घर
मत पूछो
कब लौटता हूं घर
कोई उत्तर नहीं है मेरे पास
लेकिन चलता हूं रोज घर की ओर
सोचकर कि कभी तो पा जाऊंगा
इस रास्ते का वह छोर
जहाँ होगा मेरा घर खड़ा
मेरी प्रतीक्षा में
खोल अपने द्वार – दरवाजे और खिड़कियाँ
ढूंढता होगा मुझे
बगल से गुजरते राहगीरों में
पूछता होगा सबसे मेरे बारे में
सिर पर लिए वह छत बरसों से
नीचे बिछाकर छांह शीतल
पानी लिए वह खडा होगा
मेरी प्यास और थकान हरने के लिए
क्योंकि घर को ही मालूम रहता है
छांह और पानी सबसे पहली जरूरत है
धूप में चलते आदमी के लिए
सोचता हूं कभी-कभी
कितना थका होगा वह घर भी
किंचित् मुझसे भी ज्यादा
क्योंकि प्रतीक्षा में खड़ा रहना
कहीं ज्यादा थकाऊ और उबाऊ है शायद
लगातार चलते रहने से !
लेकिन वह चल नहीं सकता
क्योंकि वह घर है
और घर कभी चलता नहीं
वह तो चलना खत्म होने का ही नाम है
और चलना,
बस चलते रहना तो अपना काम है
कभी तो खत्म होगा यह चलना
और जब भी खत्म होगा
तब नहीं पूछ पाओगे
कब लौटता हूँ घर
क्योंकि तब नहीं होगे तुम, न ही मैं भी
वहाँ होगा सिर्फ वही घर
जहाँ अभी तक मैं पहुँच नहीं पाया ! □□■
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