भीड़ से खारिज आदमी भले ही हारा हुआ लगता है
कभी हारा हुआ नहीं होता
वह अकेला या बेसहारा हुआ लगता है
पर कभी अकेला या बेसहारा नहीं होता
भीड़ से खारिज आदमी का
सिर्फ और सिर्फ भूगोल ही होता है
कोई इतिहास नहीं होता
उसके पास नहीं होती कोई दूसरी संज्ञा
या एक भी विशेषण
अपने नाम के शुरु - आखिर में लगाने के लिए
कोई शीर्ष- पूंछ नहीं होते
क्योंकि शीर्ष - पूंछ मिलते हैं
सिर्फ इतिहास के संरक्षित अभयारण्य में
और वहाँ नाबाद हिलते हैं
किसी विजेता के फरमानी इशारों पर
भीड़ से खारिज आदमी पहले ही
खारिज कर चुका होता है ऐसे इशारों को
समय रहते इन्कार कर चुका होता है
शीर्ष और पूंछ के बीच हकलाती जिंदगी को
भीड़ से ख़ारिज आदमी
स्वीकार कर चुका होता है
शीर्ष- पूंछ विहीन अस्तित्व के अपने भूगोल को
वह पहचान चुका होता है
भीड़ में खड़े व्यवस्था के मदारी को
जान चुका होता है कि आज के दौर में
मदारी दरअसल एक संपेरा है
बजाता है नित नये सुरों में बीन दिन भर
बीन सांप के लिए है या भीड़ के लिए
यह एक बड़ा रहस्य है
और इस रहस्य को जिज्ञासा की खुजलाती धूप से बचाने के लिए
बीच बीच में वह नए-नए अंदाज़ में दिखाता है
सांपों का खतरनाक खेल
पैदा करता है डर का ऐसा मायावी बाजार
जहाँ सांप आभासी रूप में और बड़े दिखते हैं
और डर वास्तविक रूप में उनसे भी इतना बड़ा कि
शाम तक जिज्ञासा से ज्यादा जरूरी हो जाते हैं वे जंतर
जिन्हें बेचना हो जाता है तब बहुत आसान
और खरीदना भी बहुत ज़रूरी
भीड़ से खारिज आदमी जानता है
जंतर की असलियत
यह भी कि सांप दंतहीन है दरअसल
और डर एक झूठ है
सच यही है कि
भीड़ से जो बिल्कुल खारिज या अपदस्थ है
अपनी सोच में वही साफ है, वही स्वस्थ है
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