग रिसर्च कौंसिल' के कुछ लोग हैं जो हमें एक दूसरे से अलग कर दूर बिठाने की साजिश में लगे हैं वरना पिछड़े तो हम दोनों ही थे दौड़ में। फर्क सिर्फ समय और स्थान का था। हम पिछड़कर पहले ही गिर गए थे और गिरने के बाद भी पिछड़ते ही रहे। गिरते वक्त हम इनसे थोड़ा पीछे थे, अब ये खड़े हैं फिर भी ये 'पिछड़ा' हैं।  हम तो अभी घुटनों के बल आधे ही खड़े हो पाए हैं तो लोग मुझे अत्यंत पिछड़ा कवि नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे सर ?  हमारा यथार्थ ही अत्यंत  पिछड़े हुओं का यथार्थ है। "
एंकर के चेहरे पर सहानुभूति की झलक साफ थी, जैसे कुछ गैर - दलित कवियों की कविताओं में दलितों के लिए सहानुभूति अपनी सारी कलाओं के साथ झलकती है । 
"अत्यंत पिछड़ा कवि जी, आप तो अपना परिचय देने में भी अत्यंत पिछड़े जा रहे हैं ?"
"जी मैं हूँ धनिकलाल धरतीपकड , बिहार के पूर्णियां जिले से हूँ । "
"जी आपके नाम में यह धरतीपकड क्यों है ? जरा दर्शकों को तो बताएं ?"
" जी बात दरअसल यह है कि हम ठहरे जमीनी लोग, धूरा - माटी करनेवाले। हम अपनी जमीन नहीं छोड़ते। भले ही दिल्ली पंजाब जाते हैं हम खाने - कमाने के लिए लेकिन लौटकर अपनी जमीन पर जरूर आते हैं, चाहे चंडीगढ़ से बिहार पैदल ही क्यों न आना पड़े ।"
एंकर थोड़ा घबराए । अब वे तेजी से चौथे अभ्यर्थी के सामने आकर खड़े हो गए । 
"महाशय, आप चुप ही रहेंगे या कुछ... ?"
महाशय ने मुंह खोला, "जी , हम चुप नहीं रहते, लेकिन हमें चुप रखने की कोशिश या साजिश जो भी कह लें, हमेशा चलती रहती है। हम तो सबसे ज्यादा वोकल हैं, इतने वोकल कि खुद भी नहीं सोते, पड़ोसियों को भी सोने नहीं देते। अब हम कितना सोएंगे सर, सदियाँ बीत गईं सोते - सोते, अब जाग गए हैं तो सदियों तक हम जगे ही रहेंगे। अब हमें कोई सुला भी नहीं सकता, कोई कितना भी नरम बिछौना -तकिया लगाए या नींद की गोली खिलाए। दलित कवि हैं हम। सबको पैरों से क्या, पैर के चिन्हों से पहचानते हैं ।"
एंकर ने उत्सुकतावश  पूछा, " वो कैसे ?"
"सर, हम पैरों से पैदा हुए, पैरों की सेवा की और उन्हीं पैरों तले दले- कुचले गए। हमारी पीठ को पुल बनाकर लोग इस पार से उस पार जाते रहे, हम पुल वहीं पड़े रहे ...लेकिन सर, पुल अब समझ सब समझ चुका है। अब पुल भी आगे बढ़ने को बेताब है तो लोगों की दुख रही है, खुजली उठ रही है ।" 
एंकर, दलित कवि की बेबाकी पर भौंचक थे। 
"नाम तो बताएं दलित कवि जी ?"
" जी, दर्शकों, मैं हूँ पवित्तर राम अछूत, मगहर से आया हूँ ।"
"कवि जी, नाम में यह पवित्तर और अछूत कुछ समझ नहीं आ रहा ।"
" जी यही तो दिक्कत है। लोग हमें समझे बिना ही हमारे नाम समझने की कोशिश करने लगते हैं ।"
" आप जरा समझाएं तो हम आपको समझें ।" - एंकर ने चुटकी ली।
"श्वपच सुना है आपने ? पांडव के यज्ञ में घंटा तबतक नहीं बजा जबतक उन्होंने पत्तल झूठा नहीं किया । कृष्ण जी ही थे जो इस रहस्य को जानते थे कि वह अकेला पवित्र आदमी था वहाँ, भले ही सब उन्हें अछूत समझते थे।"
"यह तो बड़ा रोचक रहस्य कहा है आपने ।"
" जी सदियों से हम गंदगी साफ करते रहे और हमीं गंदे हो गए ?  कचरा - कूडा आपका और कचरेवाले हम कैसे हो गए साहब ? जो समाज का कचरा साफ करने आए, वे महापुरुष क्यों कहलाए ? जरा कह कर देखिए बुद्ध,  महावीर, कबीर, गांधी, मार्क्स, लूथर, अम्बेडकर  ....को कि ये कचरापुरुष थे तो कितना बवाल होता है !"
"लेकिन यह दलित कैसे हुए आप ?" एंकर ने हिम्मत कर पूछा ।
" सिंपल है सर, जो लोग मैराथन में दौड़ रहे थे, वे हमें कुचलकर आगे निकले, जो पिछड़ गए थे वे भी हमारे ऊपर ही गिरे। जान बच गयी बस वरना हम तो हाथ - पैर, आंख - नाक गंवा ही चुके थे। हमारे पास खोने के लिए कुछ बचा ही क्या था ? सिर्फ   सांस या आवाज़ ही तो बची थी, उसे भी खो दें बचेगा क्या ? आवाज़ करते रहने से आवाज़ भी बची रहती है।हमारे पुरखों की सीख है तो हम आवाज़ कर रहे हैं। लोग परेशान हों या तंग, आवाज़ तो थमनेवाली है नहीं।"
"सही कहा आपने अछूत जी,वो गाना भी है न ? मेरी आवाज़ ही पहचान है गर याद..."
दलित कवि मुस्कुरा रहे थे। तालियों की रिमझिम भी जारी थी।
पांचवा अभ्यर्थी सबसे अलग - थलग कुछ अन्यमनस्क भाव में डूबे थे। एंकर के टोकने पर उनकी जैसे झपकी टूटी और अपनी तारीफ़ तफसील से बयां करने लगे, " जी , मैं हूँ जनाब जुम्मन जुमला, हिन्दी में नज़्म लिखता हूँ। हलांकि लोग मुझे मुस्लिम कवि कहते हैं। इलाहाबाद से हूँ।"
एंकर ने पूछा, " मुस्लिम कवि कहते हैं ? कहीं आप गजवा ए हिन्द के तरफदार कवि तो नहीं हैं ?"
"क्या बात कर रहे हैं जनाब ? मैं गजबा ए हिन्द नहीं मैं जज्बा ए हिन्द में यकीन रखता हूँ लेकिन मेरे यकीन पर किसी को यकीन नहीं। मुझसे हमेशा अपनी वतनपरस्ती का सुबूत मांगा जाता है बावजूद इसके कि मेरी  शायरी में इसका पुख्ता सबूत है।" 
एंकर ने थोड़ी सहानुभूति की मुद्रा बनाई और शुरू हो गए, " जुमला साहब, एक दिन सबको यकीन होना ही है। आप सब्र करते चलें बस...."
" लेकिन यह जुमला तखल्लुस ...कुछ अजीब नहीं लगता आपको ?"
"सर, जुमला है इसलिए आपको अजीब लग रहा वरना आजतक किसी ने इस पर कभी आपत्ति नहीं की। जुमला तो सबको अच्छा लगता है, साहब। कहने वाले को भी और सुननेवालों को भी।" 
माहौल थोड़ा हल्का हुआ। सामने हंसी की छिट - पुट फुलझड़ियाँ भी छूटीं। परिचय का दौर शायद खत्म हो चुका था। एंकर ने घड़ी की तरफ देखा और तालियाँ बजाते हुए खेल शुरू करने का संकेत दिया। 
" देवियों,  सज्जनों,  अब शुरू होता है खेल, एक ही प्रश्न होगा। स्क्रीन पर पांच विकल्प होंगे। सही जवाब देने पर बीस हजार....! और उसके बाद अंत में मैं जरूर पूछूंगा - "कवि जी, इतनी बड़ी राशि का आप करेंगे क्या ?"
लोग मुस्कुरा रहे थे। धडकनें बढ़ रही थीं । कविगण के चेहरे पर फैलता तनाव स्पष्ट गोचर हो रहा था। 
" तो लीजिए, यह रहा प्रश्न - 
"हिन्दी  - साहित्य - परंपरा में सबसे लोकप्रिय पुष्प कौन - सा है ?" 
ए) कमल  बी ) गेंदा  सी) सरसों  डी) गुलाल  ई) पुरईन फूल 
विकल्प स्क्रीन पर आते ही जवाब भी यंत्रवत् एक साथ आ गए ।
एंकर भौंचक थे कि एक प्रश्न के पांच उत्तर ? यह कैसे संभव है ? 
मुस्कुराते हुए वे सवर्ण कवि की तरफ मुड़े। 
" सनातनी जी, कमल ही क्यों ?"
"श्रीमान जी, कमल सर्वाधिक लोकप्रिय पुष्प है खासकर कवियों में । एक भी ऐसा कवि बता दीजिये जिन्होंने इस पुष्प की महिमा का उपयोग न किया हो, संक्षेप में कहूँ तो कहना पड़ेगा - पद - पदुम परागा, राजीव नयन, मुखारविंद, झड़ै अरविंदन ते बूँद मकरंद के...और कितना कहें ! ...ज्यादा कहूँगा तो आप भी कहीं भक्त न कह डालें ।"

एंकर अभी भी मुस्कुरा रहे थे। तभी उनकी नज़र पिछड़ा कवि पर जा टिकी। इससे पहले कि वे कुछ पूछते, चरवाहा जी स्वयं शुरू हो गए।
"सर कमल पुष्प सिर्फ साहित्य में है। बाहर सब जगह गेंदा फूल का राज है। कोई ऐसी माला दिखाइए जिसमें गेंदा फूल न हो। शादी में,  श्राद्ध में,  स्वागत में, सम्मान में, सजावट में,  मंदिर में,  मजार पर, चर्च में,  गुरुद्वारे में ...और कहाँ तक बताऊँ ?..आपके टीवी पर भी पर भी वही है- ससुराल गेंदा फूल ...
आडिएंस का कोना - कोना ठहाकों से गूँज उठा। एंकर प्रफुल्लित थे। लेकिन चरवाहा जी यहीं नहीं रुके। उनका वचन जारी था - सर, गेंदा के खिलाफ़  कमल पुष्प का घोर षडयंत्र है कि जीवन और समाज में गेंदा ही गेंदा है और साहित्य में कमल पुष्प विराजमान है। इसलिए साहित्य समाज का दर्पण है या नहीं इस पर पुनर्विचार करना होगा ।  गेंदा अभी तक पिछड़ा फूल है, सर ।"
बीच में जनाब जुमला ने टोका - सरासर गलत, गुलाब के सामने सब फीके ! इससे खूबसूरत फूल कहीं देखा है आपने ? नेहरूजी इसे ऐसे ही दिल से लगाए नहीं फिरते थे। कुछ फिरकापरस्त ताकतों ने इसे फारस का बताकर इसकी कितनी फजीहत की है , यह बेचारा गुलाब ही जानता होगा, मैं इसे हिन्दी में सही जगह दिलाने के लिए लड़ता ही रहूँगा, अरे सनातनी जी, चरवाहा जी...आंख में गुलाब- जल डालिए तो आंखें खुलेंगी, अत्तर गुलाब घसिए तो नज्म में खुशबू भी आएगी, खाली गो, गो - मूत्र, गोबर पर कितना काम चलाइएगा !"

आडिएंस में खुसर - फुसर जारी थी कि धरतीपकड जी थोड़ा संभले और गला खखारकर बोले , " सर, सब झूठ, सही उत्तर सरसों का फूल है। कविता में इस पर ध्यान कम गया है, सिर्फ प्रगतिशील कवियों ने इसे याद किया है। फिर भी फिल्मी गीतों की सीन में देखिए हीरो - हीरोइन किस तरह सरसों के खेत में...दरअसल यह फूल ग्रामीण संस्कृति की खुशहाली का बिंब उभारता है। सरसों खेत से गुजरिए तो पता चलेगा यह फूल कितना रंग भरता है उदास खेतों के चेहरे पर ! भारत खेतों का देश है, रेतों का नहीं। यहाँ खेत हंसता है तो पूरा देश हंसता है। सरसों के पीले फूल देखकर धरती का जी जुड़ा जाता है और ये कुछ मुट्ठी भर लोग जो शौक से मक्के की रोटी के साथ सरसों साग का मजा लेते हैं, मजा ले लेकर सरसों के फूल के नाम पर नाक - भौं सिकोड़ते हैं। पत्ता प्यारा है, सरसों के दाने प्यारे हैं,  सरसों के फूल नहीं ! इसे ही कहते हैं सर ' दोगलेपन का विशिष्टाद्वैतवाद"...मेरा वश चले तो इसे राष्ट्रीय फूल घोषित कर दूँ।"
" कवि जी, वो तो कमल पहले से ही है, फिर बाकी दावेदार भी तो हैं ।"
"सर, बाकी सब को उप - राष्ट्रीय फूल बना दीजिये, कोई आपत्ति नहीं ।"
सुनते ही दलित कवि अगिया बैताल हो गए । स्वयं को थोड़ा संभालते हुए उन्होंने मुंह खोला ," पुरईन फूल को छोड़कर कोई भी इस काबिल नहीं ।" पुरईन फूल मतलब दलित भारत !"
" ये फूल कहाँ होता है भाई साहब  ?"
"अरे मुनिजी, आप भी क्या मज़ाक कर रहे हैं ! पूरा रमैन पढ़ लिए हैं और पूछ रहे हैं ...?"
"लेकिन रामायण में तो यह फूल कहीं है ही नहीं ?"
" जी, रमैन मतलब आप तुलसी का रमैन नहीं,  रेणु का रमैन नहीं पढ़े हैं?"
" रेणु जी अपने रमैन में इस फूल को पहली बार याद किए हैं। साहित्य में प्रयुक्त सबसे लेटेस्ट ताजा फूल। नचनिया जब नाचता है तो उसकी घांघरी पुरईन फूल की तरह घूमती फैल जाती है और उसके नीचे से निकलनेवाली गुमी हुई गंध तो आप ही ने सूंघा और आप ही कहते है कि यह कौन - सा फूल है ? शंखपुष्पी मत पीजीए सर, पुरईनपुष्पी का सेवन कीजिए तो साठ के बाद भी याददाश्त बना रहेगा। असली दलित फूल है यह। दलित फूल ही दलित - भावना को महसूस कर सकता है, सनातनी कमल, पिछड़ा गेंदा , अत्यंत पिछड़ा सरसों आदि क्या जानें दलित फूल का मर्म ? "
एंकर यायावर मुनि जी भौंचक थे लेकिन सनातनी जी 'तलमला' उठे। खुद को रोक नहीं पाए। चरवाहा जी भी अदहन की तरह खुदबुदाने लगे ।  
"तो क्या क्रौंच की पीड़ा पर सिर्फ क्रौंच ही कविता लिखेगा ? वाल्मीकि नहीं ?"  - सनातनी जी ने पूछा । 
दलित कवि जी तत्काल निरूत्तर हो गए परन्तु सामने रखे पानी गिलास से सिप लेते हुए फूट पड़े - ," आप घोर - मट्ठा मत करिए सनातनी जी, पंछी - परेवा को आदमी में मत घुसाइए। हम कहाँ कह रहे हैं कि कौवे पर सिर्फ कौवा ही कांव कांव करेगा ? आप भी कांव कांव करिए लेकिन कौवा उसे अपनी कांव - कांव कैसे माने ?" 
सनातनीजी के मुंह की बात मुंह में ही रह गई। लेकिन जुमला जी रहा न गया। दाढ़ी खुजाते बोले, " सही बात। अकलियतों पर लिखने के लिए अकलियत होना ही पड़ेगा, वरना अकलियत का घुटन,  डर या दर्द आप महसूस कैसे करेंगे ?"
" तो इसीलिए आप धर्मांतरण करा दीजिए मेरा, अल्पसंख्यक को लेकर मेरी सारी कविताएँ जो आपको झूठी लगती हैं वे तो सच्ची हो जाएंगी फिर ?"
इस वाक् युद्ध को एंकर मुनि जी रोक नहीं पा रहे थे। उन्होंने सबका ध्यान दीवार पर लटकी घड़ी पर खींचा। अब पुरस्कार राशि देने की बारी थी।
एंकर ने घोषणा की ," देवियों सज्जनों, चूंकि कम्प्यूटर बाबा सारे उत्तर सही बता रहे हैं । इसलिए राशि बांटकर दी जाएगी। इसमें कोई आरक्षण नहीं होगा।"
पांचों कवि प्रफुल्लित थे। चार हजार की राशि कोई कम राशि नहीं थी। सनातनी जी बद्रीनाथ धाम यात्रा के  स्वप्न में डूब गए। चरवाहा जी की सूट सिलवाने की इच्छा पूरी होनेवाली थी। जुमला जी के मन में मदरसे का छप्पर छाने का मनसूबा मचल रहा था। धरतीपकड जी की इच्छा थी कि कुछ और पैसे हों तो एक नया मोबाइल खरीदा जाए और बीच - बीच में लाइव हुआ जाए। अछूत जी सोच रहे थे -  प्रकाशक को बकाया रकम देकर वो नया कविता - संग्रह 'दीवारें ढह रही हैं' जल्दी ही छपवा लें वरना छपने से पहले ही सब दीवारें ढह गईं तो संग्रह कौन पढ़ेगा ? क्योंकि दीवारें बहुत तेजी से ढह रही हैं।
एंकर मुनि जी कुछ कहना चाह रहे थे कि बिजली ही गुल हो गई । मैं टीवी की खाली स्क्रीन देखता रह गया। □□□
 


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