August 15, 2019

खूंटी और कविता

कमजोर या मजबूत
हरेक कवि के भीतर एक खूंटी गड़ी रहती है
उससे बंधी कविता घूमती है अक्सर गोल - गोल
कभी खूंटी पर भी खड़ी रहती है

जब टूटती है जड़ता की डोर
कविता जागती है
वह खूंटी तोड़कर भागती है बदहवास चौराहे पर खड़ी आतनिक भीड़ से
एक आदमी को चुन लाती है
इस तरह वह एक आदमी हो जाती है
अब भीड़  की खूंटी उखाड़ फेंकने के लिए

लेकिन जब कवि
कविता को खूंटी से खोल देता है
कविता कुछ क्षण ठिठक जाती है
बेबस हो अपनी ही मुक्ति पर
जड़ता के नियम के हिसाब से वह
दूर आगे तक नहीं जाती
और जब कवि उसे आगे से आवाज़ देता है
उसी चौराहे की ओर
कविता भीड़ तक पहुंचती तो है
वह बस भीड़ की छाया छूकर लौट आती है
जैसे धूप पेड़ के चारों ओर उसकी छांह छूकर लौट जाती है
सूरज के पास

कवि को याद आता है गंवई मुहावरा कि
हुलाया हुआ कुत्ता कभी शिकार तो नहीं पकड़ता है
लेकिन खाली हाथ लौटने पर भी कितना अकड़ता है

...तो कविता को खूंटी से खोलकर भगाना कितना सही है
या ज्यादा सही यह है कि
कविता कब खुद खूंटी तोड़कर भागे
उस विलक्षण क्षण का इंतजार करना  ?

अभी बदले समय में
यही बड़ा प्रश्न है
और कवि फिलहाल कनफ्यूज्ड है

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