साहब, ढौवै नाम कबीरा।
तन से साहब लेकिन मन से खुद को कहत फकीरा।
भीतर बाजै पॉप- रॉक पर बाहर ढोल - मंजीरा।
कंठ चढ़ावै पेप्सी कोला होठ जपै जलजीरा।
अब नहिं भावै घर में दलिया, दूध -दही या खीरा।
बाहर हैप्पी मील उड़ावै चौमिन, चिकन, पनीरा।
पिज्जा- बर्गर के सम्मुख मुख फाड़ै होय अधीरा
ए सी जिम फिर, जाइ - जाइके जिस्म बहावै नीरा।
वैष्णव जन ही बूझै साहब के तन - मन की पीरा ।
बहुजन तो बस दूरदास संग गावै पद गंभीरा।
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