राकेश भ्रमर एक सजग, सहज और स्वाभाविक ग़ज़लकार हैं। उनकी ग़ज़लों में शब्दों की भीड़ कम और भावानुभूति का मेला अधिक है। समकालीन यथार्थ और जीवन - बोध को आवाज़ देती उनकी ग़ज़ल बिल्कुल मन - प्राण को छूती ही नहीं बल्कि भीतर के तार को झंकृत भी कर जाती है । उनकी ग़ज़ल अन्य समकालीन ग़ज़लकारों के लिए एक मुकम्मल सबक भी है। प्रस्तुत है उनकी यह ग़ज़ल जो समय के साथ संवाद करते हुए अपनी ग़ज़लियत का परिचय भी देती है ।
ग़ज़ल /
विष भरा है इन हवाओं में गली से घर चलो ।
दम न घुट जाए फ़िजाओं में गली से घर चलो ।
पीर पैगंबर तुम्हारे दर्द रक्खेंगे कहां
कुछ नहीं बाकी दुआओं में गली से घर चलो ।
इन घरौंदों से चुराकर ख़्वाब कोई ले गया
अब न कुछ बाकी घरौंदों में गली से घर चलो ।
अश्क़ तो सुखे हुए है आंख नम होती नहीं
दिल बहुत टुटे जफ़ाओं में गली से घर चलो ।
रोटियां पैदा हवाओं में मदारी कर रहे
रीझना क्या इन अदाओं में गली से घर चलो ।
अब न पूछेगा पता कोई “भ्रमर” गांव का
खो गए किस्से किताबों में गली से घर चलो।
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