झाड़ू / कविता / दिलीप दर्श
चुनावी छाप बनने के बाद
झाड़ू
भूलने लगता है बुहारना
सीखने लगता है उछालना कीचड़
उड़ाने लगता है धूल
जीतने के बाद
डूब जाता है जश्न में
आगे खड़ा वह खुले जीप में
पीछे हजारों जिंदाबाद
आत्ममुग्ध झाड़ू
विनम्र होने की कोशिश में
झुकता है
विजय – जुलूस जाकर सीधा
लोकतंत्र के मंदिर पर ही रुकता है
पद और गोपनीयता की शपथ के बाद
अन्य स्थापित खानदानी छापों की तरह
वह भी बनने लगता है लाठी और आंसू गैस
फोड़ने लगता है सर
तोड़ने लगता है कंधे
करने लगता है बेहोश और अंधे
पता नहीं चलता
कब और कैसे
घोषणा- पत्र बन जाता है स्मारक
इधर
मां सुबह – सुबह ढूंढ़ती है
झाड़ू
बुहारना है बासी घर - आंगन
पिता को भेजना है खेत
बेटे को दफ्तर
बहू को आंगन – बाड़ी
छोटे बच्चों को स्कूल
करनी है दिन की शुरूआत
झाड़ू कहीं नहीं मिलता है अब
न घर में, न ही दुकान में
जमीन पर कहीं नहीं
वह अब लटका है
आसमान में !
29/12/2018
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