साधो सत्ता स्वाद निराला
साधो, सत्ता - स्वाद निराला ।
एक बार जो चढ़ै जीभ पर, बाढ़ै जीभ विशाला।।
बाढ़ै दाँत, आँत विस्तारै, धारै हवस कराला ।
दीन हीन जनता की छाती चूसै दीनदयाला ।
भूखे पेट भजन बनै नहिं चढ़ै न चित गोपाला।
पेट भरै तो दुनिया झलकै, झलकै ब्रह्म- उजाला ।
पत्नी बेटा भाई चाचा सास बहू व साला
जननायक अब अपने जन का राखै खूब खयाला।
कहती थी कितना बचपन में अपनी बूढ़ी खाला।
वक्त पड़े तो तोड़ फेंकना बेटा ! कंठी - माला।
भीतर से सब घी पीवत हैं गुपचुप ओढ़ि दुशाला
दूरदास दिन रैन करत बस ऊ ला ला ऊ ला ला ।
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